Thursday, September 24, 2015

सामाजिक न्याय का नया एजेंडा

अक्टूबर भर होने वाले बिहार के चुनावों पर बड़ी बहस जारी है।  चुनाव दो ध्रुवीय है - एक तरफ सामाजिक न्याय की बात करने वाले हैं, तो दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व का गठबंधन।  समाज में परिवर्तन चाहने वाले सामाजिक न्याय के पक्षधर तो हैं लेकिन अब इस आंदोलन के अगले कदम का इंतज़ार कर रहे हैं।

बिहार सामाजिक न्याय का एक बड़ा गढ़ रहा है।  25 साल पहले शुरू हुए राजनैतिक परिवर्तन ने पिछड़े, शोषित और दबाये गए लोगों में एक नई ऊर्जा का संचार किया है।  बिहार के  गाँवों में जाकर पढ़े-लिखे लोग भाँजकर चले आएं, यह अब संभव नहीं है।  लेकिन हम सब को दिखाई दे रहा है कि यह काफी नहीं है और यदि आर्थिक स्थितियों में इज़ाफ़े का गरीबों की तरफ विस्तार नहीं हुआ, तो आंदोलन की धार टूटना तय है । देश के अन्य भागों में जाट, गूजर  और अब पटेल भी मैदान में आ चुके हैं।

अब यह निहायत ज़रूरी है कि सामाजिक न्याय आंदोलन अपना अगला चरण निर्धारित करे। 

असंगठित और संगठित क्षेत्र के बीच का अंतर मिटाना इस दिशा में एक युगांतरकारी कदम साबित होगा।   समाज में बेइंतहा फैली हुई गैर-बराबरी, गरीबी और असम्मान की परिस्थितियों से मुखातिब हों तो सबसे पहले ध्यान जाता है संगठित और असंगठित क्षेत्र के बीच की खाईं की ओर।  इस खाईं को पाटना अर्थात संगठित और असंगठित क्षेत्र में आमदनी के अंतर को ख़त्म करना, यही अब सामाजिक न्याय के आंदोलन का प्रमुख एजेंडा होना चाहिए ।  

एक तरफ संगठित क्षेत्र के लोग हैं, यानि वे लोग जो सरकारी कर्मचारी हैं या बड़ी-बड़ी कंपनियों में नौकरी करते हैं।  इन लोगों की तनख्वाहें आज 30 हज़ार से लेकर लाखों रुपये प्रति माह तक हैं।   इसके अलावा तरह-तरह की सुविधाएं भी इन्हें मिलती हैं।   इन्हीं के लिए महंगाई भत्ता होता है और इन्हीं के लिए वेतन आयोग बनते हैं।  दूसरी ओर असंगठित क्षेत्र के लोग हैं जिनकी कभी कोई निश्चित आय नहीं होती और जो अपना पूरा ज्ञान और श्रम लगाने के बाद भी आज 5 से 8 हज़ार रुपये महीना तक बड़ी मुश्किल से कमा पाते हैं। इनमें किसान, कारीगर, आदिवासी , पटरी-ठेला-गुमटी वाले और मज़दूर स्त्री-पुरुष, ये सभी हैं।  सामाजिक न्याय का आंदोलन कहता है कि सरकारें यह पक्षपातपूर्ण व्यवहार बंद करें और असंगठित क्षेत्र के लिए भी सरकारी कर्मचारी जैसी पक्की और नियमित आय सुनिश्चित करें ।    

इस माँग का ठोस आधार इस बात में है कि लोकविद्या किसी भी अर्थ में विश्वविद्यालय की विद्या से कम नहीं होती ।  

असंगठित क्षेत्र में कार्यरत सभी अपने ज्ञान और हुनर के बल पर यानि लोकविद्या के बल पर काम करते हैं। किसान , कारीगर , छोटा-मोटा मरम्मत और सेवा का काम करने वाले, आदिवासी,  मछुआरे, सडकों पर छोटी-छोटी दुकानदारी करने वाले, खेतों में मेहनत करने वाले, घर-परिवारों का प्रबंधन करने वाली स्त्रियां, ये सभी अपने ज्ञान और हुनर के बल पर काम करते हैं।  इन क्षमताओं को वे अपने कार्यस्थल पर,  बुज़ुर्गों से तथा समाज में मेहनत करके हासिल करते हैं।  इनके ज्ञान को लोकविद्या कहा जाता है और ये सब मिलकर लोकविद्या-समाज बनाते हैं।  इस लोकविद्या का अपना जानकारियों का भंडार होता है, अपने मूल्य होते हैं, और तर्क का अपना विधान होता है।  लोकविद्या समाज में बसती है और लोगों की ज़रूरतों, अनुभव तथा उनकी तर्कबुद्धि के बल पर संवर्धित होती रहती है। इसलिए लोकविद्या नित्-नवीन होती है।   

इसलिए सामाजिक न्याय आंदोलन यह मांग करता है कि लोकविद्या के बल पर काम करने वालों की भी वैसी ही आय होनी चाहिए जैसी आय सरकार अपने कर्मचारियों को देती है।   

सामाजिक न्याय के पक्षधर सभी राजनैतिक दल हामी भरें कि वे लोकविद्या-समाज के लिए वैसी ही आमदनी के लिए काम करेंगे जैसी आमदनी एक सरकारी कर्मचारी की होती है।

लोकविद्या जन आंदोलन , वाराणसी 

Tuesday, September 22, 2015

Vidya Ashran National Meet 27-28 Feb. 2016

यह घोषणा नीचे हिंदी में दी गयी है।  
Announcement/Invitation

Vidya Ashram National Meet is planned for 27-28 February 2016 at Vidya Ashram premises in Sarnath, Varanasi. The central topic for discussion in this meet is -

If Lokavidya Knowledge Claims are satisfied, what would/should the world look like?  

For over ten years now, certain lokavidya knowledge claims have been articulated and put forward for open dialogue by Vidya Ashram. We have taken some steps towards a philosophy that may enable political imagination of change worthy of humanity in the unfolding reality of the present century. This Meet is to explore ways of moving forward.

One may like to see what we have been saying in this respect. All our publications are accessible on the Vidya Ashram website Publication Page (www.vidyaashram.org). Of particular interest may be the recently published book Lokavidya Perspectives : A Philosophy of Political Imagination for the Knowledge Age, published by Aakar Books.

Following are some hints for preparatory discussions -
  • Is the severe gap between 'organized' and 'unorganized' sector, challenged squarely by the lokavidya knowledge claims ? 
  • Is there sufficient space for a friendly relationship between lokavidya and the new sciences ?
  • Power industry and technology of the Industrial Age destroyed both living and non-living Nature. Should we therefore stop looking towards it completely and concentrate on a model of reconstruction critically dependent on lokavidya and the new connectivity. The mantra for  reconstruction given by Gandhiji is 'based on our traditions and enriched by the later experiences'.
  • What kind of constructive activity does Lokavidya Jan Andolan enable us to envisage?
  • Is it reasonable to think that there is no civilization where there is no village/farmer ?
  • Does resurrection of lokavidya create a radically fresh milieu for human emancipation ? 
Further, before we get on to discussing these points and other issues, given below are the lokavidya knowledge claims for your ready reference and if desired for a fresh debate.  

  Very broadly and briefly the lokavidya knowledge claims are -
  1. All knowledge starts with lokavidya and must return to lokavidya. Knowledge that does not come back to lokavidya turns against humanity and nature. 
  2. Knowledges born, grown and built in different locations and at different times by different people are in a fundamental sense equal to one another. All hierarchy in the world of knowledge is both untrue and oppressive. 
  3. Everyone is knowledgeable. 
  4. Lokavidya is situated in society, that is, where life is collective life. So, it is fair to say that lokavidya resides in villages and other settlements that is bastis. Thus, in a radical sense, lokavidya is always social knowledge ( both 'about' and 'of ' society). 
  5. From the lokavidya point of view knowledge ought not to be private property or a source of profit and exploitation. Knowledge ought to be the basis and resource for good and noble living. It cannot be the resource for violence and destruction, on the contrary it must give direction to moral living along with being the critical resource for livelihood. 
This is to invite you to join us in this Vidya Ashram National Meet and also find time to participate in this preparatory discussion on this blog.

Note : 
  • Posts may be written in Hindi or English. If you write in any other language, please send us the write up, we shall get it rendered into English/Hindi. 
  • Please subscribe to this blog, so that you may get blog posts straight into your mailbox and this would also enable you to write your posts directly on the blog. Slot for subscribing is in the top right side (just below the picture) on the blog page. In case of any difficulty, you may contact Dr. K.K. Surendran (k.k.surendran@gmail.com , 020-27298293). 

Vidya Ashram

घोषणा/निमंत्रण 

विद्या आश्रम की राष्ट्रीय बैठक 27-28 फरवरी 2016 को  वाराणसी में आश्रम के सारनाथ परिसर में होगी।  इस बैठक का मुख्य विषय यह है -

अगर लोकविद्या के ज्ञान के दावे मान लिए जायें तो दुनिया कैसी दिखेगी ?

पिछले 10 वर्षों से विद्या आश्रम ने लोकविद्या के ज्ञान के दावे बनाएं हैं और उन्हें खुली बहस के लिए सामने रखा है।  आश्रम ने एक ऐसे दर्शन के निर्माण की ओर कदम उठाये है, जो वर्तमान सदी की नई वास्तविकताओं में मनुष्योचित परिवर्तन की राजनीति के विकास का रास्ता प्रशस्त करने में मददगार साबित हो। यह बैठक आगे के रास्ते खोजने का प्रयास करेगी।  

आश्रम जो कहता रहा है वह आश्रम की वेबसाइट www.vidyaashram.org के प्रकाशन पृष्ठ पर उपलब्ध है।
इस बैठक की तैयारी की वार्ताओं के लिए नीचे कुछ बिंदु दिए जा रहे हैं -
  • क्या लोकविद्या के ज्ञान के दावे 'संगठित' और 'असंगठित' क्षेत्र के बीच की खाईं को चुनौती देने में सक्षम हैं ?
  • क्या लोकविद्या और नए विकासशील साइंस के बीच मैत्री/सहयोग की संभावनाएं दिखाई देती हैं ?
  • औद्योगिक युग के उद्योगों और प्रौद्योगिकी ने प्रकृति और समाज का बड़े पैमाने पर विनाश किया है।  इसलिए क्या हमें उनकी ओर देखना पूरी तरह बंद करके, पुनर्रचना के ऐसे आदर्श खोजने और बनाने चाहिए जो लोकविद्या और नई संपर्क विधाओं पर आधारित हों ? गांधीजी द्वारा पुनर्रचना के लिए दिया हुआ मन्त्र है - " अपनी परम्पराओं पर आधारित और बाद के अनुभवों से समृद्ध "। 
  • लोकविद्या जन आंदोलन हमें कैसे रचनात्मक कार्यों के लिए प्रेरित करता है ? 
  • क्या यह सही सोच है कि जहाँ गाँव /किसान नहीं होते , वहाँ सभ्यता नहीं होती ?
  • क्या लोकविद्या की पुनर्प्रतिष्ठा से समाज में नए सिरे से मनुष्य की मुक्ति के रास्ते खुलते हैं ? 
लोकविद्या के ज्ञान के दावों के सन्दर्भ में वार्ता शुरू करने के लिए आपको याद दिलाने के लिए नीचे संक्षेप में इन दावों की एक सूची दी जा रही है --
  1. सभी ज्ञान लोकविद्या से शुरू होता है और लोकविद्या में वापस आना चाहिए।  जो ज्ञान लोकविद्या में वापस नहीं आता वह मनुष्य और प्रकृति का विरोधी हो जाता है।  
  2. विभिन्न स्थानों और समयों पर अलग-अलग लोगों द्वारा निर्मित और विकसित ज्ञान एक बुनियादी अर्थ में एक-दूसरे  के बराबर होते हैं।  ज्ञान की दुनिया में ऊँच-नीच झूठी है और शोषण का स्रोत है।  
  3. हर व्यक्ति, स्त्री व पुरुष , ज्ञानी है। 
  4. लोकविद्या समाज में रहती है, यानि समूह-जीवन में वास करती है। यानि लोकविद्या गाँवों और बस्तियों में रहती है अतः लोकविद्या हमेशा ही सामाजिक ज्ञान का रूप रखती है।  
  5. लोकविद्या दृष्टिकोण से ज्ञान निजी संपत्ति नहीं हो सकता, न मुनाफे और शोषण का स्रोत अथवा साधन ही हो सकता है।  ज्ञान में एक अच्छे और सभ्य जीवन का आधार होता है।  यह हिंसा और विनाश का साधन नहीं हो सकता, उल्टे ज्ञान का काम तो जीविका जुटाने को आधार देने के साथ नैतिक जीवन के लिए दिशा देने का है।  
आश्रम आपको इस राष्ट्रीय समागम में भाग लेने के लिए आमंत्रित करता है।  कृपया समय निकालें और इस ब्लॉग पर तैयारी वार्ता में शामिल हों।  

नोट : 
  • हिंदी या अंग्रेजी में ब्लॉग पर लिखें।  अगर आप किसी और भाषा में लिखते हैं तो वह हम लोगों को भेज दें।  हम उसका अनुवाद करके ब्लॉग पर डाल देंगे। 
  • कृपया इस ब्लॉग को सब्स्क्राइब (subscribe) करें। इसके लिए ब्लॉग में दाहिनी तरफ  ऊपर चित्र के नीचे स्थान है।  इससे ब्लॉग के पोस्ट सीधे आपके मेलबॉक्स में आ जायेंगे और आप ब्लॉग पर सीधे लिख भी सकेंगे।  अगर आपको कोई दिक्कत आए तो डा. के. के. सुरेंद्रन  से संपर्क करें  - (k.k.surendran@gmail.com , 020-27298293) ।
विद्या आश्रम 

Thursday, September 17, 2015

LOKAVIDA PRAPANCHAM(TELUGU)-SEPTEMBER 2015

[LOKAVIDYA  PRAPANCHAM is the Telugu (& Urdu) periodical being published from Hyderabad on behalf of Lokavidya Jan Andolan since January 2013. It carries articles, reports and news about LJA (reported from different parts of the country) for the benefit of Telugu and Urdu readers. It has also served as a basis for the continuing dialogue on Lokavidya and the philosophy and practice of the world-wide Knowledge Movement that seeks to usher in a new Philosophy of radical politics for social change leading to a more equitable and humane social order.]






Articles Published

  1. Lessons from the recurring agitations for reservations – Krishnarajulu
  2. No suicides in Telangana region covered by Deccan Development Society-
    Press release by PV Sateesh,Director DDS
  3. Why more than 80% of Indian population are agitating for inclusion in reservations – Narayanarao
  4. The view point of Lokavidya Jan Andolan (presented at Tunis) - Chitra Sahasrabudhey
  5. Alternate model for sustained living - A report on Badanawal agitation - JK Suresh
  6. Defective implementation of reservations - Dr. Surendra
  7. AP Govt. should rethink about displacing huge population from fertile lands in the name of Capital Region Development Authority - Kirankumar Vissa ,Rythu Swarjya Vedika
  8. Peasants and Artisans Conference at Vidya Ashram on 15th & 16th November 2015 - Announcement by Vidya Ashram
  9. The reservation policy: its evolution, misuse, and shortcomings(in Urdu)- Lalit Kaul.

    T. Narayana Rao 
    Editor

भूमि अधिग्रहण असंवैधानिक घोषित होना चाहिए

वाराणसी में 15 - 16 नवम्बर को होने वाली किसान - कारीगर पंचायत की तैयारियाँ शुरू हो चुकी है।  वाराणसी के ग्रामीण इलाकों और कारीगर बस्तियों में ज्ञान पंचायतों का सिलसिला शुरू हो गया है। इन ज्ञान पंचायतों में  चर्चा के मुद्दों में भूमि अधिग्रहण और किसान और कारीगर के लिए पक्की और नियमित आय प्रमुख बन रहे  हैं ।  

किसान की माली हालत सुधरे और उसकी आमदनी भी संगठित क्षेत्र के कर्मचारी की तरह हो यह सवाल तो हमारी सरकारों के ज़ेहन में कभी आया ही नहीं है। हाँ, भूमि अधिग्रहण पर विगत चार - पांच वर्षों से उग्र विरोध और तेज़ बहस है।  पश्चिम बंगाल के सिंगुर और नंदीग्राम, उत्तर प्रदेश के टप्पल, भट्ठा-परसौल सहित देश के विभिन्न हिस्सों में शहर विकास, खनिज उद्यम और बिजली परियोजनाओं के लिए किसानों से ली जा रही ज़मीन के विरोध में उग्र किसान आंदोलन हुए हैं। भूमि अधिग्रहण कानून और उसमें कई संशोधन पर संसद में छिड़ी बहसें और किसान संगठनों के साथ इस कानून के राष्ट्रव्यापी विरोध ने किसान और किसानी को राजनैतिक पटल  पर ला खड़ा किया।  लेकिन अधिकांश बहस कुछ मुद्दों पर ही सीमित रह गई जैसे - किसान को मुआवज़ा बाजार रेट के चौगुना मिलना चाहिए, भूमि अधिग्रहण के लिए 80 फीसदी किसानों की सहमति हो, अधिग्रहित ज़मीन पर परियोजना न स्थापित होने पर किसान को ज़मीन वापस हो, विस्थापितों का पुनर्वास, नौकरी आदि।

भूमि अधिग्रहण का सारा बखेड़ा विकास के नाम पर खड़ा हुआ है। अब भला ऐसा कौन होगा जिसे विकास विरोधी होने का तमगा लेना पसंद आये।  इसलिए एक भी पार्टी,  संगठन या व्यक्ति ने भूमि अधिग्रहण के औचित्य पर सवाल खड़ा करना मुनासिब नहीं समझा।  कायदे से तो यह होना चाहिए था कि अभी तक उजाड़े गए किसानों, आदिवासियों, फूटपाथ पर रोटी कमाने वालों की स्थिति की समीक्षा की जाती और अध्ययन कर नीति-कानून बनाये जाते। ऐसा तो हुआ नहीं।  भूमि अधिग्रहण कानून वास्तव में देश के मुट्ठी भर अमीर लोगों के विकास के लिए है। टाटा , बिड़ला , अम्बानी और अडानी जैसों की फैक्ट्री खड़ी करने के लिए करोड़ों किसानों , आदिवासियों, पटरी के दुकानदारों से उनकी ज़मीन और जीविका छीनना और उसे विकास मानना शुद्ध अन्याय है ।

विकास की मंशा से काम किया गया होता तो ग्रामीण क्षेत्र का एक-एक नलकूप दुरुस्त होता, नहरें पूरी क्षमता से चलकर खेतों को हराभरा रखतीं , खाद, बीज, कीटनाशक, कृषि साधन सुलभ और सस्ता होता। किसानों को अपनी उपज का दाम पाने के लिए भटकना न पड़ता और उसे आत्महत्या न करनी पड़ती। किसान को गरीब बनाये रखने की नीतियों को खत्म कर के उसकी आय को संगठित क्षेत्र के कर्मचारी के बराबर करने से ही गाँव के लोगों के जीवन का अँधेरा दूर होगा।

हमारा मानना है कि ज़मीन पर तो किसानों का ही अधिकार होना चाहिए, किसी दूसरी एजेंसी का नहीं और  भूमि अधिग्रहण को संविधान विरोधी गतिविधि घोषित किया जाना चाहिए। वाराणसी की किसान कारीगर पंचायत में हम इस बात को पुरज़ोर ढंग से उठाएंगे और साथ ही इस बात को भी कि भारत के गांवों की खुशहाली से ही देश खुशहाल होगा और इसके लिए ऐसी नीति बनाई जाये  कि गाँव के हर घर में कम से कम एक पक्की और नियमित आय हो जो सरकारी कर्मचारी के बराबर हो। 

लक्ष्मण प्रसाद
वाराणसी जिला अध्यक्ष
भारतीय किसान यूनियन   

Wednesday, September 16, 2015

वाराणसी में किसान - कारीगर पंचायत 15 - 16 नवम्बर 2015


निमंत्रण/घोषणा

2014  के शुरू से विद्या आश्रम किसान - कारीगर पंचायतों का आयोजन कर रहा है। ये पंचायतें वास्तव में ऐसी ज्ञान पंचायतें हैं जिनमें लोकविद्या की दृष्टि से सबकी खुशहाली की सामाजिक पुनर्रचना पर चर्चा होती है तथा लोकविद्या-समाज में व्यापक एकता के रास्ते तलाशे जाते हैं। इन पंचायतों का मुख्य विषय यह होता है कि लोकविद्या-समाज की गरीबी कैसे दूर हो और असंगठित व संगठित क्षेत्र के बीच की गैर-बराबरी कैसे ख़त्म हो। लोकविद्या जन आंदोलन की यह मूल मान्यता है कि विश्वविद्यालयों में पढ़ाये जाने वाले ज्ञान - विज्ञान से यह गरीबी और गैर-बराबरी दूर होना संभव नहीं है, उलटे वास्तव में उस ज्ञान-विज्ञान ने इस गरीबी और गैर-बराबरी में इजाफा ही किया है। गरीबी और गैरबराबरी की मूल समस्याओं से मुकाबला लोग अपने ज्ञान के आधार पर ही कर सकते हैं। इसीलिए ये पंचायतें ज्ञान-पंचायतें हैं। इन पंचायतों में समाज में परिवर्तन के प्रति संवेदना रखने वाले वे सभी लोग शामिल होते हैं जो लोकविद्या और उसकी क्षमताओं को सम्मान की नज़र से देखते हैं। लोकविद्या-समाज के सभी अंगों से सक्रिय कार्यकर्ता  तथा विशेष कर किसान और कारीगर संगठनों के कार्यकर्ता व नेता इन पंचायतों में भाग लेते हैं।

इस वर्ष 15 - 16 नवम्बर की यह पंचायत एक ऐसी ज्ञान पंचायत है जो लोकविद्या के बल पर काम करने वाले सभी परिवारों के लिए सरकारी कर्मचारी जैसी पक्की और नियमित आय हो इस पर विचार करेगी , यह विचार समाज में प्रतिष्ठा पाए इसके रास्ते खोजेगी और राजनैतिक दलों तथा सरकारों पर इसके पक्ष में दबाव बनाने के लिए संगठित प्रयास की योजना बनाएगी।  

इस विषय पर लोकविद्या जन आंदोलन की ओर से एक पुस्तिका अगस्त 2014 में  प्रकाशित की गई है जो आंदोलन के प्रमुख स्थानों से प्राप्त की जा सकती है।  संपर्क पते नीचे दिए गए हैं।  पुस्तिका इंटरनेट पर हमारी वेबसाइट vidyaashram.org के प्रकाशन पृष्ठ पर उपलब्ध है। शीर्षक है - लोकविद्या जन आंदोलन पुस्तकमाला -7  " सभी की आय पक्की व नियमित हो।  और यह आय सरकारी कर्मचारी के बराबर हो। " यह पुस्तिका उर्दू , तेलुगु , बंगाली मराठी और अंग्रेज़ी में भी उपलब्ध है। ये सभी आश्रम की वेबसाइट पर उपलब्ध हैं। 

  1.     दिलीप कुमार 'दिली , वाराणसी (9452824380 ), vidyaashram@gmail.com
  2.     लक्ष्मण प्रसाद, वाराणसी (9026219913 ), karigarnazaria@gmail.com
  3.     संजीव दाजी, इंदौर (9926426858 ), sanjeev.kirtane48@gmail.com
  4.     माचेर्ला मोहन राव, चिराला (9441041266 ), lvssartisans@yahoo.co.in
  5.     बी कृष्णराजुलु, हैदराबाद (9866139091), kkbandi@gmail.com
  6.     गिरीश सहस्रबुद्धे, नागपुर (9422559348 ), irigleen@gmail.com
  7.     जितेन नंदी, कोलकाता (03324913666 ), manthansamayiki@gmail.com
  8.     सुनील कुमार मंडल, दरभंगा, (9934038018 ), manavsunil@gmail.com
  9.     अवधेश कुमार, सिंगरौली (9425013524 ), awadhesh.sls@gmail.com
  10.     एकता सिंह, सिंगरौली ( 8090055505 ), anmolangel47@gmail.com

अक्टूबर में पंचायत के स्थल का ऐलान कर दिया जायेगा। 
आप इस पंचायत में आमंत्रित हैं। अवश्य समय निकालें और आएं।  उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र , तेलंगाना , आंध्र प्रदेश और बिहार से लोकविद्या जन आंदोलन , किसान संगठनों और कारीगर संगठनों के कार्यकर्त्ता  भाग लेने आएंगे।

विद्या आश्रम 

Friday, September 4, 2015

The Patidar Agitation



THE RECENT AGITATIONS OF FARMING AND TRADING COMMUNITIES

The Patel agitation (based on an article written by Prof Ghanshyam Shah)

The vast and unprecedented mobilisation of young, middle-class Patels, or Patidars, as seen at the Kranti Rally on August 25, is a symptom of the unrest simmering in a globalised Gujarat. Patidars from all parts of the state came together to demand that the government either extend OBC reservations to Patidars or abolish the caste-based reservation system altogether. It should be noted that the Patidars were the first community in India to launch anti-reservation movements against the Dalits and Adivasis, and later against Gujarat’s OBCs, in 1981 and 1985. Later, community leaders, under the guidance of the RSS and VHP, shrewdly diverted the agitation, so it morphed into one against Muslims. Non-resident Gujaratis who live abroad have also extended moral and material support, much as they did to the Sangh Parivar’s Hindutva agenda.

The upsurge comprises the well-off and dominant Leuva and Kadva Patidars. They constitute around 12 per cent of the state’s population and are the single-largest community among rich and middle-class peasants. Since the last quarter of the 19th century, well-off Patidars have been investing their agricultural surpluses in business, industry and also in skill development. High rates of migration in the community, first to Africa and later to the UK and the US, have added to their prosperity. However, in urban areas, except for a few well-established professionals and entrepreneurs, the majority are white- or blue-collar employees, or self-employed or casual, skilled labourers in textile or diamond factories. The diamond industry has been a mainstay of the community. But for the last several months, the industry has been in deep crisis. Several units have closed down, and a large number of diamond workers have been retrenched, which has contributed to the current unrest in the Patidar community.

Similarly, though advances in irrigation have meant that agricultural growth in Gujarat over the last decade has been high at around 8 per cent per annum, this growth has not been inclusive. Small and marginal farmers have been left behind, and the head of every third Patidar household is a small and marginal farmer, and/ or a landless labourer. He grapples with the constant tension of high aspirations and wretched living conditions. Poor farmers don’t have enough resources to invest in farming and incur debt. The poor have desperately tried to get non-farm employment in nearby urban areas and dream of joining the urban middle class. But urban growth, though impressive, has been unable to absorb and accommodate these rising aspirations. It is true that economic growth, largely in the manufacturing sector, is higher than in many other states. But the quality of available employment does not meet the expectations of young people. The growth in employment comes largely from the informal sector, where there is no social security. Wages in Gujarat are lower than in most other states. Even in the formal sector, more often than not, employment is casual or contractual. Insecurity haunts most young employees. In such a situation, government employment is perceived by frustrated young Patidars as the only secure and dignified position available. (emphasis added)



Gujjar Agitation(extracted from Wikipedia)
Gujjars(Gurjar)— a farming and trading community— are classified by the government as an "Other Backward Class". They are part of the caste system that do not face as much exclusion or discrimination in society. The Gujjar community feels it has been economically and educationally left behind and it wants to be reclassified as a Scheduled Tribe. They demand scheduled tribe status so that they can qualify for government jobs and state college seats reserved solely for such groups.
Violence erupted in the state of Rajasthan in India on 23 May 2008 when police fired on protesters belonging to the Gujjar caste who were demanding a lower ST status,instead of their current, higher OBC (Other Backward Class) status. On 24 May, the army was called in to help calm the violence as another 15 people were killed when police shot at a mob protesters trying to torch a police station in Sikandra. Thousands of protesters blocked a rail route between Delhi and Mumbai. Highways had also been blocked, and state authorities cancelled many buses.
Getting almost no from government for their 5% quota demand,Gujjars again went onto agitation in 2010.They jammed trains on Jaipur-Delhi and Mumbai-Delhi route.Unlike 2008 unrest, there was no violence in 2010. In May 2015, a similar protest was organized and over 1000s of Gujjars blocked railway tracks halting train traffic.


Jat Agitation(extracted from Wikipedia)
The All-India Jat Mahasabha held a convention in Delhi on 9 March 2007 under the chairmanship of its president, ChaudharyDara Singh. One of the main issues taken up at the convention, which was attended by several Central and State Ministers and MPs, was reservation for the Jats in State and Central Government jobs. The Jats are a community which has its origins in pastoralism. The Jats are a traditionally agricultural community in North India and Pakistan, primarily of Hindu, Muslim and Sikh faiths,and live mostly in the States of Haryana, Punjab, rajasthan, Delhi and Western Uttar Pradesh and the Pakistani provinces of Punjab and Sindh.
Akhil Bhartiya Jaat Aarakshan Samiti has recently warned of lodging the "biggest ever agitation of the century in North India" if the promise of reservation was not fulfilled towards the community.
Lessons from these agitations
The common demand thrown up by ALL these agitations, is an assured access for their communities to secured employment and wages. The ONLY way possible, it appears to all of them, is through reservations in Education and Government employment.
The idea of 'backwardness'
It is clear from these agitations why these sections of farmers and traders consider themselves as 'backward' relative to the urbanised/educated/salaried/industry-based section of the population.
The agitating communities constitute large sections of Lokavidya Samaj (though they don't yet call themselves that). Those of them who are relatively well off (i.e. shifted their primary economic and livelihood activity to urban and industrialised centres and/or foreign lands) and those who hold important political positions in various parties, are pricisely those who have 'migrated' from Lokavidya Samaj to Paschimkrit (Urbanised) Samaj by virtue of their 'success' in modern education, industry or market activity. The vast majority, however, continue to primarily depend on 'traditional' (Lokavidya-based) livelihoods find that they are not able to meet ordinary life aspirations ( a number of farmers in Gujarat and Haryana have committed suicide due to indebtedness)- and very specifically an assured income to lead a nominally dignified ordinary life.

There has been a debate on the definition of 'backwardness' for quite some time now. Many have suggested that economic and not social criteria(caste) be used to determine backwardness and some have used an intersection of the two (creamy layer concept) to arrive of who exactly are relatively backward and in need of special assistance(reservation) in education and employment. Even after 60 years of independence, growth of modern education and employment and implementation of a policy of reservations, we find a vast section of people seeing themselves as backward and deserving of special assistance(reservations etc). This section now includes a number of communities hitherto considered as the 'rural rich' now also ('unashamedly') demanding a 'backward' tag and seeking special assistance(reservation) through a reclassification/ recategorisation of the backward classes and their inclusion in that list. However, the current criteria for determination of backwardness; will not permit the classification of these communities under backward classes/castes or scheduled castes. Moreover, the cap on percentage of population permissible under all reserved categories viz 50% would lead inevitably into a conflict between various 'backward' caste/class groups.

The reality(and what is easily perceivable without resort to historical facts) is that ALL sections/communities/castes that are involved in 'traditional' productive , trade and/or service activity i.e dependent on Lokavidya-based livelihoods for their ordinary life needs(constituting more than 80% of the poplution) are relatively backward and disadvantaged compared to the urban/industrial/ educated/ salaried class of people(constituting less than 20% of the population).

We also notice that every such section/community has been sustaining itself under equally debilitating and deteriorating conditions over the past century( and severly accentuated during the past two decades); consider themselves to be relatively backward largely because such livelihoods have become unremunerative and leading to indebtedness and loss of 'dignity'.

That is, the perception of these sections/communities from the outside and from the inside is that they are 'backward' and forced to lead undignified lives (or commit suicide). This is because of the dominant hierarchy in the perception of knowledge. All knowledge/skills acquired through modern education(which is capable by definition i.e merit criteria, of sustaining only a small section of the population while destroying the natural environment) is considered prima facie to be 'superior' and therefore, more desirable, to all other knowledge/skills (which exists with the people i.e Lokavidya which has been sustaining them through ages while protecting the natural environment) and is deemed to be 'backward'( members of these sections/communities are all classified as 'uneducated' and by deduction, 'unskilled' and capable only of manual labour as coolies by modern economics and polity).

The resolution of the current conflict in society can happen if there is a change in perception about the hierarchy of knowledge. Any knowledge that is capable of sustaining dignified ordinary life and livelihood is legitimate and should not be considered backward, inferior or outdated. In today's context, this means that the definition of what constitutes legitimate knowledge must be reversed in favour of Lokavidya Samaj using a knowledge perspective. Instead of asking for global reservation the demand should be for global recognition of all knowledge/skill streams as equal and for equal remuneration / wages/pay for all practitioners of these knowledge/skill streams. The vast majority of people are engaged in productive/service activities and strive to lead dignified ordinary lives and the demand for equal pay for all such labour would transcend the need for special assistance in education and /or government employment.


The 'threat' put forth by the Patel agitation i.e. (i) withdrawal of money from banks (ii) stop supply of milk and vegetables to the urban market; seem to indicate that
(i) the accumulation and control of capital(which is generated by these sections/communities) in the hands of Finance Managers(of the urban capitalist economy), which forms the basis of political power of the ruling classes, is being challenged through a new form of 'non-co-operation'.
(ii) the corollary of non-support to the urban market means that they have an idea to strengthen local market activity (as they have NOT stated that production will be regulated or stopped), which means economic control is being wrested back in favour of local areas i.e money generated locally will remain local . In political terms this means "more power to the panchayats".
If the other sections/communities, including those categorised as SCs and STs, of Lokavidya Samaj have to lend support, the 'terms of trade' in the local market have to change and become more locally-favourable leading to the possibility of sustained unity through a recasting of the relationship between different sections of Lokavidya Samaj.
This would be in line with the perspective of Lokavidya Jan Andolan and articulated in the Multai resolution of 2014 that:
(i) it is the fundmental right of every individual to live a life of dignity based on his/her knowledge/skills
(ii) everyone gets a pay at least as much as a Government employee irrespective of what job/work she/he does.

Krishnarajulu
August 2015