Tuesday, August 2, 2011

ज्ञान आन्दोलन की भारतीय परंपरा

चित्रा सहस्रबुद्धे
समन्वयक, विद्या आश्रम, वाराणसी

लोकविद्या जन आन्दोलन एक ज्ञान आन्दोलन है। यह सामान्य लोगों के ज्ञानी होने का दावा है। यह उन लोगों के ज्ञान का दावा पेश करता है जो कभी स्कूल-कालेज नहीं गए। यह किसान, कारीगर, आदिवासी, महिलाओं और छोटे-छोटे ठेलों-पटरियों पर सामान बेचने वाले लोगों के ज्ञान का आन्दोलन है। यह एक ऐसा ज्ञान आन्दोलन है जो यह दावा पेश करता है कि आज के युग की समस्याओं का हल आज के प्रतिष्ठित ज्ञान (साइंस और कंप्यूटर आधारित ज्ञान प्रबंधन) में नहीं है, बल्कि इन्हें हल करने का आधार लोगों की अपनी विद्या, लोकविद्या में है। यह कोई नया दावा नहीं है। वास्तव में समाज में ज्ञान आन्दोलन की लम्बी परम्परा रही है। हमारे समाज में लोकहितकारी परिवर्तनों का आधार ज्ञान आंदोलनों में ही रहा है। बुद्ध के समय से और शायद उनके पहले से भी इस परंपरा की निरंतरता को देखा जा सकता है।

बुद्ध का कार्य एक ज्ञान आन्दोलन ही है। ज्ञान आन्दोलन ही ज्ञान को उस युग की जकड़न से मुक्त करता है और एक नया प्रवाह प्रदान करता है। ८वी सदी से १२वी सदी तक भाषाओं के विकास का समय माना गया है। आज बोली और लिखी जाने वाली बहुत सी भारतीय भाषाओं का जन्म और विकास इस दौर में हुआ ऐसा माना जाता है। इसे भाषा आन्दोलन का समय भी कहा जाता रहा है। लेकिन यह तो ज्ञान आन्दोलन ही है। किन्हीं थोड़ी सी भाषाओं और लिपियों में ज्ञान को बांधने का विरोध इतना व्यापक और गहरा हुआ कि अनेक भाषाओं और लिपियों का जन्म और विकास हुआ। सामान्य लोगों की सक्रियता का उफान उठा और अप्रतिम साहित्य व कलाओं की रचना हुई। आगे १२वी से १८वी सदी तक देश के हर कोने में हर जाति और धर्म में संतों ने फिर एक ऐसे दर्शन की अलख जगाई जिसमें मनुष्य के उत्सर्ग व उद्धार के रास्ते में खड़ी की गयी हर बाधा को चुनौती दे दी गयी, लिंग, जाति, धर्म , धन, शोहरत, कर्मकांड, रस्म, सभी को। कबीर, रैदास, मीरा, नानक, तुलसी, चैतन्य और कई अनेक संतों के इस काल को इतिहासकारों ने भक्तिकाल का नाम दिया है। लेकिन यह तो ज्ञान आन्दोलन ही था। इसे भक्ति काल कहकर इसके ज्ञान की ताकत को धूमिल करने की कोशिश की गयी है, ऐसा लगता है। क्योंकि उस काल के प्रतिष्ठित दर्शन की धारा को चुनौती देते हुए देश के हर कोने से सामान्य मनुष्य के ज्ञान-दर्शन की अनेक धाराएँ बहने लगीं। इसे तो ज्ञान आन्दोलन ही कहा जाना चाहिए। पिछली सदी में गाँधी का जीवन, दर्शन और कार्य सामान्य जीवन के ज्ञान को पुनर्प्रतिष्ठित करने का प्रयास रहा है। सत्य, अहिंसा और स्वदेशी के विचारों की जड़ें यहाँ के मनुष्य के सामान्य जीवन में रही हैं। १९६० के दशक का राममनोहर लोहिया का 'अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन' भी ज्ञान आन्दोलन की परंपरा में देखा जाना चाहिए। लोहिया ने लोकविद्या शब्द का प्रयोग नहीं किया है किन्तु सामान्य मनुष्य के ज्ञान की प्रतिष्ठा में अंग्रेजी की बाधा की पहचान मौलिक ढंग से की गयी और उसे सामाजिक आन्दोलन का आधार बनाया गया। फिर १९८० के दशक में एक ऐसा किसान आन्दोलन खड़ा हुआ जिसने अपने अराजनैतिकता के विचार के जरिये बड़े पैमाने पर किसान समाज से ही नेतृत्व उभार कर सामने लाया। इस आन्दोलन ने उत्तर प्रदेश में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में इस विचार को प्रेरणा दी कि किसान खुद ज्ञानी और दार्शनिक होता है। इसमें लोकविद्या जन आन्दोलन की शुरुआत मानी जा सकती है।

सूचना का वर्त्तमान युग लोकविद्या जन आन्दोलन की मांग करता है और उसके लिए उर्वर भूमि देता है। इस युग में पूँजी का निर्माण मात्र श्रम के शोषण से नहीं बल्कि बड़े पैमाने पर ज्ञान के शोषण से भी हो रहा है। लोकविद्या के शोषण की नई-नई विधाएं और व्यवस्थाएं आकार ले रही हैं। इसके चलते पूंजीपतियों के मुनाफे में एक बहुत बड़ा उछाल आया है। इस अनाप-शनाप मुनाफे के चलते अपने ही देश में नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों में बड़े-बड़े घोटालों और भ्रष्टाचार का पैमाना बढ़ा है। कई लोग वर्तमान दौर को ज्ञान का पूंजीवाद कहते है। यह ज्ञान के पूंजीवाद का दबदबा ही है कि एकतरफ ज्ञान को बांधने के नए-नए तरीके अपनाये जा रहे हैं, जैसे पेटेंट कि व्यवस्था, कम्पूटर में दस्तावेजीकरण और ज्ञान का संग्रहण, उच्च शिक्षा को महंगा बनाना, विश्वविद्यालयों को चहारदीवारी में रखना आदि और दूसरी तरफ ज्ञान के उत्खनन का काम जोरों से जारी रखना जिसके अंतर्गत किसानों, कारीगरों, आदिवासियों और महिला समाज से बड़े पैमाने पर ज्ञान का खनन हो रहा है। तरह-तरह की नीतियों और कानूनों से आम लोगों के लोकविद्या के इस्तेमाल पर रोक लगायी जा रही है और उनके ज्ञान के खनन में आक्रामक और गैरकानूनी तरीके अपनाये जा रहे हैं। इनके संसाधनों (जल,जंगल, ज़मीन) का छीना जाना, इन्हें बाज़ार में इनके ज्ञान (उत्पादन) का दाम न मिलना और राष्ट्रीय संसाधनों से इन्हें वंचित करना, इनके ज्ञान के शोषण से ही सम्बन्ध रखता है। यह सब एक लोकविद्या संगर्भित ज्ञान आन्दोलन की मांग करता है। ऐसे ज्ञान आन्दोलन का दर्शन, संगठन के प्रकार और संघर्ष के तरीके लोकविद्या यानि लोकस्थ ज्ञान के आधार पर ही विकसित होने हैं।

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