Sunday, July 24, 2011

लोक विद्या जन आन्दोलन-सभ्य और असभ्य समाज के बीच का संगर्ष

ललित के कौल

लोकविद्या लोकविध्याधर समाज की पहचान है . लोक विद्या जनांदोलन केवल लोकविद्या से दूसरे समाजों को परिचित कराने तक सीमित नहीं, बल्कि मानो तो ऐसा करना भी कोई जरूरी नहीं . लोकविद्या आज के ज़माने में संगत है कि नहीं यह बेमतलब की बहस है . क्योंकि इस विद्या से जुडा समाज शोषित है इसलिए यह चिंतन का विषय है . इस शोषित वर्ग की दास्ताँ चिंतन का विषय है क्योंकि आधुनिक भारत की सभ्यता पे यह ऐसा अनमिट गहरा दाग है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता . हजारों सालों की सभ्यता की दुहाई देने वाला आधुनिक भारत इसे अनदेखा नहीं कर सकता . यह आधुनिक भारत में बसे बसाये कुम्भकरण को जगाने का संगर्ष है . यह कुम्भकरण भी आधुनिक है क्योंकि यह जागते हुए भी देखी अनदेखी कर देता है . जब प्रकट वस्तु , स्तिथि , या फिर वस्तुस्तिथि न दिखे तो संगर्ष ज़ायज है . यह आधुनिक और प्राचीन के बीच का संगर्ष नहीं बल्कि आधुनिक और कल की कल्पना के बीच का संगर्ष है . कल के समाज की कल्पना का संगर्ष है जिसमे महत्वपूर्ण भूमिका लोकविध्याधर समाज की निश्चित है तो जायज है कि उसमे लोक विध्या की अपनी एक गतिविधि रहेगी .

आधुनिक विज्ञान की दुनिया के बारे में समज उसकी परिभाषा और उसके अपनाये गए तौर तरीकों की कसौटी पे लोकविद्या में निहित लोक विज्ञान का दुनियायी नजरिया और उससे जुडे तौर तरीके कितने खरे उतरते हैं यह सवाल स्थिर सोच और बंद नजरिया को दर्शाता है . इसमें एक प्रकार का अहंकार भी है जिसने यह तै कर लिया है कि जीवन से जुडी कोई भी प्रक्रिया जिसपे 'आधुनिक ' का पट्टा लगा हो सिर्फ वही सही है क्योंकि इनके मुताबिक यह केवल विवेक के जागीरदार हैं और इनके दायरे से बाहर की कोई भी जीवन संगत प्रक्रिया अविवेक पे आधारित हैं . इनके नज़रिये का सार यह है कि कोपेर्निकुस से पहले का सारा विश्व अंधकारमय था और हजारों सालों पुराणी अन्य सभ्यतायें विवेकहीनता पे आधारित थी .

सत्य की खोज’ में इस आधुनिक विज्ञान का यह मानना है कि जो आंखों को दिखता है जरूरी नहीं कि वह सत्य हो जैसे कि सूर्य का धरती के इर्ध गिर्ध घूमना लेकिन हर प्रकार की स्तिथि के लिए ऐसा मानना सही नहीं है . जैसे कि जब हर तारा सूर्य समेत गोल आकार का दिखता है तो साधारण समझ यही कहती है कि प्रथ्वी चकोर नहीं हो सकती और इसके लिए किसी कोपेर्निकुस का होना ज़रूरी नहीं . जैसे कि भारत में ९० से ९५ करोड़ की जनसँख्या जो गरीबी भुखमारी और नंगेपन से जूज रही है यह आखों को दिखता है और यही सत्य है . इस तथ्य और सत्य को प्रमाणित करने के लिए किसी प्रयोगशाला या फिर किसी गणित विद्वान की जरूरत नहीं .




ऐसे उन्नति और विकास के मार्ग जो दशकों से एक बढती जनसँख्या को निरंतर असक्रिय करते चले आ रहे हैं मूल रूप से सभ्यता सभ्य देश और समाज पर कलंक हैं . इनके मार्गदर्शक कितना भी वैज्ञानिक सोच का वास्ता क्यों न दें लेकिन जिन तरीकों से करोड़ों बेकार और बेरोजगार हो जाएँ वह तो असभ्यता के वाहन चालक ही कहलायेंगे . इस सन्दर्भ में जब देश की उन्नति और विकास की बात होती है तो प्रश्न यह उठता है कि देश की परिभाषा क्या है ? यदि देश को उसके बुगोलिक विस्तार प्राकृतिक सुन्दरता और संसाधनों से परिभाषित करें तो जायज है कि प्रकृति का विकास देश के चालकों के आधीन नहीं क्योंकि वह तो खुद विकसित होती रहेगी यदि कोई स्वयं घोषित वैज्ञानिक सोच से लेस उसका विनाश न करे तो . पर अगर देश की परिभाषा में उसकी जनसँख्या भी शामिल है तो उन्नति और विकास की परिभाषा केवल एक ही हो सकती है: प्रकृति के संसाधनों का इस्तेमाल जनसँख्या के हित में करना. देश की जनसँख्या को विभाजित करके केवल किसी विशेष वर्ग के हित में सोचना अवैज्ञानिक और असभ्य व्यवहार है .

इस घोर अन्याय की पकड़ विकास के दायरे से बहार की जनसँख्या की कभी न बने इसके लिए भेद भाव और अलगाववादी राजनीति का नियोजन करके लोगों को धर्म और जाती के नाम पे भिड़ाना इंसानियत की तौहीन है और एक सभ्य समाज में किसी भी जुर्म से कम नहीं .

भारत की बड्ती आबादी को हर धर्म और जाति के लोगों में बढती हुई गरीबी का कारण बताया गया और यह ऐलान किया गया कि प्राकृतिक और भारतीय संसाधन इस बढती हुई आबादी की उन्नति और विकास के लिए उपलब्ध नहीं . इस विकास के दायरे से बहार के वर्ग का ध्यान कभी उनकी गरीबी के असली कारण पे केन्द्रित न हो इसके लिए एक और बेईमानी की राजनीति का जन्म हुआ : गरीबी की रेखा का नामकरण . सार्वजानिक स्थर पर जातिवाद की आलोचना करने वाले आधुनिक वर्ग ने अब समाज के बटवारे का ऐलान आर्थिक कुशलता और मुफलसी के आधार पे किया . मुफलसी में जी रही बहुत बड़ी जनसँख्या को आधुनिक भारत पे एक भोज करार देकर उन्हें लूट की व्यवस्था में उत्पन हुई धन दौलत में से कुछ टुकड़े फैंकने वाली योजनओं का ऐलान किया गया और इनको निर्मित किया गया. यह और बात है कि बड़ते हुआ भ्रष्टाचार ने इनके टुकडों को भी जनता तक पहुचने न दिया .

करीब दो दशक पहले आधुनिक विज्ञान और उसके तरीकों की परिपूर्ण समझ पे दावा करने वाले आधुनिक भारतीय वर्ग ने यह तय किया कि जब तक भारतीय आर्थिक व्यवस्था विकसित देशों की आर्थिक व्यवस्थओँ के साथ संगठित न होगी तब तक बेरोजगारी और मुफलसी का कोई समाधान संभव नहीं . बहार के देशों के उद्योगपतिओं और पूंजीपतियों के लिए भारत के बाज़ार खोल दिए गए और अपने देश में सब कुछ विदेशी छा गया . संस्कृति तहज़ीब रहन सहन का ढंग रोज्मरा की चीजें यानी कि जीवन के हर दायरे में बाहरी प्रभाव से ऐसा अभूतपूर्व बदलाव आया कि गयी पीड़ी के लोग अपने ही देश में अजनबी से हो गए .यह ऐसे लोग थे जो आधुनिक भारत में पूर्णरूप से अपनी पहचान बना लिए थे . प्रगति के नाम पर भ्रष्टाचार और


भारत में उपलब्ध संसाधनों के लूट की कोई इन्तहा न रही . आधुनिक भारतीय समाज में मध्यवर्तीय वर्ग का पतन हुआ और धन सम्पति और प्राकृतिक संसाधनों के हकदारों की गिनती में और भी कमी नज़र आयी

विस्थापन का दौर ऐसा शुरू हुआ कि उद्योगपतिओं पूंजीपतियों और सरकारी गठबंधन को मानो किसी की भी निजी सम्पति पे पहला और असीम अधिकार हो . किसानों की ज़मीनें आदिवासियों के रोजगार के साधन इनसे छिन गए . रोज्मरा की चीजों में व्यापर करने के पारंपरिक तरीके कहीं खो गए और इनके स्थान बड़े बड़े एक जगह केन्द्रित बाज़ारों ने ली . खाने पीने और रोज्मरा की इस्तमाल की चीजों के धाम बे-इन्तहा बढते गए लेकिन दो और चार पहिये के वाहनों और फ्रिज टी व् आदि जैसी वस्तुओं के धाम या तो घटते गए या फिर कहीं कम धर से बड़े. एक तरफ से व्यवसाय के साधन घटते गए और इनके विपरीत अत्यंत जरूरी चीजों के धाम बढते गए . इन सब शर्मनाक और दर्दनाक गतिविधियों को देश की उन्नति के लिए जरूरी बताया गया . प्रश्न फिर से वही : किसका कोनसा और किनके लिए देश ?

लोकविध्याधर समाज की भूमिका :

यह आज की व्यवस्था जो झूठ धोखा भ्रष्टाचार और प्राकृतिक व मानव संसाधनों के लूट पर निर्धारित है इसे बदलने की योग्यता कौन रखते हैं ? आधुनिक भारतीय समाज का मध्यवर्तीय या और कोई वर्ग तो नहीं क्योंकि यह समकालीन व्यवस्था मे ही अपना भविष्य देखते है .

इस व्यवस्था के खिलाफ यदि बहुसंखित शोषित वर्ग आवाज़ नहीं उठायेगा तो इसे चुनौती कोई न दे पायेगा . यह आवाज़ असभ्यता झूठ और शोषण के विस्थापन और सभ्यता सत्य और मानव विकास के स्थापन के लिए जरूरी है . यह संगर्ष एक ऐसे कल की कल्पना के लिए जरूरी है

  • जिनकी व्यवस्थओँ में हर एक को न केवल अपने तरीके से ज़िन्दगी जीने का हक नसीब होगा अपने हुनर और विद्या के मुताबिक सामाजिक विकास में योगदान का बे-रोक-टोक अवसर भी प्रधान होगा.

  • धर्म और जाति के नाम पर अलगाववादी राजनीति कार्यान्वित न होगी बल्कि हर जाति और धर्म के बाशिंदे के हुनर और योग्यता को सार्वजानिक प्रतिष्ठा प्राप्त होगी .

  • हर क्षेत्र में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों पे पहला अधिकार वहां की स्थानीय आबादी का होगा और उनके इस्तमाल के तरीके भी वही तय करेंगे .

  • हर क्षेत्र का विकास वहां के वातावरण प्राकृतिक संसाधनों और इंसानी योग्यताओं के अनुसार होगा और ऐसी संस्थाओं का निर्माण होगा जिनसे पूरी आबादी विकास के कार्यों में सक्रिय हो पायेगी.

  • पुरुष के समान नारी जाति को दर्जा ' इस प्रकार की नारेबाज़िओं से नारियों का अपमान न होगा

बल्कि विकास की योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए उनकी एक कुदरती भूमिका रहेगी क्योंकि केवल मर्द या नारी से जीवन अग्रसर नहीं होता . जीवन की अग्रसरता के लिए दोनों का योगदान कुदरती है और इसके विरुद्ध कोई भी विचार असभ्य है .

  • नारी जाति का दर्दनाक अपमान जिस्म की सौदागिरी में है . कल के समाज में नारी केवल एक चीज़ की तरह नहीं मानी जाएगी कि जिसका जब जी चाहे खरीद फ़रोक्थ हो .

  • शारीरिक परिश्रम को उतनी ही मान्यता प्राप्त होगी जितना कि दिमागी काम को.

  • किसी भी प्रकार का श्रम इज्ज़त का हकदार होगा और कोई भी काम नीचा न समझा जायेगा .

  • हर एक गाँव कस्बे या क्षेत्र में बसी जनता को स्वयं अपना एक ऐसा प्रितिनिधि चुनने का अवसर मिलेगा जो उनमे से ही एक हो और उनकी रोजमरा की जिंदगी की गतिविध्योँ से झुडा हो. जो उनका मार्गदर्शन करने की योग्यता रखता हो नाकि किसी राजनीतिक दल का बहार से थोपा गया अजनबी.

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लोक विद्या जन आन्दोलन असत्य से सत्य और असभ्य से सभ्य तक की परवाज़ है . यह समझने की बात है केवल बहस करने की नहीं .

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