tag:blogger.com,1999:blog-1338007918823710198.post7447906737184663467..comments2023-07-26T16:09:24.741+05:30Comments on Lokavidya Jan Andolan (LJA)<br>लोकविद्या जन आन्दोलन: आमंत्रण / घोषणा : लोकविद्या जन आंदोलन की राष्ट्रीय बैठक, विद्या आश्रम, सारनाथ, वाराणसी, 17 अक्टूबर 2016Vidya Ashramhttp://www.blogger.com/profile/02683679935172546020noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-1338007918823710198.post-72327549583041088422016-10-13T21:10:09.518+05:302016-10-13T21:10:09.518+05:30मैं 1977 में वामपंथी राजनीति के साथ जुड़ा। उन दिनों...मैं 1977 में वामपंथी राजनीति के साथ जुड़ा। उन दिनों मैं कालेज में पढ़<br />रहा था। पढ़ाई के बाद मैं सक्रिय राजनैतिक कर्मी बन गया। करीब बीस साल बाद<br />मैं 1997 में वामपंथी राजनीति का रास्ता छोड़ समाज परिवर्तन का कोई दूसरा<br />रास्ता ढूँढ़ने लगा। मैंने देखा था ,वामपंथी राजनीति में किसानों -<br />मजदूरों को भले ही प्रधान माना जाता हो लेकिन वहाँ कुलीन या एलिट लोगों<br />का ही बोलबाला था। उससे लोकसमाज दूर रह गया था। बंगाल में 'लोकसमाज '<br />सुपरिचित क्षेत्र है। यह शब्द भी काफी प्रचलित है। नागरिक समाज या सिविल<br />सोसाइटी से फर्क समझाने के लिए इस शब्द का इस्तेमाल होता है। लोकसमाज के<br />साथ साथ लोकसाहित्य, लोकशिल्प (लोककला), लोकगीति जैसे शब्द भी लोकप्रिय<br />हैं।<br /><br /><br />मेहनतकशों के लोकसमाज से जब मैं संपर्क करने की कोशिश कर रहा था तब मुझे<br />प्रद्युम्न भट्टाचार्य का एक लेख 'लोकविद्या केंद्र : काजेर लक्ष्य '<br />पढ़ने का अवसर हुआ। पश्चिम बंगाल में कुछ सोचने- विचारनेवाले लोगों की पहल<br />से 1989 में 'लोकविद्या केंद्र ' की स्थापना हुई थी। जब 1997 में<br />प्रद्युम्न भट्टाचार्य से बातचीत शुरू हुई उस वक्त लोकविद्या केंद्र टूट<br />गया था। लेकिन लोकविद्या केंद्र की भावना से हमें नई प्रेरणा मिली।<br />'लोकविद्या ' की भावना से प्रभावित होकर हम कुछ साथियों ने 1998 से<br />'मंथन ' नाम की पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। फिर 2008 में हमलोगों ने<br />एक पाक्षिक समाचारपत्र शुरू किया। उस समाचारपत्र में किसी की खबर उसी की<br />जुबानी छपती या उसके लिखे के आधार पर खुद के तजुरबे से खबर देने का<br />प्रयास रहता। पिछले लगभग दो वर्षों से वह समाचारपत्र बंद है।<br /><br />2004 में मुंबई में वर्ल्ड सोशल फोरम के आयोजन में श्री सुनील<br />सहस्रबुद्धे और उनकी लोकविद्या भावना से मेरा परिचय हुआ। उनसे जानकारी<br />मिली कि 1995 से वाराणसी में लोकविद्या की भावना के तहत कार्यक्रम चल<br />रहा है। उनके लेख 'बौद्धिक सत्याग्रह ' का बांग्ला अनुवाद हमने अपनी<br />पत्रिका मंथन में छापा।<br /><br />लोकविद्या -- यह शब्द-चयन नया है। लेकिन इस भावना को लेकर रवीन्द्रनाथ<br />ठाकुर ने शांतिनिकेतन में 1905 में कार्य शुरू किया था। श्रीनिकेतन की<br />स्थापना, 'लोकशिक्षा ग्रंथमाला ' और 'विश्वविद्या संग्रह' का प्रकाशन उसी<br />भावना को वास्तविक रूप देने का प्रयास था।<br /><br />इस साल मार्च में हम बांग्लादेश के कुष्ठिया जिले के छेउरिया गांव गए थे<br />जहाँ लालन फ़क़ीर का मज़ार है। वहां लोग उनको लालन शाह कहते हैं। लालन ने<br />खुद वहाँ होली के समय एक उत्सव शुरू किया था। होली के दिन आज भी वह उत्सव<br />मनाया जाता है। हमने देखा बांग्लादेश के सरे जिलों से करीब पाँच लाख लोग<br />उसमे शामिल हुए। यह समझ में आया कि लालन सिर्फ एक लोककलाकार ही नहीं, एक<br />चिंतक थे। लोकविद्या जनआंदोलन की शुरुआत तो उसी दिन से हो गई थी।Jiten Nandinoreply@blogger.com