Thursday, July 30, 2020

धर्मसंस्थापनार्थाय : हमारा साधारण समाज

इस ज़माने में क्या काम करने योग्य काम है? और उस काम को कैसे किया जाय? यह दो महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। ऐसा सुना है कि लगभग 100 वर्ष पूर्व लेनिन ने भी यह दो प्रश्न पूछे थे- what is to be done और how is it to be done; क्या करना है और कैसे करना है। इन प्रश्नो के उत्तर भी उन्होंने दिए। उनके उत्तर से रूस की क्रांति खड़ी हुई, पूरे यूरोप और पश्चिम की दुनिया में बदलाव भी आय। और बाकि दुनिया को भी बदलने का प्रोजेक्ट चल पड़ा।

उनके उत्तर हमारे समाज के लिए लिए कितने सही हैं या नहीं, यह मैं नहीं जानता, लेकिन यह दोनो प्रश्न तो हमारे लिए भी महत्व रखते ही हैं। इन प्रश्नो पर सामूहिक विचार-विमर्श होते रहना चाहिए। इस विमर्श में भारत की स्थिति का आँकलन करना और भारत की भाषा एवं दृष्टि को पकड़पाना उपयोगी होगा ऐसा मेरा मत है। लोकविद्या शब्द से ऐसा भाव मुझे मिलता है। इसी कड़ी में यह लेख लिख रहा हू और लोकविद्या आंदोलन से जुड़े सम्मानित अग्रज जन से साझा कर रहा हू।


 धर्मसंस्थापनार्थाय

मेरी समझ से, महात्मा गांधी के अनुसार भारत की समस्याओं के मूल में है भारत का धर्म-भ्रष्ट हो जाना।[1] और अगर मैं उनके सारे प्रयासों को समझता हू; चाहे वो स्वदेशी की बात हो, चाहे अहिंसा की, या फिर उनके उपवास की बात, सभी प्रयासों के मूल में जो चिंता नज़र आती है, वह है “धर्म संस्थापनार्थाय” यानि धर्म की स्थापना के अर्थ में कार्य करनामुझे गांधी जी की यह बात सबसे महत्वपूर्ण लगती है। हमें इस पर विचार-विमर्श करना चाहिए।

 और अगर ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो मानवजाति के समस्त प्रयासों की नाभि में धर्म स्थापना की चिंता ही रहती ही।[2] हमारी सभी कथायें यह ही बताती हैं कि हर युग में मानव ने धर्म की स्थापना हेतु अनेक प्रयास किए हैं। यह युग भी धर्म की पुनः स्थापना का युग है और हमारे समस्त कार्य इसी चिंता से प्रेरित होने चाहिए।

पारंपरिक सभ्यतागत विचार रहा है कि पशु और मानव के बीच जो मूल भेद है वह ‘धर्म की चिंता’ का भेद है। पशु को धर्म स्थापना की चिंता नहीं होती, केवल मानव को ही होती है। पशु की चिंता आहार, निद्रा और मैथुन (संतान उत्पत्ति) तक ही सिमटी रहती है। और इसी लिए पशुओं के जमावड़े के पीछे मूल कारण उनकी सुरक्षा की चिंता मानी गयी है। वहीं मानव को पशु से मौलिक रूप में भिन्न माना गया है। मानव जनो का जमावड़ा सुरक्षा के लिए नहीं माना गया। अगर मानव भी अंततः सुरक्षा के लिए जमावड़ा खड़ा करे, तो शायद उसमें और पशु में भेद करना सम्भव नहीं होगा। हमारे यहाँ पशु और मानव के जमावड़े को हमेशा ही अलग करके देखा गया है; एक को समज कहा और दूसरे को समाज।[3]

 

आधुनिक सोसाइटी का यूरोप में उदय

आधुनिक काल में सोसाइटी की शुरुआत यूरोप में प्रॉपर्टी की सुरक्षा की चिंता से हुई। प्रॉपर्टी को शरीर का ही विस्तृत रूप समझा गया; जैसे कपड़ा, जूता, टोपी की रक्षा, शरीर की रक्षा से जुड़ा है वैसे ही बाकि साधन, मकान और प्रॉपर्टी को भी शरीर की सुरक्षा से ही जोड़कर देखा गया। ऐसे में, वे गिने चुने लोग जो प्रॉपर्टी रखते थे, उन्होंने अपनी प्रॉपर्टी की सुरक्षा के लिए अपनी-अपनी सोसाइटी बनायी। और इन सोसाइटियों ने इस चिंता को लेकर राजा/रानी पर दबाव बनाना शुरू किया। धीरे-धीरे आधुनिक राज्य प्रॉपर्टी की रक्षा करने में लग गया।

 आलम यह है कि आज का राज्य बस इसी में ही लगा हुआ है। अमेरिकी विचारक हैना आरेंडट कहती हैं कि आधुनिक राज्य तो मुख्यतः “mass housekeeping” की संस्था बन गया है।[4] जो चिन्ताएँ पहले घर-परिवार की चिंता होती थी, जिसे आम भाषा में रोटी-कपड़ा-मकान की चिंता कहते हैं, वह चिंता सोसाइटियों के माध्यम से आधुनिक राज्यों ने ले ली हैं। फलस्वरूप आम जन-मानस ने भी स्वेच्छापूर्वक ये ज़िम्मेदारी राज्य तंत्र के सुपूर्त कर दी है। हिंदुस्तान में आजकल इस स्थिति को बताने के लिए, राज्य तंत्र को “माई-बाप” कहा जाता है; जो ज़िम्मेदारी परिवार में माता पिता की होनी चाहिए थी, वह राज्य तंत्र ने (ज़बरदस्ती) ले रखी है। आज अगर कोई परिवार-समूह चाहे भी तो स्वतंत्र रूप से अपनी रोज़ी रोटी की व्यवस्था नहीं कर सकता। हांलकि देश और दुनिया में स्वावलम्बन के प्रयास हो रहे हैं, कयी जगह परिवार-समूह अपनी रोज़ी रोटी की सवंतंत्र व्यवस्था करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन यह स्वावलम्बन राज्य व्यवस्था के आधीन ही रहता है।

मेरे विचार में, हमें सभ्यतागत समाज की जो कल्पना है उसे पकड़ना चाहिए। और सोसाइटी और समाज की अवधारणाओं में भेद करना चाहिए। अक्सर अनुवाद में मौलिक त्रुटियाँ हो जाती है। जैसे, आधुनिक सोसाइटी का धर्म-अधर्म की चिंता में कोई रुचि नहीं होती। अब तो धर्म की चिंता सार्वजनिक चिंतन का विषय न रह कर व्यक्तिगत चिंतन में सिमट गया है। सोसाइटी की स्व-रक्षा के लिए धर्म को व्यक्तिगत विषय बना दिया गया है। ऐसा नहीं करेंगे तो सोसाइटी के बिखरने का भय है। जबकि समाज की कल्पना इससे बिलकुल विपरीत रही है। समाज के मूल में धर्म-अधर्म की चिंता है और समस्त समाजिकता धर्म स्थापना के अर्थ में समझी गयी है। भारत में तो कम से कम, जो मित्र परिवार-समूह को समाज का रूप देना चाह रहे हैं, उन्हें पारम्परिक समाज की कल्पना को समझने का प्रयास करना चाहिए।

 

समाज की पारम्परिक कल्पना

हैना आरेंडट के मुताबिक़ ग्रीक सभ्यता में जो पोलिस (public space) की कल्पना थी वह आधुनिक सोसाइटी से बिलकुल ही भिन्न थी। उस सभ्यता में, जहाँ घर-परिवार (household) आहार की सुरक्षा और स्वास्थ्य की चिंता करते थे, वहीं पोलिस की चिंता उन मुद्दों पर थी जो जीवन के क्षितिज पर होते हैं- जैसे मृत्यु क्या है, मृत्यु के बाद क्या होता है, अमरत्व की सम्भावना किस रूप में हैं, जन्म क्या होता है इत्यादि। पोलिस की चिंता जीवन-यापन के मुद्दों पर नहीं थी, या फिर उन मुद्दों की प्राथमिकता नहीं थी। आरेंडट के मुताबिक़, आधुनिकता की शुरुआत पब्लिक और प्राइवेट के बीच जो महत्वपूर्ण अंतर था, उसके धूमिल होने से होती है। आधुनिकता में पोलिस/पोलिटिकल और परिवार/प्राइवेट के बीच राक्षस रूपी सोशियल खड़ा हो गया, जिसने धीरे-धीरे पब्लिक और प्राइवेट दोनो का भक्षण कर लिया।

 ऐसा ही कुछ भारतीय सभ्यता में भी देखने को मिलता है। शायद समाज शब्द का प्रयोग पहली बार भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में हुआ; नाट्य को देखने जो दर्शक इकट्ठा हुए उन्हें सामाजिक कहा गया है।[5]

नाट्य को सभी कलाओं की जननी समझा जाता है। और कलाओं का प्रयोजन आम जन-मानस में धर्म के प्रति सद इच्छा को जागृत करना कहा गया है। यह बात नाट्यशास्त्र की भूमिका में एक कथा द्वारा स्पष्ट की गयी है-

कृति युग (सत युग) से त्रेता युग का बदलाव मानव व्यवहार में आयी एक त्रुटि से समझा गया। मानव जन धर्म-अधर्म की चिंता छोड़ सुख-दुःख की चिंता में लग गए हैं। इस त्रुटि के निवारण हेतु, समस्त देवता गण ब्रह्मा जी से एक पंचम-वेद की रचना करने को कहते हैं जो एक तरफ़ तो चारों वेदों का सार हो और दूसरी तरफ़ “सर्ववार्णिक” (सभी वर्णों के लिए) भी हो। ऐसे में नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति होती है जिसे पंचम वेद भी कहा गया है। ब्रह्मा जी इस “सर्ववार्णिक पंचम वेद” को भरत मुनि को सौंपते हैं और साथ ही उन्हें 100 पुत्र और 1 पुत्री देते हैं (जो आगे चल कर नट कहलाये)।

 यहाँ दो महत्वपूर्ण बातें ध्यान देने की हैं। पहली, नाट्य (कला) का प्रयोजन मानव जन का ध्यान सुख-दुःख कि चिंता से ऊपर उठा कर धर्म-अधर्म की चिंता में स्थापित करना माना गया है। और दूसरी, कला को सभी के लिए उपलब्ध होने का प्रावधान माना गया है।

जो दर्शक जन नाट्य को देखने के लिए और नाट्य में उठाय गए धर्म-संकट पर विचार-विमर्श के लिए इकट्ठा हुए हैं, उनको नाट्यशास्त्र में सामाजिक कहा गया है। दूसरे शब्दों में, जब मानव धर्म-अधर्म पर विचार-विमर्श करने के लिए एक दूसरे के साथ आता हैं तब समाज की उत्पत्ति होती है। इसके बाद, जब मानव जन साथ मिल कर धर्म की स्थापना के अर्थ में कार्य करते हैं तब समाजिकता आगे बढ़ती है। इसके अलावा बाकि सब कुछ- आहार की सुरक्षा, साधनो की संपन्नता, शादी-ब्याह (संतान उत्पत्ति) और रिश्तेदारी के मुद्दे इत्यादि सभी धर्म स्थापना की मौलिक चिंता के संदर्भ में ही समझे गए हैं। समाज की यह हमारी सभ्यतागत कल्पना है।

 यह सभ्यतागत कल्पना आधुनिक कल्पना से बिलकुल भिन्न है जहाँ यह माना गया कि जब मानव ख़ानाबदोश (hunter-gatherer) स्थिति से ऊपर उठ कृषि करने लगा तब उसे एक दूसरे के साथ मिलकर रहने की आवश्यकता लगी। जमावड़े की ऐसी अवधारणा पशुओं के जमावड़े से प्रेरित लगती है। इस अवधारणा में आहार की सुरक्षा को मानव की मौलिक चिंता माना गया है।

एक ओर तो साथ आने की कल्पना में आहार की चिंता है, और दूसरी ओर धर्म-स्थापना की चिंता है। यह तो स्पष्ट है कि यह दोनो कल्पनाए भिन्न स्रोत्रों से उपजी हैं। हमारे अपने समाज को देखने के लिए इस भेद को समझना उपयोगी रहेगा। सोसाइटी की समझ से न पोलिस समझ आता है और न समाज।

 

 साधारणिकरण और समाजिकता

समाजिक होने के लिए यह ज़रूरी है कि धर्म-अधर्म की चिंता में हम विलीन हों। प्रदर्शित नाट्य में जो धर्म-संकट प्रस्तुत किए गए हों, उनकी चिंता में हम विलीन हों। उन धर्म-संकटों का जो निवारण नाट्य में सुझाया गया है, उनमें हम विलीन हों। ऐसा गहरा और लम्बा विलीन होना आसान नहीं हैं। दैनिक जीवन में अनेकों व्यवधान मौजूद रहते हैं जो हमें धर्म-अधर्म के मुद्दे पर विलीन रहने से रोकते हैं। जैसे, अगर मेरे घर में खाने पीने की कमी हो, या घर की छत टपक रही हो, तब ऐसे में मेरा राम के धर्म संकट पर चिंता करना सम्भव नहीं होगा।

नाट्य सफल तभी होता है जब दर्शक धर्म-अधर्म की चिंता में विलीन हो सके। इसके लिए यह ज़रूरी है कि आम जन-मानस का जीवन-यापन सहज हो और भविष्य के प्रति उसमें निश्चिन्तता का भाव हो। जटिल जीवन शैली उसे जीवन-यापन में ही उलझा कर रखेगी। दो वक़्त की रोटी कमाने में या फिर घर को म्यूजीयम की तरह सजाने में ही पूरा जीवन निकल जाए तो नाट्य के लिए समय ही नहीं बचेगा। वहीं दूसरी ओर अगर भविष्य की चिंता लगातार सताएगी तो धर्म-अधर्म की चिंता कहाँ से करेगा। केवल और केवल तभी वह नाट्य में रुचि लेगा और उठाए गए धर्म-संकट पर विचार-विमर्श करने को तय्यार होगा जब सहज जीवन हो और भविष्य के प्रति आश्वस्ति हो।

ऐसी स्थिति को नाट्यशास्त्र में साधारणिकरण की स्थिति कहा गया है। यह स्थिति नाट्य में विलीन होने का कारण बनती है। और इस स्थिति को समाजिक होने के लिए अनिवार्य माना गया है। ऐसा माना गया है कि साधारणिकरण की स्थिति में दर्शक और कलाकार के बीच सह-हृदय होता है। मनमोहन घोष ने साधारणिकरण को immersion शब्द दिया है।[6]

नवज्योति सिंह साधारणिकरण की स्थिति को मानव की नग्नता से जोड़ते थे- bare human being। एक ऐसी स्थिति जब व्यक्ति अपने सभी विशेषण त्याग दे (थोड़े समय के लिए); जैसे पुरुष-महिला का विशेषण, राजा-रंक का विशेषण, मत का विशेषण, कुम्हार-किसान-लोहार-बढ़ई-चर्मकार-पंडित इत्यादि जैसे विशेषण इत्यादि इत्यादि। जो भी दर्शक की गद्दी पर बैठा है वह नग्न अवस्था में होना चाहिए। ऐसा होने पर ही वह धर्म-अधर्म पर शुद्ध रूप से चिंतन करने की स्थिति में हो सकता है। इस चिंतन से सत्यता पर प्रकाश पड़ता है। नवज्योति जी के मुताबिक़ कलाओं में सौंदर्य का स्त्रोत्र यहीं से आता है। और ऐसे दर्शकों के जमावड़े को समाज कहते हैं।

यहाँ पर ध्यान देना होगा कि कथावाचक (कलाकार) अपने विशेषण नहीं त्यागता। वह नाट्य में immerse नहीं होता। कथावाचक हर क्षण कथा और तथ्यात्मक वास्तविकता में भेद देख रहा होता है। कथावाचक का प्रदर्शन वास्तविकता के भौतिक नियमों का पालन करते ही रहते हैं। कथावाचक की ज़िम्मेदारी है पहले दर्शक को नाट्य में विलीन कर देना और फिर समाप्ति पर दर्शक को वापिस उसकी वास्तविकता में ले आना।

धर्म-अधर्म पर गहरी चिंता के लिए सामाजिक में नग्न अवस्था (साधारण) होना ज़रूरी है। लेकिन धर्म की स्थापना के लिए जो कार्य होना है, उसके लिए तो सभी को वापिस अपने अपने विशेषण ओढ़ने होंगे; कुम्हार को पुनः कुम्हार होना होगा, लोहार को लोहार, राजा को राजा इत्यादि। कर्म करने के लिए सभी को वापिस भौतिक जगत में लौटना होगा ही। इसलिए मेरे विचार से समाज का एक पैर “नाट्य लोक” में होता है (जिसे परलोक कह सकते हैं)[7] और दूसरा पैर इह-लोक/भौतिक जगत (कर्म लोक) में होता है। परलोक चिंतन का लोक है। यहाँ मानव का दूसरा जन्म होता है- सामाजिक मानव।[8] और भौतिक जगत कर्म करने का लोक है। समाज दोनो ही लोक में वास करता है।



ग्राम की पारम्परिक कल्पना

नाट्यशास्त्र में साधारणिकरण की स्थिति पाने के लिए क्रीड़ास्थल (playhouse) के निर्माण की बात कही गयी है। क्रीड़ास्थल उन सभी विघनों को हटाने के लिए है जो साधारणिकरण (immersion) को तोड़ सकते हैं। जैसे नाटक के बीच अगर बारिश हो जाए, तो इस विघ्न से दर्शकों का immersion टूट जाएगा। ऐसे ही, अगर कलाकार की आवाज़ दर्शक तक न पहचे तो immersion बन ही नहीं पाएगा। या फिर कोई बाहरी आवाज़ कलाकार की आवाज़ को दबा दे। इसी लिए हम जब नाटक देखने जाते है तो आपस में बात नहीं करते, अपने फ़ोन बंद कर देते हैं इत्यादि। और इसी लिए टेलिविज़न पर जब नाटक देखते हैं को बीच बीच में आते विज्ञापन परेशान करते हैं। यह सब हमारे immersion को तोड़ते हैं।

अब मज़ेदार बात यह है कि नाट्यशास्त्र में कुछ ऐसे भी विघनों का ज़िक्र है जिसका सीधा सम्बंध नाट्य से नहीं दीखता; जैसे सूखे का भय हो, महामारी का भय हो, पड़ोसी राज्य के आक्रमण का भय हो, राजनीतिक उपद्रव का भय हो इत्यादि। यह सब भी विघ्न माने गए हैं। हम यह तो समझ ही सकते हैं कि भविष्य की चिंता हमें नाट्य में विलीन (immerse) होने से रोकेगी। और इसलिए ऐसे भाव नाट्य में व्यवधान ही पैदा करेंगे। लेकिन यह बात समझनी मुश्किल है कि कोई ऐसा क्रीड़ास्थल हो जो आपके सूखे के डर को हटा दे या युद्ध के डर को हटा दे। एक क्रीड़ास्थल ऐसा नहीं कर सकता।

ऐसे में हमें ग्राम व्यवस्था पर ध्यान देना चाहिए। आदिलाबाद के रविंद्र शर्मा पारम्परिक ग्राम व्यवस्था के अच्छे ज्ञाता थे।[9] हांलकि वे अपने इलाक़े के गाँवों की ही बात करते थे, लेकिन उनकी बात सुन कर सभी को अपने-अपने इलाक़े के गाँव याद आ जाते थे। रविंद्र शर्मा की बात माने तो हर गाँव में दो चीज़ों की सुनिश्चितता थी- सभी परिवारों की आहार की सुरक्षा थी और उनके काम का गौरव सुनिश्चित था। उनमे जीता व्यक्ति भविष्य के प्रति आश्वस्त रहता था। यह कहना ठीक होगा कि पारम्परिक जाति व्यवस्था हर परिवार को यह निश्चिन्तता प्रदान करती थी।

लेकिन गाँव केवल इतना ही नहीं करता था। इसके अलावा हर गाँव अनेकों भिक्षावृत्ति परिवारों (कलाकार समाज) का भी पोषण करता था। यह परिवार नाट्य वाले लोग रहे है- नाटक, कठपुतली, कथावाचन, संगीत, वाद्य, जाति पुराण इत्यादि जैसी अनेक कलाओं वाले लोग रहे हैं। हैदराबाद के जयधीर तिरुमल राव ने आन्ध्र-तेलंगाना प्रांत में 74 ऐसी जातियों की सूची तय्यार करी है।[10]

मेरे विचार में भिक्षावृत्ति परिवारों की भूमिका ग्राम व्यवस्था में सबसे महत्वपूर्ण रही है। इनका काम गाँव में समाजिकता पैदा करने का होता था। यह लोग कथाओं का भाँति भाँति रूप से प्रदर्शन करते थे, और इनके द्वारा गाँव में धर्म-अधर्म पर सामूहिक विचार-विमर्श की संस्कृति पनपती थी। अगर हिंदुस्तान के आम जन-मानस में धर्म-अधर्म पर चिंतन करने का अभ्यास है तो इसका सबसे बड़ा श्रेय भिक्षावृत्ति परिवारों को ही जाता है। सदियों से, पीढ़ी दर पीढ़ी गाँवों में रामायण, महाभारत और अनेक नाट्य प्रदर्शित होते आ रहे हैं और इनके बहाने विचार-विमर्श की संस्कृति का निर्माण हुआ है।

हमारे गाँव केवल परिवारों के बीच आर्थिक अंतरसंबंधों से नहीं चले हैं। बल्कि इन सम्बन्धों का आधार रहा है धर्म के प्रति सामूहिक चिंतन और धर्म स्थापना का सामूहिक प्रयास। रविंद्र शर्मा के मुताबिक़ आम जन-मानस में धर्म के प्रति जो सद इच्छा बनी है, वही मूलरूप से हमारे विविध समाज में एकत्व का स्त्रोत्र रही है।

हमारे पूर्वजों ने गाँव की समृद्धि को महत्वपूर्ण माना है। लेकिन गाँवों की समृद्धि का प्रयोजन बस इतना ही रहा है कि हर परिवार नाट्य का दर्शक बन सके और धर्म-अधर्म पर चिंतन करे। समृद्धि अपने आप में कोई लक्ष्य नहीं रहा है। और ऐसी समृद्धि जो समाजिकता का हनन करे, उसे सही नहीं समझा गया है। बेलगाम समृद्धि की दौड़ का फल आधुनिकता में हमें अब दीखने लगा ही है।

 

निस्कर्ष

वापिस अगर लौट के देखें तो, ग्राम की कल्पना के मूल में समाजिकता को माना गया है। और समाजिकता तभी सुनिश्चित मानी गयी जब ग्राम में रह रहे सभी परिवार भविष्य के प्रति निश्चिन्त हों और उनका जीवन-यापन सहज हो। यह पारम्परिक जजमानी व्यवस्था से सुनिश्चित होता आया था।

निश्चिंत परिवार ही नाट्य के दर्शक बन सकेंगे और साधारणिकरण (immersion) की अवस्था को प्राप्त कर सकेंगे। ऐसे परिवारों से समाज बनता है। और समाज की प्राथमिक चिंता धर्म की स्थापना की होती है।

इससे बिलकुल भिन्न, आधुनिक काल में सोसाइटी की कल्पना है। इसमें आहार (प्रॉपर्टी) की सुरक्षा अपने आप में लक्ष्य है। और आज का नाट्य धर्म-अधर्म के मुद्दों से विमुख होकर प्रायः मनोरंजन का ही माध्यम बन गया है। इन में अधिकांश रूप से आहार (साधन) सम्पन्नता और उससे उपजी ऐंद्रीए सुख की ही कल्पना घूमती मिलती है। फ़लस्वरूप सोसाइटी में जी रहे लोगों का जीवन-यापन लगातार जटिल होता जा रहा है; एक आदरणीय मित्र जटिल जीवन को कलयुग का एक लक्षण बताया है।

भविष्य में समाज निर्माण के लिया क्या करना है और कैसे करना है? ऐसे में पौराणिक समाज और ग्राम की कल्पना को पकड़ना शायद कारगर सिद्ध हो। जिसके लिए पौराणिक दृष्टि और भाषा दोनो को ही पकड़ना होगा।


                            -  हर्ष सत्य,
                  27 July 2020   

[1] देखें आचार्य, नंदकिशोर “सभ्यता का विकल्प: गांधी-दृष्टि का पुनर्वलोकन” वागदेवी प्रकाशन, बीकानेर 1995. 

[2] यहाँ इतिहास की दृष्टि और हिस्ट्री की दृष्टि में भेद करना उपयोगी रहेगा। इस संदर्भ में देखें Singh, Navjyoti “Sense of Past: Itihasa vs History” in Remembering Dharampal SIDH 2007.

[3] देखें Monier Monier-Williams “A Sanskrit-English Dictionary: Etymologically and Philosophically Arranged with special reference to Cognate Indo-European LanguagesAsian Educational Services New Delhi 2005.

[4] देखें Arendt, Hannah “The Human Condition” University of Chicago Press, 1958.

[5] देखें Ghosh, Manmohan “The Nāttyaśāstra: A Treatise on Hindu Dramaturgy and Histrionics. Ascribed to Bharat Muni” The Asiatic Royal Society of Bengal, Calcutta 1959.

[6] कुछ अन्य लेखकों ने साधारणिकरण को communication भी कहा है।

[7] Realm of appearances; impressions, judgements, images etc.

[8] हैना आरेंडट ने मानव की second birth की बात कही है। नवज्योति सिंह ने भी द्विज शब्द को इसी रूप में देखा है।

[9] देखें Smriti Jagaran Ke Harkare: Ravindra Sharma (Guruji). Ed. Gupta, Pawan and Gupta, Ashish K. Published by SIDH 2019.

[10] देखें Satya, Harsh Ph.D. thesis “Towards Revitalizing Diversity: A Study of the Traditional Jajmani System in India”, Appendix-III 2020.

Monday, July 13, 2020

Life without conditions: Non realisable dream


Life without conditions: Non realisable dream
                                                                                                                                                                                                                                                                                                           Lalit K Kaul

When parameters like truth, justice, morality, ethics, extravagance, falsehood etcetera are brought in, then no ‘life’ is without conditions because these define the boundaries of freedom that are not to be violated. These may be defined by a society living in inaccessible regions of Amazon forests or desert peaks of Ladakh; that is, the societies that have total disconnect with the modern world and its belief and value system. Even if there are no institutionalised definitions of all the said parameters, yet within every human being there is something that without conscious control allows or disallows him/her a particular type of conduct. That ‘something’ is conscience which is undeniably a very dominant attribute of an individual and which differentiates one from the other in terms of external conduct. This conscience of a being (the slave) is under nobody’s command and hence free to direct the slave without being restricted by any conditions. So, within a barricaded human being there is this attribute with unrestricted freedom.
In any case, the concepts of truth & falsehood, right & wrong, ethical & unethical, etcetera have / can have no separate and independent identity (recognition). If they don’t merge with the thought and deeds of an individual, they cease to exist. Their cognisance is derived from speech/act/conduct and all kinds of civic sense of an individual (who would never think that whatever he/she did was untruthful, unethical and/or wrong), but- as always- the Judge is a rank outsider. So, whether a particular act of an individual- under certain circumstances- is ethical or unethical, the outside world decides and thereby even the ‘free conscience’ of an individual is subjugated. So, when even the internal world of a human being is subject to the scrutiny of the ever dominating external world, the life ‘ordinary’ or ‘extra ordinary’ is not without conditions.
One cannot break free from the world, but one can find freedom within the externally imposed constraints like a horse which is restricted to move in a straight line due to blinkers. The problem is not that life is not without conditions, it is that even the limited freedom to act of their own accord, an extraordinary huge mass of people have been denied by one stroke of pen that declared them backward, ignorant and superstitious while declaring their knowledge base as unscientific.        



Sunday, July 12, 2020

Fifteen annas

Fifteen annas
Abinash Jha has recently written on what the state of ordinary life has become in the current extraordinary times. The piece begins with a general definition of ordinary life, which Lokvidya jana-andolan has adopted as the basis of their work. The definition is this – ordinary life is life without any condition. It is outside the domain of institutional exchange of science, technology, religion and philosophy. Falsehood, extravaganza and immorality are also part of that life. But it can recognize truth, morality, justice, wisdom etc.
Abinash Jha writes that, regardless of the importance given to it by history, ordinary life has always been there. Political systems, technologies, religions have come and passed, but ordinary life has flown, almost unnoticed, at its own pace. That life is under threat today. An order or system that usurps nature's wealth is spreading to all corners of the globe. Consequently, endless conditions are imposed on ordinary life, even as it struggles to stay ordinary. As the space for ordinary life keeps shrinking, now it is pushed to the verge of extinction.
In response to this persistent trend, some suggest that one has to let go of what is gone. After all, in today's world it is not possible to survive without the system. If nature is in turmoil, it is better to focus on making decent provision for one’s own survival rather than trying to repair all that is damaged. If water and air are poisoned, purify as much as you need. Of course that is not possible for everyone. So those who remain outside the system are destined to perish.
There are those who reject and oppose this approach. But the point is: one cannot expect a strong pushback to emerge from those who suffer perpetual contraction after being pushed away from ordinary life.
Yet there exists a source of potential strength. A core tenet of ordinary life – in the absence of external pressure – is its reliance on a direct understanding with nature. This life seeks to sustain the environment out of the sheer compulsion to sustain itself, and not from any ideological motive. It induces one to plant saplings after cutting down trees, to indulge in lazy talk and to lament the waste of time, to clash with a neighbour and to stand by the same neighbour’s side in calamity - without any humanitarian inspiration. This experience has a strength and vitality of its own.
The privilege of direct touch and feel keeps people happy. What one experiences from the practice of an ideology or value system – no matter how lofty that may be – is like the touch of a hand shaken with gloves on. Ordinary life without an agenda gets a direct taste of life.
That taste, and the craving for it, lingers even after the space for ordinary life shrinks in many ways. When a new order comes into being, people automatically seek out cracks and loopholes to carry on with their normal business. Most people on this planet still have this desire for ordinary life.
Rabindranath Tagore had expressed the glory of this ordinary life thus: “People are divided into two classes – fifteen-annas and the rest one-anna. The fifteen-annas part is calm; the one-anna is restless. The former is useless; the latter has a purpose. Atmospheric air consists mostly of stable and calm nitrogen; oxygen is only a small part of it. If the proportions are reversed, the world would burn to ashes. Likewise, once a section of the fifteen-annas seeks to become as restless and useful in worldly matters as the one-anna, there can be no peace. People would have to submit to their fate and get ready to be burnt to ashes. (“Fifteen-annas”, Bangadarshan, February 1903.)
It is noteworthy that Tagore did not eulogize the life lived by the fifteen-annas as an expression of high ideal or noble thought. Pleading in favour of the fifteen-annas he admits in the same article, "We ... play with friends for no reason, talk to relatives without purpose, then stage a son’s wedding with much pomp and put him in an office, and thereafter disappear from the world without leaving any trace of name or fame – we are part of the million forms in the dance of this vast life; its flow glistens with our million little laughter; it bustles with our little talks and laments.” (ibid)
A life bound by thousands of conditions can no longer be ordinary. Ordinary life can be lived as long as the general needs are freely met in a natural environment. A system driven by the motive of achieving boundless progress and profit will invariably put conditions on people, especially those belonging to the fifteen-annas, under various situations. That is what is happening all over the world now.
This conditioned state of life is not always a matter of compulsion. People do accept conditions voluntarily. The lure of a benefit or the pursuit of a happy dream often induces them to sacrifice freedom knowingly. But their inner movements, whether good or bad, can never be artificial. The natural tendency of a normal human being is away from living in a cage of imposed conditions. Even the happiness in pursuit of which a person moves away from ordinary life may seem – in hindsight – quite hollow.
The human affinity for freedom and direct contact may be a source of sustenance in the face of threat to ordinary life.
Paramesh Goswami (a friend of Manthan Samayiki,  Kolkata)