Tuesday, April 29, 2014

' किसानों की दृष्टि में स्वराज का अर्थ ' पर वाराणसी में बैठक

वाराणसी के सामाजिक कार्यकर्ताओं की  मुहिम में विभिन्न संगठनों द्वारा पर्चा ( ब्लॉग पोस्ट 18  अप्रैल  ) बाँटा  जा रहा है। इंटरनेट के मार्फ़त अनेक व्यक्तियों, संगठनों और संस्थाओं  तक इसे पहुँचाया गया है।

कल २८ अप्रैल को एक प्रेस वार्ता की  गयी।  पराड़कर स्मृति भवन में काशी पत्रकार संघ की दीर्घा में वाराणसी के लगभग सभी अखबारों के प्रतिनिधियों से मुहिम की ओर से अमरनाथ भाई , सुनील सहस्रबुद्धे , वल्लभाचार्य पाण्डे, दीपक मलिक, दिलीप कुमार ' दिली ', डा. मुनीज़ा खान, लक्ष्मण प्रसाद , जागृति  राही, चंचल मुखर्जी और दीनदयाल ने वार्ता की।  यहाँ से प्रकाशित पर्चे पर आधारित एक संक्षिप्त प्रेस विज्ञप्ति जारी की गयी।   आज सुबह के 3-4  प्रमुख अख़बारों ने खबर को स्थान दिया।  इस मुहिम से तीन बिन्दु  प्रमुख रूप से उभर कर आ रहे हैं --
  1. असंगठित क्षेत्र या दूसरे  शब्दोँ में लोकविद्या समाज के हर परिवार में सरकारी नौकरी  जैसी कम से कम एक तनख़्वाह आनी चाहिये और वे अपना काम ढंग से कर सकें इसके लिये राष्ट्रीय संसाधनों जैसे बिजली, पानी, शिक्षा, वित्त, स्वास्थ्य आदि में उनकी बराबर की हिस्सेदारी होनी चाहिए।  ऐसा करना सरकार का कर्तव्य व जिम्मेदारी है। 
  2. हर गाँव और हर बस्ती में मीडिया स्कूल खुलने चाहिए, जहाँ बदलती दुनिया के अनुरूप गरीब घरों के नौजवान अभिव्यक्ति, प्रतिनिधित्व, संचार व सम्पर्क की क्षमताओं को हासिल करेंगे।  यह सीखेंगे की उनकी, घरों, गाँवोँ और बस्तियों की बात क्या है, उसे कैसे और कहाँ कहना है आदि।  
  3. ग्राम सभा और मोहल्ला सभा की बात अपने मुकाम तक जानी चाहिये।  जल-जंगल-जमीन पर स्थानीय नियंत्रण की मांग का भी विस्तार होना चाहिए।  पंचायत, प्रशासन, बाजार, प्राक़ृतिक संसाधान तथा आपसी झगडों का निपटारा इस सब पर स्थानीय समाजों का नियंत्रण  होना चाहिए।  स्थानीय लोग केवल यह नही बतायेँगे कि उनका क्या  है और उन्हेँ क्या चाहिए बल्कि वे सामूहिक तौर पर यह बताएँगे कि यह देश कैसा होना चाहिए - स्वराज का अर्थ क्या है ?
इसी सिलसिले में 30 अप्रैल को विद्या आश्रम पर किसान आंदोलन के कार्यकर्ताओं की एक बैठक दोपहर 2 बजे बुलाई गयी है। वाराणसी से शुरु इस मुहिम के कार्यकर्ता तथा वाराणसी और आस-पास के किसान यूनियन तथा अन्य किसान संघर्षो के साथी, सभी शामिल होंगे।  हरियाणा किसान यूनियन के अध्यक्ष और उनके साथी तथा कर्नाटक रैयत संघ के साथी भी शामिल होंगे।  वाराणसी में इस वक्त आये हुए और साथी भी  शामिल होंगे। इस बैठक में चर्चा का विषय है - ' किसानों की दृष्टि में स्वराज का अर्थ '
वाराणसी के सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा शुरु की गयी इस बहस में भाग लेने के लिये सभी आमंत्रित हैँ। हमारा ऐसा मत है कि जिन बिन्दुओं पर यह बहस शुरु हुई है  वे समय के अनुरूप हैं और आने वाले दिनों में जन-आन्दोलनों को पुख्ता आधार देने में सहयक साबित होंगे।   

चित्रा सहस्रबुद्धे
 विद्या आश्रम 

Friday, April 25, 2014

लोकविद्याधर समाज की सक्रियता से ही जाति, धर्म और लिंग आधारित ऊँच-नीच ख़त्म करने के रास्ते खुलते हैं

जाति के आधार पर व्यवस्थित और अव्यवस्थित समाज में अंतर करना अनिवार्य हैसक्रियता मनुष्य के जीवन का आधार हैसमाज की गतिविधयों में उसकी सक्रियता के  प्रकार और महत्व  केवल उसका अस्तित्व बनाते हैं पर उसे एक स्पष्ट स्थान भी उपलब्ध करवाते हैं। इस तथ्य कासबसे संगत उदाहरण आधुनिक समाज है, जहां लोगों के आपसी रिश्तों का आधार किसी  कार्य  कामना या फिर सामूहिक उद्देश्यों की पूर्ति है ; घर परिवार से सम्बंधित रिश्तों को छोड़ कर  क्योंकि यह  रिश्ते भावात्मक हैं, हालाँकि इनमे भी आपसी जरूरतों की पूर्ति की अपेक्षा रहती हैऐसा कोई  भी  कार्यालय - सार्वजनिक या असार्वजनिक - नहीं है जिसमे केवल सर्वोच्च अधिकारी ही हों ; चपरासी , निचले,  मध्यम और ऊँचे  स्तर के अधिकारी - जिसमे जवान, बड़े-बूढ़े मर्द और महिलायें शामिल रहती हैं - सब मिलकर अपनी अपनी योग्यता और पद के आधार पर किसी योजना की पूर्ति के लिए अपना अपना योगदान देते हैं .  इनकी जाति इनका धर्म इनकी निजी जिंदगी एकदूसरे से भले ही मेल  खाते  होंफिर भी ये एक जुट होकर निर्धारित काम को अंजाम देते हैंइनका आपसी रिश्ता भावात्मक न सही , एक दूसरे के लिए जाति लिंग या धर्म के आधार पर इनके दिलों में भले ही द्वेष हो लेकिन इनकी सक्रियता और उससे लैस इनकी निजी जिंदगी केवल आपसी सहयोग से ही जीवित रह सकती है , इसका आभास इन्हे रहता है. हर मनुष्य की दुनिया उसकेपरिवार और कार्यालय (कार्य क्षेत्रतक सीमित है और यदि उसे असक्रियता घेर  ले तो उसके वजूद का मिट जाना सुनिश्चित है . 
   
हज़ारों सालों से चला  रहा भारतीय समाज आज जिस कगार पर खड़ा है उसके पीछे कई ऐतहासिक घटनाओं का हाथ रहा है .  हर काल हर युग में व्यवस्थित समाज की उपलब्धियां रही होंगी और उसके पतन का कारण भी उनकी गतिविधयों में ही कहीं निहित रहा होगा। इसलिए प्राचीन कालों की धारणाओं को सही या गलत करार देना मेरी समझ में उचित  होगा। हर काल हर युग में न्याय और अन्याय के बीच का संघर्ष तो रहा ही होगा, क्योंकि कोई भी समाज पूर्ण रूप से न्याय संगत नहीं हो सकता। सत्य-असत्यन्याय-अन्याय  और सही गलत को हर समाज में वही परिभाषित करते आये हैं जिनके  हाथों में सत्ता रही हो या फिर कोई ऐसा शक्तिशाली वर्ग जो समाज की गतिविधयों को निर्धारित करने की क्षमता रखता हो.  लेकिन इन सब के बीच अहम प्रश्न जनता का समाज की गतिविधियों में सक्रियता का है क्योंकि अन्याय का विरोध सिर्फ समाज में सक्रिय समूह ही कर सकता है

जो बाहरी दुनिया से मुद्दों की लड़ाई नहीं लड़ सकते वह आपस में लड़ते हैंजो मर्द अपने कार्यालय में असफलता या फिर असक्रियता का अनुभव करता है वह अपने घर में अपनी बीवी बच्चों पर अपना प्रभुत्व जमाता हैउनके साथ अन्याय भी करता है . 

लोकविद्याधर समाज असक्रिय हो गया है क्योंकि इसे ऐसा नीति अनुसार बना दिया गया है. इसे निरंतर यह एहसास दिलाया गया है कि आधुनिक भारत की व्यवस्थाओं में इनके ज्ञान विज्ञान और हुनर का कोई स्थान नहीं है .  यह भी कूट कूट कर भर दिया गया है कि आधुनिक व्यवस्थाओं में इतनी क्षमता नहींहै कि वह इस देश की समस्त जनसँख्या को अपने घेरे में ले सके .  इसलिए इनके लिए कुछ (कई ) योजनाएं बनायी गयी हैं जो इनका निरंतर सांस लेना सुनिश्चित करती हैं .  इनके टुकड़ों पर  पलने के षड्यंत्र में लोकविद्याधर समाज फंस गया है . 

समस्या यह है कि जो आधुनिक भारत को व्यवस्थित कर रहे हैं वह भी जाति, धर्म और लिंग के आधार पर अंतर करने में विश्वास रखते हैं.  तो इस स्तर पर आधुनिक और लोकविद्याधर समाज खूब मेल खाता है और इस कारण से पैरवी की प्रक्रिया जारी होती है और चलती ही रहती है.  इस कारण लोकविद्याधर समाज में लोगों का आपसी द्वेष धर्म और जाति के नाम पर बढ़ता है ; और आधुनिक समाज का प्रभुत्व इनके ऊपर बना रहता है क्योंकि किसी भी पैरवी का निष्कर्ष तो देने वाले के हाथ में होता है  कि लेनेवाले के.  यह आधुनिक पुरुष जब खुद की जाति और धर्म के लोकविद्याधर के साथ सहानुभूति जताता है तो निश्चित ही अन्य जाति और धर्म के लोकविद्याधरों की अवहेलना करता है.  इस प्रक्रिया से जातियों ( किसी भी धर्म ) का आपसी द्वेष और बढ़ जाता है जिससे हानि लोकविद्याधर को और फायदा आधुनिक पुरुष को होता है.  यह और बात है कि यही आधुनिक पुरुष अपनी निजी जिंदगी और कार्य क्षेत्र में जाति,  लिंग और धर्म से सर्वोपरि होकर व्यवहार करता है ; इस तरह दोनों तरफ से इसका ही फायदा होता है. इस प्रकार के रिश्तों को तोड़ने की जरूरत है .  इसकी पहल तो लोकविद्याधर समाज को ही करनी होगी . 

 लोकविद्या जन आंदोलन केवल मांगें या फिर हक़ हासिल करने की  प्रक्रिया  नहीं है ; य तो दो सभ्यताओं का आपसी संघर्ष है.  यह संघर्ष लोकविद्याधर समाज को फिर से सक्रिय करने का है .  जाति,  लिंग और धर्म कोई भी क्यों  हो , मौलिक रूप से हर लोकविद्याधर पेशेवर है  इस संदर्भ में मुलताई से जारी किया गया परचा बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह दो सभ्यताओं की विचारधारा के  बीच  का अंतर  स्पष्टरूप से सार्वजनिक करता है . इन मुद्दों को लेकर लोकविद्याधर समाज के भारीभरकम प्रदर्शन के अन्य जगहों पर होने की सम्भावना पर गहरा विचार करने की जरूरत है.  ऐसे प्रदर्शनों की जरूरत है जिनमे हर जाति, हर मज़हब और हर लिंग की बड़ी संख्यामें शिरकत हो.  लोकविद्या जन आंदोलन को ऐसे  मुकाम तक ले जाने की जरूरत है जहां से आधुनिक समाज यह सोचने के लिए विवश हो जाये कि जिंदगी जीने का कोई और भी रास्ता हो सकता है, जिसमे हर लिंग, धर्म और जाति के लोग एक जुट सक्रिय होकर देश को उन्नति की राह पर अग्रसर कर सकते हैं . 

लोकविद्या जन आंदोलन ने ८० प्रतिषद से ज्यादा की जनसँख्या को एक संज्ञा दी है लोकविद्याधर समाज ', यानि एक ऐसा समाज जिसका वजूद विद्या के आधारपर है . इस भाव को हर दिल हर मन में बिठाने के जरूरत है , यह अपने आप में एक संघर्ष है.  ऐसी संज्ञा पहले किसी भी समाज सुधारक या क्रन्तिकारी ने नहीं दी , ऐसा मेरा मानना है .  जीवन के कई और हर पहलु को आगेबढ़ाने के लिए विद्या की जरूरत है ; जिस समाज का अस्तित्व ही उसकी विद्या से हो , क्या उस विद्या से लै वह समाज में सक्रिय होकर जाति, लिंग और मज़हब के नाम पर बोये गए फसादों से ऊपर नहीं उठ सकता ? शायद इस पर विचार करने की जरूरत हो. 

ललित कौल 
लोकविद्या जन आंदोलन, हैदराबाद