Monday, March 9, 2020

देश की वर्तमान परिस्थिति और भविष्य : रपट

The English version of this report is given below.
रपट
वार्ता : देश की वर्तमान परिस्थिति और भविष्य
29 फरवरी -1 मार्च 2020
 विद्या आश्रम, सारनाथ, वाराणसी

वाराणसी में देश की वर्तमान परिस्थिति और भविष्य पर 29 फरवरी 2020 को विद्या आश्रम, सारनाथ और 1 मार्च 2020 को दर्शन अखाड़ा, राजघाट में एक राजनैतिक और दार्शनिक वार्ता का आयोजन किया गया. देश भर में पिछले दो-तीन महीनों से CAA/NRC/NPR के विरोध में हो रही गतिविधियों की पृष्ठभूमि में और हम कौन हैं और किधर चले विषय पर शुरू हुई वार्ताओं के सन्दर्भ में समाज के कई तबकों से और देश भर से आये लोगों ने आगे के रास्ते और एक सार्थक परिवर्तन की संभावना पर अपने विचार रखे. लगभग 75 व्यक्तियों की भागीदारी में यह संवाद हुआ. वार्ता में 25 से 70 के आस पास के आयुवर्ग के लोग शामिल रहे. 

लोकविद्या के दावे का गीत पेश करते लोकविद्या जन आन्दोलन के कार्यकर्त्ता 

यह महसूस किया गया कि सरकार के वर्तमान कदम और सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त विरोध दोनों ही पिछले समय से नाता तोड़ते नज़र आते हैं और एक राष्ट्रीय समाज के रूप में हम कौन हैं और किधर जाना चाहते हैं? यह सवाल उठ खड़ा हुआ है. वार्ता में शुरू से यह आग्रह रहा कि इसकी समझ बनाने के लिए उच्च शिक्षा संस्थानों और समाज वैज्ञानिकों से मार्गदर्शन लेने की जगह यह ज्यादा महत्वपूर्ण होगा कि हम इसे सामान्य लोगों, उनका जीवन और उनके विचारों के राजनीतिक-दार्शनिक सन्दर्भ में अवस्थित करने का प्रयास करें.
स्वराज विद्यापीठ,  इलाहाबाद और आज़ादी बचाओ आन्दोलन के मनोज त्यागी 

स्वराज अभियान से राम जनम 
सुरेश और सिवरामकृष्णन ने बंगलुरु में चल रहे ‘पवित्र आर्थिकी सत्याग्रह’ की बात के साथ चर्चा शुरू की. यह सत्याग्रह हाथ के काम और उन्हें करने वालों के पक्ष में एक आर्थिक-सामाजिक आन्दोलन है. इस आन्दोलन ने सीएए/एनआरसी के विरोध का समर्थन किया है तथा उसमें एक महत्वपूर्ण पक्ष जोड़ने का प्रयास किया है. देश में चल रहे सीएए/एनआरसी के विरोध के आन्दोलन के सन्दर्भ में कई भागीदारों ने इस बात पर जोर दिया कि वर्तमान सरकार हिंदुत्व की वैचारिकी से प्रभावित होकर एक विनाशकारी रास्ता अपना रही है और इस देश में सभी पंथों और धर्मों के लोगों की आपसी सौहार्द के जीवन की जो परंपरा है उसे ख़त्म करने पर तुली हुई है. कई तबकों के लोग यह सोचते हैं कि सी.ए.ए., एन.आर.सी. और एन.पी.आर. का पैकज उनके अस्तित्व के लिए ही खतरा है. इसलिए इसका विरोध जिन लोगों ने और जितनी मजबूती से खड़ा किया है उसकी उम्मीद शायद किसी को नहीं थी. यह किसी प्रकार के "वाद" से बंधा हुआ नहीं है और इसने देशप्रेम की नयी परिभाषा दी है. यह मुख्यधारा के वर्तमान पक्षों को पीछे छोड़ आया है. ख़ास कर शाहीन बाग़ की महिलाओं ने यह दिखा दिया है कि जो लोग मुस्लिम समाज की स्त्रियों को सार्वजनिक मंच से कटा हुआ समझते हैं वे कितने ग़लत हैं. इन महिलाओं ने न सिर्फ राजनैतिक पक्षों को बल्कि अपने समाज के लीडरों को भी पीछे छोड़ दिया है. उनकी शक्ति के स्रोत क्या हैं यह समझने की ज़रुरत है. क्या यह एक नई प्रेरणा का स्रोत है?  
कानपुर से मज़दूरों के बीच कार्यरत मनाली चक्रवर्ती 
 बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के शोध छात्र राहुल राज 
वक्ताओं ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि यह आंदोलन केवल मुसलमानों का नहीं है. ये नए कानून और सरकार के प्रयास सिर्फ मुसलमान समाज के लिए ही नहीं, बल्कि देश के तमाम किसानों, कारीगरों, आदिवासियों, स्त्रियों और छोटे धंधे वालों के लिए समस्या पैदा करते हैं. इन लोगों के पास अथाह ज्ञान, विद्या और हुनर तो है, लेकिन कागज़ नहीं हैं. इस लिए "कागज़ नहीं दिखाएंगे" का नारा इस लोकविद्याधारी समाज का नारा है. इस आंदोलन के मार्फ़त समाज सरकार से कह रहा  है “हमारे ही देश से हमें बेदखल करने का विचार त्याग दें”. यह बात भी सामने आयी कि सीएए  के मुद्दे तक सीमित न रह कर इस आंदोलन को सरकार की अन्य नीतियों जैसे नोटबंदी, जीएसटी आदि की पार्श्वभूमि में देखा जाए.

वाराणसी के ग्राम  सुधार समिति और निषाद समाज संगठन से हरिश्चंद बिंद 
वार्ता में यह बात भी उभर कर आयी कि हिंदुत्ववादी सोच का मुक़ाबला करने और देश के विविध सम्प्रदायों के बीच भाईचारे के सम्बन्ध बनाने और अधिक मजबूत करने के लिए जिन मूल्यों और व्यवहार के तरीकों की ज़रुरत है, वह हमें सामान्य जीवन में और लोक परम्पराओं तथा लोकस्मृति में मिलते हैं. भारत में ऐसे भाईचारे की परम्परा  है जिसे  हिन्दुत्ववादी सोच नकारती है. लेकिन अगर हम महाभारत से कुछ सीखते हैं तो वह यह कि जब घर ही में युद्ध होता है तो किसी की जीत नहीं होती, सबकी हार होती है. वक्ताओं ने कहा की आर्थिक विषमताओं, बेरोज़गारी, और कॉर्पोरेट सेक्टर के फायदे  के लिए बनी आर्थिक नीतियों को भी चुनौती देने की ज़रुरत है. ये ऐसे हालात पैदा करती हैं जिनमें युवा नफरत और हिंसा की ओर गुमराह किये जाते हैं. यह एक लम्बी लड़ाई है. 
IISER मोहाली से वैभव 
यह भी कहा गया कि केवल संवैधानिक मूल्यों को पकड़कर देश बहुत दूर तक नहीं जा सकता. जिस उदारतावाद और प्रगतिशीलता से हम परिचित हैं वह अब और आगे देश को किसी नए रास्ते पर ले जा सकेगा इसकी संभावना नहीं दिखाई देती. उदार और सकारात्मक मूल्यों के स्रोत के रूप में हमें सामान्य लोगों के बीच प्रचलित परम्पराओं की ओर देखने का मन बनाना चाहिए, खासकर संत-परंपरा की ओर. केवल इतना ही नहीं बल्कि वर्तमान आन्दोलन में कलाकारों की भूमिका यह कहती नज़र आती है कि देश और दुनिया को कला दर्शन की दृष्टि से देखना ज़रूरी है. इस सन्दर्भ में श्रीमती मंजू सुन्दरम जी का एक विशेष व्याख्यान रखा गया था. श्रीमती मंजू सुन्दरम कला और भाषा के क्षेत्रों में विशेष दखल रखने वाली एक दार्शनिक विदुषी हैं. वे उपस्थित लोगों को एक ऐसी कला की दुनिया में ले गईं जहाँ से बातों को समझने और देखने के लिए प्रचलित राजनैतिक और आर्थिक श्रेणियों से अलग वैचारिक श्रेणियों के बीच खुद को ले जाना पड़ता है. ‘दर्शन’, ‘भाव’ और ‘मर्यादा’ की बातें करते हुए उस वैचारिक दुनिया का निर्माण किया जिसमें विश्लेषणात्मक तरीके का महत्त्व तो है लेकिन औरों की तरह ही, उनसे अधिक नहीं. पूरी सुबह राजनैतिक दृष्टिकोण से बात चल रही थी और कला की दुनिया का यह दखल ताज़ी हवा के एक झोंके की तरह था तथा वार्ता को एक बड़ी दुनिया में ले गया. 
मंजू सुन्दरम 
इनके तुरत बाद आते हुए राहुल राज ने विश्लेषणात्मक वैचारिकी के द्वंद्वों के ऊपर उठने में दर्शन की भूमिका को रेखांकित किया. अंत में चित्रा सहस्रबुद्धे ने कहा कि रचनात्मक पहल के लिए जिस सार्वजनिक और सबको शामिल करने वाले संवाद की ज़रूरत है उसे बनाने के लिए एक ज्ञान आन्दोलन की ज़रूरत है, एक ऐसे ज्ञान आन्दोलन की जिसमें लोकविद्या और नैतिकता को अहम् स्थान मिलता हो. इसे हम बौद्धिक सत्याग्रह का नाम दे सकते हैं, जिसमें कला दर्शन और संत वाणी की बड़ी भूमिका है.
वाराणसी  बुनकर संगठन के फ़ज़लुर्रहमान अंसारी 
कार्यक्रम  के दूसरे दिन लोकतंत्रसमाजवादरामराज्य, और स्वराज पर गंगाजी के किनारे दर्शन अखाडा में वार्ता हुई. यहाँ उपस्थित लोगों ने इन अवधारणाओं और व्यवस्थाओं पर अपनी-अपनी समझ रखी. लगभग 50 लोगों की उपस्थिति में बोलने वाले अधिकांश लोगों ने जीवन और समाज के संगठन के रूप में स्वराज के प्रति अपनी प्राथमिकता दर्शाई. लोकविद्या जन आन्दोलन के मैसूर से आये बी. कृष्णराजुलु ने बैठक की शुरुआत करते हुए यह कहा कि आज सभी देशों में लोकतंत्र एक दलीय तानाशाही में बदल रहा है. उन्होंने इस कथन के समर्थन में कई देशों के उदाहरण दिए, जहाँ अलग-अलग विचारधाराओं के दल राज कर रहे हैं. IISER मोहाली  से आये वैभव ने बाज़ार की नकारात्मक भूमिका को रेखांकित किया और कहा कि इस बाज़ार की व्यवस्था समझे और बदले बगैर मानव हित में आगे बढ़ना संभव नहीं है. स्वराज विद्यापीठ, इलाहाबाद के मनोज त्यागी ने कहा कि स्वराज की ओर बढ़ने में सबसे बड़ी बाधा कारपोरेशन हैं. उन्होंने स्वराज विद्यापीठ द्वारा ‘लोक राजनीति मंच’, ‘जन-संसद’ और ‘छोटे उद्यम’ के रूप में किये गए प्रयोगों के बारे में बताया. स्वराज अभियान के राम जनम ने कहा कि ‘एक व्यक्ति-एक वोट’ की वास्तविकता और वैचारिकी दोनों की ही सीमाएं हैं और स्वराज की ओर बढ़ने के लिए इनसे आगे बढ़ना होगा. भारतीय किसान यूनियन के लक्ष्मण प्रसाद ने उदाहरणों के साथ यह बताया कि छोटी से छोटी समस्या हल करने में वर्तमान सरकारी तंत्र पूरी तरह अक्षम है और यह कि स्थानीय लोगों की पहल पर ही कुछ काम हो पाता है. इसे संगठन का रूप देने से स्वराज की ओर बढ़ने के कदम तैयार होते हैं. विद्या आश्रम की चित्रा सहस्रबुद्धे ने स्वराज परंपरा की बात की. उन्होंने कहा कि स्वराज का विचार बनाने में और उसके व्यवहार के सिद्धांत समझने के लिए गाँधी के अलावा बसवन्ना के कल्याण राज्य, रविदास के बेगमपुरा, कबीर की अमरपुरी, अंग्रेजों के आने से पहले के ‘भाईचारा गाँव’ और आज़ादी के पहले औंध, मिरज और कुछ और स्थानों पर स्वराज के जो प्रयोग हुए उन सब पर ध्यान देना चाहिए. अविनाश झा ने कहा कि लोकतंत्र और स्वराज के बीच का अंतर 'स्वनियंत्रित' और 'स्वगठित' इन दोनों के अंतर से समझा जा सकता है. स्वनियंत्रित व्यवस्था बाहर से दिए हुए सिद्धांत के तहत चलती है. मगर एक स्वगठित व्यवस्था अपने अंदर ही अपने संगठन के मूल्यों का निर्माण करती है. स्वराज एक स्वगठित व्यवस्था की ओर इशारा करता है. 

 गाँधी विद्या संस्थान, वाराणसी से मुनीज़ा खान 
वार्ता सभा का समापन करते हुए उन सब लोगों के प्रति आभार व्यक्त किया गया जो भाग लेने आये थे और जिन्होंने इस वार्ता के लिए आवश्यक सारे इंतजाम किये. 
इस दो दिन के संवाद के लिए कई लोगों ने रहने-खाने और बातचीत के स्थान की व्यवस्था की. वे हैं – गोरखनाथ, फ़िरोज़ खान, मु. अलीम, नीरजा, आरती कुमारी, अंजू देवी, कमलेश, पप्पू, मल्लू, चम्पादेवी, रोहित, कुलसुमबानो, विवेक और प्रिंस.
[ इस संवाद में कई लोग बोले और कई के नाम इस छोटी सी रिपोर्ट में नहीं आये हैं. जो लोग बोले वे हैं—सुनील सहस्रबुद्धे, ज.क.सुरेश, जी.सिवरामकृष्णन, गिरीश सहस्रबुद्धे, वैभव वैश्य, राहुल राज, हरिश्चंद बिंद, मनोज त्यागी, मनाली चक्रवर्ती, मुनीज़ा खान, पारमिता, नीति भाई, संदीपा, अवधेश कुमार, लक्ष्मीचंद दुबे, फ़ज़लुर्रहमान अंसारी, एहसान अली, ब्रिकेश यादव, मु. अहमद, अमित बसोले, निमिता कुलकर्णी, अरुण चौबे, प्रेमलता सिंह, आरती कुमारी, वीणा देवस्थली, राहुल वर्मन, राम जनम, अभिजित मित्रा, चित्रा सहस्रबुद्धे, अविनाश झा, बी. कृष्णराजुलु. कुछ ऐसे विचार ज़रूर होंगे जो व्यक्त किये गए लेकिन इस रिपोर्ट में नहीं हैं. इसका कारण केवल यह है कि हमारे पास विस्तार से लिखित ब्यौरा नहीं हैं. पूरी वार्ता का एक विडियो बनाया गया है लेकिन अभी हम नहीं जानते कि उसका क्या इस्तेमाल किया जाय. सुझावों का स्वागत है.]

विद्या आश्रम    




Report
A dialogue on 
State of the Nation: Whither India
Vidya Ashram, Sarnath, Varanasi
29 Feb. – 1 March 2020

A dialogue on State of the Nation: Whither India was held in Varanasi on February 29th 2020 at Vidya Ashram, Sarnath and on 1st March 2020 at Darshan Akhada, Rajghat. The immediate context was the ongoing movement against CAA/NRC/NPR across the country and the great debate it has given birth to, on ‘who we are and where are we headed’. This was a philosophical and political dialogue in which people from various sections of society and different corners of the country participated. There were about 75 persons debating out a considerable spectrum of views on both the days. Reasonable numbers were present from all age groups, ranging from 25 to 70 or more.
It was generally felt that the action of the government and the resistance in the open spaces, both appear to constitute a break with the past and raise the fundamental question about who we are as a national society. The dialogue can be said to have underlined that though this seems to be most important question that has come up, this has to be located in the larger politico-philosophical context which is understood in some sense in people’s terms and not too much guided by the modern learning that lies in institutions of higher education.

Suresh and Sivaramakrishnan started the dialogue on a positive note by talking about the Sacred Economy Satyagraha taking place in Bangaluru which stood for all that was hand-made and the people who made these things. This satyagraha has supported the movement against CAA/NRC etc. and adds a critically important dimension to them. Several participants stressed that this government, dominated by the political ideology of Hindutva, is on a destructive course and seems bent upon destroying the tradition in this country of living together of people of various sects and religions. The CAA, NRC, NPR package has been taken by several sections of people as amounting to a threat to their existence. So, this time the opposition to this has been coming from where it may have been least expected. Resistances on the ground appear to be free of any "ism" and are perhaps bringing the focus on thought about what constitutes patriotism. These people have left mainstream political parties and formations behind. In particular, the women of Shaheen Bagh have proved many wrong, who believed Muslim women to be cut off from the public sphere. It is important to identify the sources of their strength.

Many noted that the entire matter adversely affected the poor and the ordinary people and should not be seen as being limited to Muslims. This new law and the proposed NRC is not only against Muslims but is going to affect all farmers, artisans, adivasis, roadside vendors and women among all these. These people have their own knowledge and strength but they do not possess papers. Therefore the slogan "We will not show papers" is also a slogan of this lokavidya-samaj. CAA, NRC and NPR may be seen as a continuation of what was started with demonitization as digitalization of the economy. The resistances appear to be a cumulative response to what has gone on for a while now as social and economic policy. It was stressed that the values, practices, and philosophies which will strengthen the cooperative and harmonious relations among different sections of society are to be found in ordinary life, in peoples' traditions and memory. These traditions have existed in India which the Hindutva ideology denies and destroys. If we learn anything from Mahabharat it is that everyone loses in the war fought among ourselves. Speakers also stressed that it is necessary to challenge those economic policies that create inequality and unemployment, while benefiting the corporate sector, thereby causing conditions in which young people become instruments of hate and violence. It is going to be a long struggle.


It was underlined that just sticking to constitutional values may not take the country too far. Progressivism and liberalism that we are familiar with may have run its course and may have little to help the country steer on a new course. Liberal and positive values need to be sourced from the traditions popular among the people of India, in particular, the sant-parampara. And not just this, but the involvement of artists in the present resistance was compelling to take a view of the whole thing from the art-end. So, there was a special lecture by Smt. Manju Sundaram, who is a philosopher with scholarship in the world of art and languages. She looked at the matter from the world of art and showed how one traverses through very different categories of understanding, while approaching from the art-end those very issues which were under discussion. With focus on darshan, bhaav and maryada, the expressed ideas strongly underlined that how in times such as we are in today, the analytical political approach, which fails to open new vistas of thought for building a better future, is just not enough. It was very useful and enlightening to have her speak in the discussion where the political approach dominated. Rahul Raj appreciated this approach emphasising the role of darshan to transcend the given dichotomies of the analytical discourse. Further Chitra Sahasrabuddhe stressed the need of a knowledge movement, namely Bauddhik Satyagraha, which respects lokavidya and moral considerations, to build an inclusive public dialogue needed for a new constructive approach.

On Day Two of the programme, a discussion on Democracy, Socialism, Ramarajya and Swaraj was held in Darshan Akhara on the banks of the Gangaji, where people reflected on what these terms meant to them. In a gathering of about 50 persons there were many speakers preferring swaraj for the mode of organization of our life and society. B.Krishnrajulu of Lokavidya Jan Andolan from Mysoor opened the discussion with a talk on how democracies today are all on the course of one party dictatorships. He explained this by giving examples of various countries which were under the rule of different political ideologies. Vaibhav from IISER, Mohali stressed the negative role of the compulsions of the market. He said that we understand the nature of the capitalist market system and how without changing it nothing good was possible. Manoj Tyagi from Swaraj Vidyapeeth, Allahabad argued that the corporations were the main hurdle in movement towards swaraj. He also mentioned their experiments with ‘Loka-rajneeti Manch’ and ‘Jan-sansad’ and small units of enterprise. Ram Janam of Swaraj Abhiyaan said that the idea and reality of one person-one vote’ was simply insufficient to move towards swaraj. Lakshman Prasad of Bharatiya Kisan Union said that it is common observation that the present system is an all round failure on grounds of delivery. No problem however simple is solvable through the state machinery. Local people’s initiative is the only way. So this needs institutionalization which is the way to swaraj. Chitra Sahasrabuddhe from Vidya Ashram, argued that we need to look at the larger meaning of swaraj through swaraj-parampara which includes along with the ideas of Tilak and Gandhi, Basavanna’s kalyana-rajya, Ravidas’ Begampura, Kabir’s Amarapuri, the Bhaichara Villages of pre-British India and the experiments in swaraj on the eve of India’s Independence in places like Aundh, Miraj and some others. Avinash Jha proposed that the distinction between 'self-organization' and 'self-regulation' can be helpful in understanding the difference between swaraj and democracy. A self-organised system contains the principle of organisation within itself, whereas 'self-regulation' works within a given principle. It is a way of understanding the different kinds of freedom that different systems allow.
The meeting concluded with thanks to all those who had come to participate and those who made the arrangements for the dialogue.

This two days gathering was supported by the work of Gorakhnath, Firoz Khan, Md. Aleem, Neeraja, Kulsumbano, Aarati Kumari, Anju Devi, Kamalesh, Pappu, Mallu, Rohit, Champa Devi, Vivek and Prince in organizing the arrangements at the two venues and for lodging and boarding. 

[ A large number of persons spoke and it has not been possible to include all their names in the text of this short report. The following spoke before the assembly. Sunil Sahasrabudhey, JK Suresh, G.Sivramakrishnan, Girish Sahasrabudhe, Vaibhav Vaish, Rahul Raj, Manoj Tyagi, Harishchand Bind, Manali Chakravarti, Muniza Khan, Parmita, Neeti Bhai, Sandipa, Awadhesh Kumar, Laksmichand Dube, Fazalurrahamaan Ansari, Ehasaan Ali, Brikesh Yadav, Mohammad Ahamad, Amit Basole , Nimita Kulkarni, Arun Chaube, Premalata Singh, Aarati Kumari, Veena Devasthali, Rahul Varman, Ram Janam , Abhijit Mitra, Chitra Sahasrabuddhe, Avinash Jha, B. Krishnarajulu. It may also be added that perhaps some views expressed have not found a place in this report. This is only because we failed to take detailed notes. However a complete video has been made and we do not at this point know what use we can put this video to. Suggestions are welcome. ]


Vidya Ashram






















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