Friday, December 30, 2016

आमंत्रण : कलाकारों की ज्ञान-पंचायत

आमंत्रण 
कलाकारों की ज्ञान पंचायत 
8 - 9 - 10 फरवरी 2017 
वैजापुर और औरंगाबाद, महाराष्ट्र 

सभी लोक-कलाकारों को सरकारी कर्मचारी के 
बराबर और उसके जैसी पक्की व नियमित आय हो।
  
यह लोक-कलाकारों के लिये समाज के उच्च-शिक्षित लोगों के बराबर 
सम्मान और मूल्य हासिल करने का ज्ञान आंदोलन है। 

       समाज में लोकविद्या पर आधारित कलाकारों की बहुत बड़ी संख्या है।  इनमें अनेक उच्च स्तर के कलाकार, गायक, वादक, कथाकार, गीतकार, नर्तक, अभिनेता, चित्रकार, सिनेमा कलाकार हैं जिन्होंने औपचारिक शिक्षा अथवा संस्थागत शिक्षा प्राप्त नहीं की है। इनका ज्ञान लोकविद्या है। अपनी-अपनी कलाओं में माहिर ये लोग समाज की संस्कृति और सभ्यता के निर्माण में लगे महत्वपूर्ण घटक हैं।  लेकिन आज सूचना-मीडिया-प्रौद्योगिकी-पूँजी से बने बाजार में इन कलाकारों को खूब ठगा और लूटा जा रहा है। लोककला को खूब पसंद किया जा रहा है लेकिन लोक-कलाकारों की सामाजिक-आर्थिक  स्थिति से आँखे मूँद ली गई हैं, सरकारें अपनी कोई ज़िम्मेदारी नहीं निभा रही हैं।
      इस अर्थ में लोक-कलाकारों की हालत लोकविद्या-समाज के अन्य घटकों  - किसान, कारीगर , ठेला-पटरी दुकानदारों  और आदिवासी समाजों से अलग नहीं है।  उत्तर प्रदेश में हाल ही में हुई किसान कारीगर पंचायतों में किसान, कारीगर और आदिवासी समाजों ने अपने लिए सरकारी कर्मचारी के बराबर, पक्की और नियमित आय की आवाज़ उठाई है। इन ज्ञान-पंचायतों ने यह दावा भी पेश किया है कि इन समाजों के ज्ञान  को  यानि लोकविद्या को विश्वविद्यालय के बराबर का दर्जा मिलना चाहिये। 
      इसी कड़ी में नवम्बर 2016 में महाराष्ट्र के औरंगाबाद में कई स्थानों पर ज्ञान पंचायतें हुईं  (देखें इसी ब्लॉग  पर 24 नवम्बर का पोस्ट ) जिनमें इस बात को केंद्र में लाया गया कि किसान-कारीगर समाजों की इस मांग के साथ कलाकारों को अपने ज्ञान का दावा पेश करना चाहिए और एक पक्की, नियमित और सरकारी कर्मचारी के बराबर आय की मांग करनी चाहिये।  इन ज्ञान-पंचायतों में लिए गए फैसले के अनुसार महाराष्ट्र में  8 , 9, 10  फरवरी 2017 को वैजापुर तथा औरंगाबाद में कलाकारों की एक बड़ी ज्ञान-पंचायत का आयोजन होगा। 
वैजापुर तथा औरंगाबाद की ज्ञान-पंचायतें कलाकारों के ज्ञान-आंदोलन का आगाज़ करती हैं ।  
इनका ज्ञान-आंदोलन यह मनाता है कि -
  • कलाकार-समाज के लोग बेहद संवेदनशील और सक्रिय व्यक्ति होते हैं। 
  • लोक-कलाकार अपनी कला के ज्ञान को कई वर्षों में और अनेक संघर्षों से गुजर कर प्राप्त करते हैं और इसे सतत निखारते हैं । ज्ञान प्राप्ति में इनकी तपस्या उच्च-शिक्षित लोगों से कम नहीं है।  
  • इस ज्ञान के बल पर वे अपनी जीविका चलाते हैं और उनका महत्वपूर्ण योगदान यह है कि वे समाज को सतत दार्शनिक और आध्यात्मिक ऊँचाइयों की ओर  ले जाने का कार्य करते हैं। 
  • ये समाज में फैले पाखंड को उजागर करते हैं और समाज की मानवीय चेतना को ज़िंदा रखते हैं।  
  • उन्हें कलाकार्य की अनुभूति, प्रेरणा, सम्प्रेषण और निखार के लिए स्कूल-कालेज की शिक्षा की दरकार नहीं होती।  
  • समाज में तरह-तरह की कलाओं में माहिर  ये समुदाय छोटे-छोटे समूहों में लोगों के बीच जा कर विभिन्न उत्सवों और अवसरों पर अपनी कला के मार्फ़त जीवन के दर्शन और मूल्यों के नवीनीकरण का कार्य करते रहते हैं।  
  • इन सबके चलते इन समाजों के ज्ञान (लोकविद्या) को विश्वविद्यालय के ज्ञान के बराबर की प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए और इनकी आय भी उतनी ही होनी चाहिए जितनी विश्वविद्यालय से पढ़े-लिखे  लोगों को सरकारी सेवाओं से होती है। 
       वैजापुर तथा औरंगाबाद में होने जा रही कलाकारों की ज्ञान-पंचायतों में यही दावा पेश करना है।  हम हर विधा के कलाकारों और कला प्रेमियों से आवाहन करते हैं कि वे इस ज्ञान-पंचायत में आयें और इस आवाज़ को बुलंद करने में सहभागी हों। 

      वैजापुर तथा औरंगाबाद की इस ज्ञान-पंचायत में किसान, कारीगर और आदिवासी समाज भी शामिल होकर कलाकारों की आवाज़ को बुलंद करेंगे।  महाराष्ट्र के अलावा उत्तर प्रदेश, बंगाल, मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्णाटक के लोकविद्या-समाज के लोग भी इस ज्ञान-पंचायत में शामिल होंगे।  

     इस ज्ञान-पंचायत की एक तैयारी बैठक 7 जनवरी 2017 को वैजापुर में और  8  जनवरी 2017  को औरंगाबाद में होगी।   इन्हीं बैठकों  में 8 -10 फरवरी 2017 की तीन दिवसीय ज्ञान-पंचायत के कार्यक्रम को अंतिम रूप दिया जायेगा।  इन तैयारी बैठकों में आप आमंत्रित हैं। अधिक जानकारी के लिए आप निम्नलिखित व्यक्तियों से संपर्क कर सकते हैं।  

संजीव दाजी, औरंगाबाद  (9926426858),    गिरीश सहस्रबुद्धे, नागपुर (9422559348)
एकनाथ राव त्रिभुवन, वैजापुर (9422209475),   आबा साहेब जेजुरकर, वैजापुर (9420813211)           
प्रकाश वाघमारे, औरंगाबाद  (7588349313) 
निर्मला देवरे, इंदौर (9926606673) , घनश्याम भाबर, इंदौर (8120500530 )  
दिलीप कुमार 'दिली', वाराणसी (9452824380 ), जितेन नंदी, कोलकाता (8420134201 )                              टी.नारायण राव, हैदराबाद (9849389550 )                                                                        

Wednesday, December 14, 2016

मुंडेरवां में किसान शहीद मेला 11 दिसंबर 2016

उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले के पास मुंडेरवां में हर वर्ष शहीद किसानों की याद में मेला लगता है। यह मेला इस याद को ताज़ा रखता है कि देश के किसान को अभी तक न्याय नहीं मिला है। वर्ष 2002 में बस्ती मंडल के किसानों ने भारतीय किसान यूनियन (अराजनीतिक )के नेता दीवानचंद जी के नेतृत्व में गन्ने के मूल्य को हासिल करने का आंदोलन छेड़ा था।  इस संघर्ष में पुलिस की गोली से तीन किसान शहीद हो गए थे।
 
किसानों को संबोधित करते किसान नेता चौधरी दीवानचंद  

इस वर्ष भी इस मेले में हज़ारों किसान शामिल हुये। पूर्वी उत्तर प्रदेश के बस्ती, गोरखपुर, देवीपाटन, फैज़ाबाद, वाराणसी, आजमगढ़ मंडल के अध्यक्षों ने अपनी बात रखी और तमाम ज़िलों और तहसीलों के पदाधिकारियों ने भी अपनी बात रखी। नोटबंदी, धान का मूल्य और क्रय केंद्र, गन्ने के मूल्य का भुगतान , चीनी मिल चलवाने  आदि मुद्दे चर्चा में रहे। 
शहीद किसानों की याद में जुटे हज़ारों किसान 

इसी अवसर पर दिलीप कुमार दिली की पहल पर भारतीय किसान  यूनियन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष दीवानचंद चौधरी की अध्यक्षता में एक ज्ञान-पंचायत का आयोजन हुआ।  इसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों के अध्यक्ष शामिल रहे।  प्रमुख चर्चा इस बात पर रही कि किसान के घर में पक्की आय यही किसान के दर्द को मिटाने का एकमात्र तरीका है। पक्की आय होगी तो बिजली, क़र्ज़ , मूल्य, खाद, बीज, पानी, प्राकृतिक आपदा, सभी के संकट से निपटने के लिए हर बार किसान को संवेदनहीन सरकारों की ओर ताकने की मज़बूरी नहीं होगी।  पक्की आय तय करने का स्वतंत्र भारत में सर्वमान्य एक ही तरीका है -- राष्ट्रीय वेतन आयोग द्वारा निर्धारित सरकारी कर्मचारियों की आय।  यही आय हर किसान परिवार को चाहिए।  इस मांग का आधार सच्चा, तर्कसंगत और व्यापक है।  इसके लिए भारतीय किसान यूनियन लोकविद्या के बल पर काम करने वाले सभी समुदायों और उनके संगठनों को साथ आने का आवाहन करता है।  वे सभी ऐसी ही पक्की व नियमित आय का हक़ रखते हैं। 

यह भी सोचा गया कि हर ज़िले में ज्ञान-पंचायतें बननी चाहिये और लोकविद्या समाज के हर परिवार के लिए सरकारी कर्मचारी जैसी पक्की और नियमित आय की मांग बुलंद की जानी चाहिए। दिलीप कुमार दिली और लक्ष्मण प्रसाद ने वाराणसी मंडल के ज़िलों से यह शुरुआत कर दी है।  

मुंडेरवां में बनी ज्ञान-पंचायत की प्रतीक मड़ई के सामने किसान नेता चौधरी दीवानचंद, 
सुरेश यादव, प्रदेश सचिव ,  लक्ष्मण प्रसाद, वाराणसी ज़िला अध्यक्ष  

15 सूत्री मांगपत्र पर सहमति का फैसला देते किसान 


लोकविद्या जन आंदोलन, विद्या आश्रम, वाराणसी 

नोटबंदी : चंदौली में किसानों की ज्ञान पंचायत

22 नवम्बर 2016  को उत्तर प्रदेश के चंदौली ज़िले के ग्राम मनहारी में किसानों की ज्ञान-पंचायत लगी।  नोटबंदी से परेशान किसान, कारीगर, छोटे दुकानदार, आदिवासी और महिलाओं की खुशहाली के लिए आयोजित इस ज्ञान-पंचायत की लोकविद्या के बोल गा कर शुरुआत हुई।  भारतीय किसान यूनियन के चंदौली ज़िले के अध्यक्ष जीतेन्द्र प्रताप तिवारी ने विषय को पंचायत के सामने रखा और इस विषय पर राम अवतार सिंह, पारस तिवारी, जमुना चौबे , सुल्तान अहमद , शम्भू गुप्ता, त्रिभुवन , लक्ष्मण प्रसाद मौर्या दिलीप कुमार दिली ने अपने विचार रखे।  अंत में सर्व सहमति से एक पत्र लिख कर इस ज्ञान पंचायत के विचार से प्रधान मंत्रीजी को अवगत कराने का फैसला हुआ।  यह पत्र नीचे दिया जा रहा है।  यही पत्र ज्ञापन के रूप में स्थानीय प्रेस को दिया गया।
नोटबंदी पर पंचायत से निकलकर आया दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है। 

ज्ञान पंचायत, चंदौली द्वारा जारी ज्ञापन 

माननीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदीजी                                                             22  नवम्बर 2016
भारत सरकार , नई दिल्ली
द्वारा, जिला अधिकारी, चंदौली (उ. प्र.)

विषय : नोटबंदी से परेशान किसान, कारीगर छोटे दुकानदार, आदिवासी, एवं महिलाओं की खुशहाली के सम्बन्ध में।

महोदय,
भारतीय किसान यूनियन आपको लिखित अवगत कराती है कि 8 नवम्बर 2016 से आपने जो नोटबंदी की है उससे किसान, कारीगर, छोटे दुकानदार, आदिवासी, एवं महिलायें बेहद परेशान हैं।  फिर भी आपको धन्यवाद् देते हुए अपेक्षा करते हैं कि अब तक इन समाजों के ज्ञान व काम का लूटा हुआ धन सरकारी खजाने में आ रहा है।  आज़ादी के 70 सालों तक यही लोकविद्या समाज के लोग इस धन से वंचित रहे हैं।  इनके खुशहाली का रास्ता हर ग्रामीण परिवार में एक पक्की व नियमित आमदनी सरकारी कर्मचारी की तरह होने से खुलता है।

भारतीय किसान यूनियन (अराजनीतिक) ज़िला चंदौली की मासिक पंचायत 21 नवम्बर 2016 दिन सोमवार को मनिहारा सरोवर अवधूत भगवान राम के स्थान पर हुई।  जिसमें सर्व सहमति से निर्णय लिया गया कि नोटबंदी से आया धन सरकारी है।  आज़ादी के बाद आज किसान, कारीगर, छोटे दुकानदार, आदिवासी, एवं महिलायें इस धन के अधिकारी हैं।  इसलिए लोकविद्या समाज के घर में पक्की व नियमित आमदनी सरकारी कर्मचारी की तरह होनी होगी।  काला धन को सब में बराबर बराबर बाँटने पर ही सफ़ेद धन का मतलब निकालता है।
अतः माननीय प्रधान मंत्री जी से निवेदन है कि उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए सबकी खुशहाली के लिए सबकी नियमित आय करके किसान, कारीगर, छोटे दुकानदार, आदिवासी, एवं महिलाओं के मन की बात को लागू करें और भारतीय किसान यूनियन (अराजनीतिक) को लिखित अवगत करायें ।

निवेदक
जीतेन्द्र तिवारी ज़िला अध्यक्ष चंदौली,
सुल्तान अहमद , ज़िला मंत्री ,
दिलीप कुमार दिली वाराणसी मंडल अध्यक्ष

Wednesday, December 7, 2016

कलाकारों का आवाहन

वैजापुर, महाराष्ट्र (शिरडी के पास) में कलाकारों की ज्ञान पंचायत 
आमंत्रण/घोषणा 
21 वीं  सदी में ज्ञान के आधार पर बनाई जा रही दुनिया में लोकविद्या (समाज में बसे ज्ञान) का बेतहाशा दोहन करने की व्यवस्था बनाई जा रही है।  दुनिया भर में लोकविद्या के बल पर जीनेवालों में हाहाकार मचा हुआ है। इस हाहाकार को सत्य वाणी कौन दें ?
नीचे दी गयी कविता मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में कलाकारों से हुई वार्ताओं का हिस्सा रही और उन्हें ज्ञान-पंचायतों में आने की अपील करती है।  8 से 10 फरवरी 2017 को महाराष्ट्र में शिरडी के पास वैजापुर में कलाकारों की एक बहुआयामी ज्ञान-पंचायत का आयोजन है।  इसे उसका निमंत्रण मानें।
लोकविद्या-समाज का ज्ञान-आंदोलन कलाकार-समाज को यह पुकार कर कहता है कि  ---


कलाकार!  तुम दार्शनिक!
मानवीय चेतना को ज़िंदा रखने वाले,
पाखंड को उजागर करने वाले,
मूल्यों का सतत नवीनीकरण करते, 
सत्य का निर्माण करने वाले,
कलाकार ! 
क्या आज भी लोगों के नज़दीक हो तुम ? 

हवा का झोंका पत्तों को उड़ा ले गया, 
ज्ञान-क्षेत्र में आया बवंडर तुम्हें उड़ा ले गया?  
जब विश्वविद्यालय का पक्ष-विपक्ष एक ही दिखाई दे रहे 
लोकदृष्टि का नजरिया तुम्हें ढूंढ रहा। 
कलाकार!  तुम दार्शनिक! 
क्या लोगों के नज़दीक हो तुम ?

कलाकार ! कहाँ हो तुम ?
कही अहम् को बढ़ने के मार्ग तो नहीं गढ़ रहे ?
सृजन छोड़ सृजनकर्ता के नाम के पीछे तो नहीं ?
नहीं! नहीं ! यकीं नहीं होता है। 

दर्शक को ज्ञानी मान 
उसकी प्रतिक्रिया पर गंभीर होने वाले, 
ज्ञान मार्गी तुम ,
ज्ञान को सामाजिक गुण मानने वाले,
उत्सर्ग की स्थिति को प्राप्त कर 
लोगों को मुक्ति का मार्ग दिखाने वाले,
कलाकार ! तुम कहाँ हो ? 

अरे... हो sss   नहीं!  नहीं !  
ओ sss  फ़क़ीर, सच कहते हो 
इस बवंडर में  
किंकर्तव्यविमूढ़ , हतप्रभ से हो 
हम भी गुड़के , गुलाटी खाये 
लेकिन, अपनी गाँठ के ज्ञान को टटोलते  
तुम्हारी हांक से नींद से जागते 
हम आ रहे...... 

सुनो, अरे,  किसानों , कारीगरों,
ओ आदिवासियों और छोटे दुकानदारों ,
और सबके परिवारों की ज्ञानी महिलाओं 
आप ही है लोकविद्या के मालिक 
और लोकहित के पारखी ,
हमारी चित्रकला, नाट्य, अभिनय, 
गीत, संगीत और लेखन को 
बेहिचक लोकहित की तराजू में तौलिये।  

सही है कि ज्ञान क्षेत्र में भूचाल आया है 
लेकिन क्या अबकी बार भी 
तुम्हारे ज्ञान संसार को समझने में 
कलाकार चूक कर रहे हैं ?
फैसला आप करेंगे ,
हम आपकी ज्ञान-पंचायत में ज़रूर आयेंगे।  

--संजीव दाजी  

Sunday, November 27, 2016

Demonetization-its impact on Lokavidya livelihoods and lessons for Lokavidya Samaj


The demonetization of high value currency, which was implemented from the 9th of November, has had a widespread and telling effect on Lokavidya livelihoods and members of Lokavidya Samaj. While there has been widespread support for the idea and intent of demonetization viz the rooting out of hoarded black and white money and an indirect strike against ‘terror funding’, there have been many complaints regarding the way it was implemented, the seeming lack of adequate planning and in anticipating the hardships caused to citizens due to the non-availability of adequate small currency. While all this may be so; it is imperative to examine the effects of this move on Lokavidya livelihoods.

A majority of members of Lokavidya Samaj are greatly dependent on capital inputs , as small cash loans, at every stage of their livelihood activities. Most of these financial inputs come from local money lenders at usurious rates. Cash flow, which is equally crucial to continuation of the livelihood activity, is determined by local market conditions, which often push the producer into a debt trap. Accumulation of surplus (in the form of cash -in- hand) , as a result of marketing their produce/services and after debt servicing and meeting daily-life needs, is almost non-existent. In short, a majority of Lokavidya livelihoods are in a precarious position and almost wholly dependent on cash available on a day-to-day basis.

One large scale effect of demonetization has been the non-availability of small currency to almost all sections of society. While those connected with the banking system have been looking to banks to meet their needs of spendable cash, the plight of a vast number of members of Lokavidya Samaj has become alarming. Many have no work to do, because their local lenders and/or paymasters do not have liquid cash(small currency) . This ‘drying up’ of local sources of cash, much like the non-availability of water during drought, may soon lead to the ‘withering away’ of these livelihoods and lives dependent on them.

While the situation may improve in the coming days with the availability of fresh stocks of small currency; the lessons, from this experience, for Lokavidya Samaj are important to understand. We have been focussing on the negative impact of the terms-of-trade (pricing of produce and labour) in the current market situation and demanding more equitable terms/remuneration based on equality between the different (forms of) knowledge content underlying production and service, by the Samaj. However, what has emerged from the current exercise of demonetization, is that the flow of small and adequate currency at the local level has had a telling effect on the sustenance of Lokavidya livelihoods and consequently on the lives of members of the Samaj. The demand for the Right to a dignified life now gets hinged on this new factor of cash flow. He who controls this cash flow wields the sword!

The over-arching spread and reach of International Finance Capital, which we know has determined the course of market-driven capitalism and path of development these past few decades; has now spread its tentacles to Lokavidya livelihoods and the Samaj. During the past few weeks after demonetization was implemented, there have been a few reports of how members of Lokavidya Samaj have been coping with this potentially life-threatening situation. In one local market, farmers exchanged their produce(grains, vegetables etc) for cooked food made available by a local caterer at some mutually agreed -upon exchange value. At another place transport services were made available in exchange for goods/services made available by those being transported. There may be many such instances that have emerged but have not been reported.

However, what is important to note is that such ‘solutions’ provide two important inputs in the struggle of Lokavidya Samaj to come to its own. First, it points to a discovery of a new mutually beneficial basis for assigning exchange value that is based on a new concept of equality. Second, such solutions are outside the ambit of the (financial) control of the capitalist-market system and therefore inherently sustainable by the local community of producers and consumers.

We may also take note that the real intent of the minimum wage scheme under MGNREGA has been to enable the vast majority of ‘unemployed’ members of the Samaj to participate in the market system by providing guaranteed minimum wages for doing the work of coolies(manual labour). The Jan Dhan Yojana, which requires all such people to obtain Aadhar cards and open bank accounts, is also aimed at providing this cash(wage) through a direct cash transfer system. And now with the crises of cash flow and the banking system’s inability to meet the requirements of this path of ‘inclusion’ , there is an appeal to all to switch to a cashless system using bank/credit cards.

It appears imperative that Lokavidya Samaj come up with ways and means and mutually agreed upon solutions to protect and sustain its livelihoods and to meet the onslaught of the capitalist market-system. These are pointers to the agenda of Lokavidya Jan Andolan in the coming days.

Krishnarajulu
25.11.16

Thursday, November 24, 2016

Aurangabad Gyan - Panchayats



औरंगाबाद (महाराष्ट्र) में ज्ञान-पंचायतें
17-18 नवम्बर 2016
कृष्णराजुलू, नारायण राव और मैं 17-18 नवम्बर को औरंगाबाद में थे| पिछले लगभग एक महीने से संजीव औरंगाबाद में कई आंदोलक और सामाजिक संघटनाओं के नेताओं और कार्यकर्ताओं से मुलाकातें कर रहे हैं| इन मुलाकातों के बाद संजीव ने 17-18 नवम्बर को चार ज्ञान पंचायतों के साथ पत्रकारों से वार्ता का आयोजन किया था| दलित समाज, मुस्लिम समाज,  लोक-कलाकार और महिलाओं की ये ज्ञान पंचायतें थीं जिनमें शामिल होना हम तीनों का उद्देश्य था| इन पाँचों अवसरों पर लोकविद्या-विचार के साथ ही लोकविद्याधरों के लिए सरकारी कर्मचारियों के बराबरी की निश्चित और नियमित आय पर चर्चा हुई| पूरा  कार्यक्रम बहुत अच्छा रहा| 
इस कार्यक्रम में सबसे उत्साह-वर्धक जो बात रही वह फुले, शाहू, आंबेडकर विचार प्रबोधन परिषद इस दलित संगठन के साथकी ज्ञान पंचायत| अध्यक्षता परिषद के अगुआ ऐड. रमेश खंडागले कर रहे थे| अभी कुछ ही दिन हुए कि रमेश भाई ने अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के महाराष्ट्र में हो रहे विरोध के खिलाफ एक लाख दलितों के मोर्चे का नेतृत्व किया था| और इसके बाद इस अधिनियम के कुछ जगह हो रहे दुरुपयोग के खिलाफ एक अन्य मोर्चे का भी|  पंचायत में लगभग पचास कार्यकर्ता शामिल हुए| चर्चा चार घंटे चली|  हम सभी के अनुभव में लोकविद्या विचार के संदर्भ में किसी दलित संगठन के साथ इतना खुलकर चर्चा शायद इससे पहले कभी न हुई थी| इन कार्यकर्ताओं में से कुछ के साथ संजीव की पिछली बैठकों की बदौलत लोकविद्या-विचार से इनका परिचय था ही| पंचायत में हमने इस विचार पर और बराबरी की आय की मांग पर विस्तार से अपनी बात रखी| अंत में बोलते हुए रमेश भाई ने कहा कि वे और उनके साथी सतत डा. आम्बेडकर के विचारों के तहत कार्य करते रहे हैं| उन्होंने कहा कि इस परिप्रेक्ष्य में दो मुद्दों पर खुलासा हो, और अगर बात उनको योग्य लगती है तो वे सब लोकविद्या – विचार के साथ हैं, और भविष्य में इसके साथ कार्यक्रमों में शामिल रहेंगे| ये दो मुद्दे थे:
1.        १. ‘आश्रम’, ‘वाराणसी’, ‘सत्संग’ जैसे शब्दों का प्रयोग जिनसे आर.एस.एस. या उस जैसे संगठनों का आभास होता है, और,
2.        २.  यद्यपि दलित जातियों द्वारा मरे जानवरों की खाल उतारने तथा मल-मूत्र की सफाई से सम्बंधित काम उनके पास के इस विषय के विशिष्ठ ज्ञान के आधार पर ही किये जाते हैं,  इन कामों का दलित लोग न स्वागत करते हैं और न इनमें कोई प्रतिष्ठा ही देखते हैं| इतना ही नहीं, डा. आंबेडकर ने उनको यह स्पष्ट रूपसे कहा है कि अगर अस्पृश्यता को उखाड़ फेंकना है तो उन्हें ये काम नहीं करने चाहिए|
इन मुद्दों पर हमने जो प्रतिक्रिया रखी उसका सारांश कुछ इस प्रकार है:
1.        १.  हालांकि ‘आश्रम’, ‘वाराणसी’, ‘सत्संग’ ये शब्द कुछ संस्कृत भाषा का आभास दिलाते हैं, लेकिन ये सभी पूर्वी उत्तर प्रदेश, जहां विद्या-आश्रम स्थित है, में सार्वजनिक बोलचाल में आम शब्द हैं|  ‘आश्रम’ शब्द का वर्त्तमान में  बड़ा दुरुपयोग हुआ है इसमें संदेह नहीं, लेकिन आश्रम तो साधुओं से भी जुड़े रहे हैं| कबीर कहते थे कि साधू की कोई जाति नहीं होती – जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान| हमारी ख्वाहिश इसी परम्परा में बैठ सकने की है| विद्या आश्रम सारनाथ में है जहाँ बुद्ध ने अपना पहला सार्वजनिक उपदेश दिया था| बुद्ध ने अपने अनुयायियों को पिटकों का संस्कृत में भाषांतर करने से मना किया था| कुछ मिलती-जुलती बातें ‘सत्संग’ इस शब्द के बारे में भी कही जा सकती हैं| वाराणसी किसी भी अर्थ में किसी एक हिन्दू परंपरा, या किसी एक धर्म का स्थान नहीं है| हमने अपनी कई ज्ञान पंचायतें और 17-अक्तूबर 2016 की किसान-कारीगर ज्ञान पंचायत गंगा के किनारे भैंसासुर घाट पर आयोजित की हैं, जहाँ बगल में संत रविदास का मंदिर है|
2.        २.  हम इस बात को जानते हैं कि अपने परम्परागत ज्ञान पर आधारित काम को दलित लोग प्रतिष्ठा का नहीं मानते, जब कि लोकविद्या समाज के अन्य लोगों के बारे में ऐसा नहीं है| हम यह भी जानते हैं कि इस काम के प्रकार से सम्बंधित सामाजिक विषमता का सबसे घिनौना रूप - अस्पृश्यता - आज भी हमारे समाज में मौजूद है| अस्पृश्यता को समाज से उखाड़ फेंकने के लिए हम दलित सगठनों के साथ वार्ता और कार्य करना चाहते हैं| अपनी ज्ञान पंचायतों में हमने इस विषय में पहले भी चर्चा की है| हम यह मानते हैं कि मात्र आर्थिक विषमता हटाने से सामाजिक विषमता समाप्त होगी यह मानने का कोई कारण नहीं है| लेकिन हम यह कहना चाहते हैं की सभी ज्ञान-प्रवाहों की समता पर आधारित बराबरी की आय का संघर्ष लंबा और दूरगामी संघर्ष है| इस प्रकार की आर्थिक समता को समाज में तभी मान्यता मिल पाएगी जब किसी पुरोहित, वैज्ञानिक, इंजीनियर, नौकरशाह या उद्योगपति को सामाजिक तौर पर किसान, आदिवासी या दलित के बराबरी का ही माना जाएगा| अंततः, वैसे तो हम यह नहीं मानते की आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों के हल मात्र तकनीकी किस्म के हो सकते हैं| लेकिन हम दलित भाइयों के साथ यह निश्चित तौर पर खोजना चाहेंगे कि अस्पृश्यता के प्रश्न का हल क्या किसी ऐसी तकनीकी से आरम्भ हो सकता है जिसमें मृत जानवरों की खाल निकालने और मल-मूत्र की सफाई जैसे काम सीधे हाथों के उपयोग के बिना हो सकें, और जिसके प्रबंधन का कार्य दलित अपने परम्परागत ज्ञान का उपयोग करते हुए करें| 
इस तकनीकी से सम्बंधित मुद्दे पर हमें आपस में चर्चा करने की जरूरत है| ‘लोकविद्या-स्वराज’ की अवधारणा को पुख्ता करने के लिए यह विशेष आवश्यकता बनती है| हमारी मान्यता है की सामाजिक-आर्थिक प्रश्नों के जवाब मात्र तकनीकी प्रकार के नहीं हुआ करते| क्या लोकविद्या पर आधारित समाज की परिकल्पना हमें अस्पृश्यता जैसे, लोकविद्या विचार के परिप्रेक्ष्य में मौलिक रूप में एकदम अलग और विशिष्ठ सामाजिक प्रश्न पर हमारी अन्य मान्यताओं को दर-किनार करके आगे बढ़ने की ताकत रखती है? अपने आप में क्या ऐसा प्रयास सामाजिक विवेक के साथ है? क्या ऐसा विचार दलित मन की टोह ले पायेगा? इसकी शर्तें क्या होंगी? कुछ अन्य किस्म के सवाल भी हैं: ‘विशुद्ध तकनीकी’ दृष्टिकोण में क्या यह विचार अर्थपूर्ण है?  क्या ऎसी तकनीक स्थानीय स्तर पर इस्तेमाल की जा सकती है? क्या उसके उपयोग को ‘हाई-टेक’ की दुनिया के हानिकारक प्रभावों से अलग रखा जा सकता है, विशेषतः तब जब इसके लिए कुछ ‘हाई-टेक’ उपकरणों को मुहैय्या करने और स्थानीय जरूरतों के मुताबिक़ उनमें फेरबदल करने की आवश्यकता हो?
-       गिरीश सहस्रबुद्धे
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Gyan Panchayats at Aurangabad (Maharashtra)
17-18 November 2016
The trip Krishnarajulu, Narayan Rao and I made to Aurangabad on 17-18 November to attend Gyan Panchayats organized by Sanjeev was very good. The lokavidya thought was discussed in all the four panchayats as well as during the meeting with press representatives.
However, the most encouraging aspect was the Gyan Panchayat with activists of the dalit organization फुले, शाहू, आंबेडकर विचार प्रबोधन परिषद. The Panchayat was attended by about fifty activists including a few women activists. It is the first time in my and others' experience that we could engage in a meaningful dialog on lokavidya thought with dalit activists. Thanks to the several earlier individual meetings which Sanjeev had with many of them over a period of a month, those present already had some familiarity with LJA. The meeting was chaired by Adv. Ramesh Khandagale who recently led a silent march of a lakh of dalits against the attack on atrocities act and then also another march against its misuse. Initially we talked at some length about lokavidya thought, lokavidya samaj and the demand for regular and definite income equal to that of government employees to every adult member of this samaj. In his final remarks Ramesh ji was very candid. He referred to, and asked for a response on, two counts:
1.        Appearance of words like आश्रम, वाराणसी, सत्संग as these sounded like those used by the RSS, and,
2.        The fact that the traditional work of skinning the dead cattle and hygiene / sanitation work related with cleaning up human excreta etc, although based on detailed knowledge with dalit castes, is unwelcome, regarded as devoid of any prestige and was explicitly denounced by Dr Ambedkar, who advised them to give it up if they wanted to overthrow the yolk of untouchability.
He also said that if our response to this is acceptable to them, then they are entirely with lokavidya thought and would actively participate in any programme taken up in future. We responded to both these points broadly as under:
1.        We are aware of the 'sanskritik' ring of these words. However, the words are perfectly common in public discourse in Eastern Uttar Pradesh, where Vidya Ashram is based. In spite of its misuse in current times, the word आश्रम is associated with sadhus, who as Kabir said have no caste (जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान), and we want to be seen in this continuity. Vidya Ashram is at Sarnath, where Buddha, who disallowed translation of his sayings and sermons into Sanskrit, gave his first sermon. Similarly, satsang. Varanasi does not belong to any hindu tradition as such. We have held Gyan Panchayats including the October 16, 2016 Kisan-Karigar Mahapanchayat on Bhainsasur Ghat with Ravidas Mandir behind us.
2.        We are aware that, unlike any other member of the lokavidyadhar samaj, dalit castes do not take pride in the exercise of their vidya of skinning dead animals and sanitation. We recognize that the most abhorrent form of wilful social discrimination - untouchability - persists. We want to work with dalit organizations on its removal and have discussed the issue earlier too in our gyan panchayats. We also believe that economic equity is not, of itself, co-terminus with social equity. However, the struggle for equality of incomes led by the demand discussed at the Panchayat is a long one and as satisfaction of the demand requires some level of acceptance by all of equal status of knowledge of the scientist and that of the farmer and the dalit, the struggle is also one of social equality (समता) and not just economic equality. And lastly, although in general we have no faith otherwise in technological solutions to either social or economic questions, we would want to explore with them whether a technological intervention, which removes the necessity of direct human handling in dead animal skinning and sanitary work, with dalit castes, given their knowledge of these, in an administrative and management role for this technology, is a possible starting point.
The last of the above (about technological intervention) is something, which has been in my mind for some time. I think that, may be, it is worth discussing also, and particularly, in the context of lokavidya swaraj. Does our conception of swaraj based on lokavidya allow us to make a radical departure to address a social question, which is radically different in so far as Dalits stand out in lokavidya samaj by rejecting that there is any prestige in work based on exercise of their traditional knowledge? Also, would this be a wise idea? Will it engage the dalit mind? And, at a different level, is the idea technologically sound: Can one imagine possibility of its implementation at local levels in a manner relatively isolated from the general logic of the world of hi-techeven if it involves acquisition and adaptation of existing hi-techsanitation components / systems?

- Girish Sahasrabudhe