Monday, June 1, 2015

भूमि अधिग्रहण का भूत

केंद्र सरकार अब भूमि अधिग्रहण पर एक तीसरे अध्यादेश की बात कर रही है।  सारी कवायद एक ऐसा कानून बनाने की है जो अभी तक की तुलना में और बहुत बड़े पैमाने पर किसानों से ज़मीनें छीनना वैध बना दे।  किसानों के हर तरह के संगठन इस कवायद के खिलाफ हैं। जैसे भारतीय किसान यूनियन का कहना है कि ज़मीनों के लिए यह अलग से कानून किसलिए ? किसान ज़मीन बेचना चाहेगा तो बेचेगा और उसका दाम लगाएगा और खरीदने वाले को मंज़ूर होगा तो खरीदेगा। 1894 में अंग्रेज़ों ने भूमि अधिग्रहण का एक कानून बनाकर किसानों की ज़मीनें छीनने का एक ज़बरदस्त औजार तैयार किया, जो आज़ादी के बाद की हर सरकार को भी बहुत पसंद आया।  लोकविद्या का दृष्टिकोण कहता है कि भूमि अधिग्रहण की बात ही नाज़ायज़ है।  इस पर कोई कानून होना ही नहीं चाहिए।  लेकिन यह बात बहस में नहीं है।  कारण बहुत बड़े हैं लेकिन अब उनका समय पूरा हो रहा है।

यूरोप में औद्योगिक क्रांति के बाद कुछ दशकों में यह विचार पक्का होता चला गया कि भविष्य का समाज एक औद्योगिक समाज होना है और यह कि उस समाज में किसान किसी वर्ग या समुदाय के रूप में नहीं होंगे। यही बुर्जुआ विचार है और यही मार्क्सवादी विचार है। इस विचार का दबदबा वहां से शुरू हो कर पूरे विश्व में यूरोपीय साम्राज्यवाद के साथ तथा कम्युनिस्ट क्रांतियों के साथ फैलता चला गया और आज भी कायम है। पूरा पढ़ा-लिखा वर्ग भावी समाज में किसान की कोई सक्रिय और रचनात्मक भूमिका नहीं देखता।  सभी जानते हैं कि महात्मा गांधी का विचार एकदम अलग था।  वे एक न्यायसंगत और शोषण मुक्त समाज की कल्पना में किसान और गांव को धुरी के रूप में देखते थे। आज के सामाजिक विचारों के दो सबसे बड़े खेमे यही हैं।  एक में आधुनिक उद्योग को धुरी के रूप में देखा जाता है और दूसरे में किसान और गांव की प्राथमिकताएं जायज़ मानी जाती हैं।

हमारी शिकायत संगठनकर्ताओं और आंदोलनकर्ताओं से है कि वे किसान, गांव और खेती के बचाव की बातों में फंस जाते हैं और औद्योगिक दुनिया की कसौटियों और पैमानों के अंतर्गत ही इस बचाव को अंजाम देना चाहते हैं।  वे किसान या गांव को परिवर्तन और पुनर्निर्माण में धुरी के रूप में नहीं देख पा रहे हैं। इसीलिए अधिग्रहण के विचार को चुनौती न देकर, वे कानून क्या हो इसकी बहस में फंसे रहते हैं , मुआवज़ा, पुनर्वसन, सहमति , सिंचित भूमि जैसी बातों में फंसे रहते हैं।  हम जानते हैं कि सरकार भूमि अधिग्रहण के समय अपने खुद के बनाये कानूनों का पालन बिलकुल नहीं करती है, मध्य प्रदेश, उड़ीसा , आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश , वास्तव में सभी जगह यही हो रहा है।  तो बहस किस बात की है ? बहस लायक अगर कोई बात है तो यह कि अधिग्रहण का विचार गलत है। अधिग्रहण को सरकार की नीतियों में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।  बहस लायक अगर कुछ है तो वह यह कि देश के भविष्य में, लोगों की खुशहाली में महात्मा गांधी के विचारों की कोई जगह होनी है या नहीं।

किसान और गांव की प्राथमिकता का अर्थ है किसान के पास, गांव में जो विद्या है, ज्ञान , हुनर , दक्षताएं , कौशल और दर्शन है, समाज और प्रकृति का दर्शन है , जायज़ और नाजायज़ की जो अवधारणाएं हैं , संगठन और परिवर्तन के जो विचार हैं, इस सब को मान्यता देना और आधुनिक शिक्षा से अधिक और ऊँचा स्थान नहीं, तो कम से कम उसके बराबर का स्थान देना। गांधी के विचारों को आज की दुनिया में बहस में कैसे लाना यह सामाजिक कार्यकर्त्ता के सामने की सबसे बड़ी चुनौती है।  हमारा अनुभव और हमारा सुझाव यह है कि कार्यकर्ता अपने संगठन और संघर्ष के कार्यों में ज्ञान की भाषा का इस्तेमाल करें - उदाहरण के लिए यह न कहें कि ज़मीन ले ली गयी तो किसान क्या करेगा, उसे और कोई काम नहीं आता, बल्कि यह कहें कि किसान खेती का ज्ञानी है इसलिए उसकी ज़मीन नहीं ली जानी चाहिए।  रोज़गार की सरकारी नीति की बुनियाद इसी में होनी चाहिए कि जिसके पास जो ज्ञान है और जो काम वह पहले से कर रहा है उसके बल पर उसकी जीवन निर्वाह की आमदनी पक्की होनी चाहिए और इसमें ज्ञान - ज्ञान में फर्क नहीं किया जाना चाहिए।  आधुनिक शिक्षा और किसान के ज्ञान में ऊँच - नीच का हिसाब बनाना गलत और अन्यायकारी है, यह बंद होना चाहिए।  

विद्या आश्रम