Sunday, February 28, 2021

Swaraj Dialogue -3

Farmers’ Movement : Is Sovereignty at Issue ?

What is the destiny of the farmers’ movement? Let us divide this question into two parts : one, whether their demands as they are of repeal of the three farm laws and a law on MSP are going to be met?  and two, what could be the pointers for societal future emerging from a farmers movement so large as this? 

The entire media and the world of activists is discussing the first question and I have no special or further insight to add to that discussion. I wish to focus on the second question, which, we shall see through this piece, also has a bearing on the first question.

Through the 1970s, 80s and 90s farmers of this country had been in great movement. The big names associated with that movement were Narayana Swami Naidu from Tamil Nadu, Nanjunda Swami from Karnataka, Sharad Joshi from Maharashtra, Mahendra Singh Tikait from Uttar Pradesh,  Mangeram Malik from Haryana, Balbir Singh Rajewaal, Ajmer Singh Lakhowal and Bhupinder Singh Maan from Punjab. Leadership of this farmers’ movement was in farmers’ hands. The primary understanding was that the causes of poverty of the farmers lay outside the villages. The chief issue was just and remunerative price for agricultural produce. Major other issues were debt relief and electricity tariff. The farmers’ leadership was rather clear that although expressed in terms of wellbeing of the farmer, their demands, position and understanding of the world were directly in the interest of the whole society. It was argued that ‘just’ prices is the path of eradicating poverty from the root and enabling society at all levels and in all regions towards higher and higher levels of economic activity. They had argued that ‘just’ price for agricultural produce would lead to much greater economic activity in the local bazar and to improvement of wages of the workers. There was an imagination of entering the 21st century on farmers’ terms. This simply meant that the farmers saw themselves as assuming the leadership of the society to build the world afresh- regulations from below, from the villages, to produce a distributed economy. This was in tune with the idea of local self governance or swaraj.

The practice of the present farmers’ movement has all these indicators. The rejection of the three laws is not just for preservation of autonomy but the claim of sovereignty may be seen not far below the surface. Is there a new idea of sovereignty involved here? It is this that gives the feeling that a new political idea is in the making. So far all politics has been subservient in thought as well as in practice to the stream of ideas and practices that were born about 500 years ago in Europe.  

Through this period the world saw the emergence of colonialism, imperialism, big industry and large markets. The shine and wealth that we see in the large cities is sourced from the village, from the farmer’s activity. Through this period also emerged the thought that farmers in this process will cease to remain as a social class. Perhaps it was only a wishful thinking that those who were looted would not remain organisable at all, having ceased to be a social class.  Gandhi belied these theories and sourced his strengths from the villages of India. Then the matter got focused again in the last decades of 20th century with the nationwide rise of the farmers’ movement, which largely called itself non-political and was particularly intend in the state of TamilNadu, Karnataka, Maharashtra, Uttar Pradesh, Hariyana and Punjab. Chaudhary Charan Singh though part of the political establishment, coined the term ‘Kisan Satta’ on the occasion of almost a million strong  kisan-sammela, in the Boat Club in New Delhi in 1978.

It was around 1780 that this country saw, with Permanent Settlement, the beginning of the slavery of peasants. 200 years of struggle against zamindaars, the British and governments of independent India by the peasantry seem to have finally entered a phase where the farmers are up to contending for sovereignty. If we go by Mahatma Gandhi’s understanding of pre-British India the peasant and the village was a sovereign entity then. The present farmers’ movement seems to lay the basis for a claim to sovereignty again. Any  such claim naturally must be associated with movement towards a different political order, best described by ‘swaraj’. Sovereignty in swaraj is distributed both vertically and horizontally. The contestation between the Kisan Mahapanchayat and the Parliament both in the realm of power and leadership of society seems to be carving that space where direct participatory democracy and representative democracy fuse to produce qualitatively different methods of decision making and governance, ideas about which may possibly be also unearthed if people of India excavate deeper into their memories, into lokasmruti.

A debate must start in all earnestness among all the concerned on what it means to see a peasant household as a sovereign.

Sunil Sahasrabudhey

28 Feb 2021, Vidya Ashram, Sarnath


  स्वराज संवाद- 3

किसान आन्दोलन : सवाल है मालिक कौन?

 

किसान आन्दोलन किधर चला? इस सवाल के दो हिस्से हैं. पहला यह कि क्या हाल में बनाये गए तीन कृषि कानून वापस होंगे और न्यूनतम समर्थन मूल्य को वैधानिक दर्जा मिलेगा? दूसरा यह कि पूरे समाज का रूप लिए यह विशाल किसान आन्दोलन समाज के भविष्य के बारे में क्या कह रहा है ?

मीडिया और सामाजिक कार्यकर्त्ता सब पहले प्रश्न के इर्द-गिर्द बहस कर रहे हैं तथापि उसमें हमें कोई नई बात नहीं कहनी है. इस पोस्ट में हम दूसरे प्रश्न पर ध्यान केन्द्रित करेंगे तथा यह बातचीत पहले प्रश्न के लिए भी प्रासंगिक होगी ही.

 1970, 1980 और 1990 के दशकों में इस देश में किसानों का एक देशव्यापी विशाल आन्दोलन हुआ जिसकी धार विशेषतौर पर तमिलनाडु, कर्णाटक, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में बड़ी तेज़ रही. इस आन्दोलन के साथ जुड़े बड़े नाम हैं- तमिलनाडु के नारायण स्वामी नायडू, कर्नाटक के नन्जुन्द स्वामी, महाराष्ट्र के शरद जोशी, उत्तर प्रदेश के महेंद्र सिंह टिकैत, हरियाणा के मांगेराम मालिक और पंजाब के बलबीर सिंह राजेवाल, अजमेर सिंह लखोवाल, भूपिंदर सिंह मान. हम लोगों ने मज़दूर किसान नीति पत्रिका के मार्फ़त इस आन्दोलन में समन्वय की भूमिका निभाई और इस आन्दोलन के सन्देश को मध्य वर्ग के लोगों तक पहुँचाया. आन्दोलन का नेतृत्व किसानों के ही हाथ में था. मूल समझ यह रही कि किसानों की गरीबी के कारण गाँव के बाहर हैं. मुख्य मुद्दा रहा- कृषि उत्पाद के लिए न्यायसंगत लाभकारी मूल्य, क़र्ज़ मुक्ति और बिजली का दाम भी बड़े मुद्दे रहे. नेतृत्व को यह साफ़ था कि हालाँकि प्रमुख बात किसानों की माली हालत से जुडी रही, उनकी मांगें, उनका दृष्टिकोण और दुनिया की उनकी समझ, सीधे पूरे समाज के हित में रहे. बड़ी सफाई से तर्क पेश किये गए कि किस तरह कृषि उत्पाद के लिए न्याय सांगत मूल्य मिलना गरीबी को जड़ से ख़त्म करने का पक्का रास्ता बनता है. क्योंकि इसके चलते हर स्तरपर और हर क्षेत्र में आर्थिक गतिविधियों में इजाफा होता है. साफ़ तौर पर यह कहा गया कि कृषि उत्पाद को ढंग का दाम मिलने से स्थानीय बाज़ार में एक चमक और गति दिखाई देती है और कामगारों के श्रम के मूल्य में वृद्धि के रास्ते खुलते हैं. बड़ी कल्पना देश को किसानों के नज़रिए से इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करने की रही. सरल शब्दों में यह कि किसानों ने पूरे समाज का नेतृत्व अपने हाथ में लेकर दुनिया को नए सिरे से बनाने के ख़्वाब देखे, ऐसी दुनिया जिसमें नियमन नीचे से हो, गाँव से हो और एक वितरित अर्थ व्यवस्था का निर्माण हो. यह बात स्थानीय प्रशासन अथवा स्वराज के विचार से बहुत मेल खाती है.

वर्तमान किसान आन्दोलन में ये सब संकेत मिलते हैं. उत्पादन, वितरण और भण्डारण से सम्बंधित तीन नए कृषि कानूनों को सिरे से ख़ारिज कर देने के आधार में स्वायत्तता का आग्रह तो है ही तथापि संप्रभुता का विचार भी नज़र आता है. क्या यहाँ पर संप्रभुता का कोई नया विचार आकार ले रहा हो सकता है? यह सोचकर लगता है की इस प्रक्रिया में राजनीति का एक नया विचार जन्म ले रहा है.

अब तक विचार और कर्म दोनों में ही सारी राजनीति यूरोपीय विचारों और शासन क्रियाओं से सीख लेकर ही होती रही हैं. करीब पांच सौ साल पहले यूरोप में जो क्रियाये और विचार शुरू हुए उन्होंने ही आगे चलाकर उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, बड़े उद्योग, और बड़े-बड़े बाजारों का रूप लिया. जो चमक और सम्पदा बड़े शहरों में दिखाई देती है उसका स्रोत गाँव में है, किसान की गतिविधि में है. इसी दौर में यह विचार भी सामने आया कि इन प्रक्रियाओं में किसान का एक सामाजिक वर्ग के रूप में अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा. शायद यह केवल मनमाफिक सोच ही रही कि जिसको लूटा गया है वह संगठित रह ही न जाए यानि उसका सामाजिक अस्तित्व ही समाप्त हो जाये. गांधी ने अपनी ताकत का स्रोत गांवों को बनाया और इन वैचारिक स्थापनाओं को झुठला दिया. फिर 20वीं सदी के अंतिम दशकों में किसानों को एक नये आन्दोलन ने इस ताकत का फिर से एहसास कराया. यह आन्दोलन अधिकतर अपने को अराजनीतिक कहता रहा. तथापि राजनीति के अन्दर से ही चौधरी चरणसिंह ने 1978 में नई दिल्ली के बोट क्लब में लाखों किसानों के सम्मलेन के मौके पर ‘किसान सत्ता’ का विचार दिया.

1780 के आस-पास इस देश में अंग्रेजों ने ज़मींदारी की व्यवस्था लागू की जिससे किसानों की गुलामी का युग शुरू हुआ. ज़मींदारों, अँगरेज़ शासकों और स्वतंत्र भारत के हुक्मरानों के सामने अपना एतराज़ और विरोध दर्ज करते हुए दो सौ साल के किसानों के संघर्ष अब उस मुक्काम पर पहुंचे हैं, जहाँ वे अपनी संप्रभुता का दावा पेश कर रहे हों, कह रहे हों कि मालिक वे हैं.

महात्मा गाँधी की समझ में अंग्रेजी राज के पहले भारत में किसान और गाँव मालिक हुआ करते थे. किसान आन्दोलन एक बार फिर उनके मालिक होने का दावा पेश करने का आधार बनाता मालूम पड़ रहा है. ऐसे दावे के साथ जाहिर तौर पर वह गति भी दिखाई देनी चाहिए जो एक अलग राज और शासन व्यवस्था की और ले जाए, जिसे स्वराज कहा जा सके. स्वराज में संप्रभुता (सभी आयामों में) वितरित होती है. सत्ता और सामाजिक नेतृत्व दोनों ही आयामों में संसद और किसान महापंचायत के बीच प्रतिस्पर्धी दावे दिखाई दे रहे हैं. जिनके चलते उस स्थान का निर्माण हो रहा है, जहाँ सीधी भागीदारी का लोकतंत्र और प्रतिनिधि लोकतंत्र के आपसी संस्लेषण से सर्वथा नये किस्म की निर्णय के तरीके और शासन के प्रकार आकार ले सकते हैं. इस सृजन में बड़ा योगदान हो सकता है यदि भारत के लोगों की यादों, लोकस्मृति की गहराइयों में उतरा जाये.

पूरी गंभीरता के साथ इस विषय से सरोकार रखने वालों को आपस में बात करनी चाहिए कि किसान परिवार की संप्रभुता का क्या अर्थ निकलता है?   

 सुनील सहस्रबुद्धे

28 फरवरी 2021, विद्या आश्रम, सारनाथ            

 

1 comment:

  1. As I posted on this blog, earlier; this is not essentially an agitation against new farm laws, it is no confidence motion against the system of Parliamentary Democracy. The demand to repeal the laws is a very bold & direct Statement against the extant democratic system.
    Foolishly though the opposition parties are not grasping it because their thought process is veiled by the Modi hatred.
    Having watched Rakesh Tikait & his statements from time to time, I don't think he is the leader for the cause. He has ended up antagonising other Farmer unions & thereby conceding more & more ground to the powers that be.
    If Tikait is sure of the implications of his demand, then he must wind up at the borders & campaign throughout the country by holding panchatyats with the farmer unions & articulate his demand by way of expounding it for the public consumption.
    May be that Vidya Ashram can theorise for him, as it has a permanent resident from BKU in its campus.
    It's Direct Vs Indirect representation of the people of India to serve their cause. While theoretically an alternate system may evolve, the most uphill task is to convince people ( even farmers) that the parliamentary democracy has failed people of India in that it has been exclusive & not inclusive thereby forcing a vast number of people to live on doles. Even doles are distributed for reasons more political than out of any concern for humanity.
    How to initiate/ensure permeation to all levels the concept of 'Knowledge Being', is the challenge. The appetite for doles shall cease only if people awaken to demand recognition, respect & dignity for their knowledge base followed by a demand for economic growth model that is inclusive of them as a huge skill base with a very high potential/capability to contribute to the GDP.
    Can Tikait place that demand before the leaders of present dispensation ?

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