१२-१४ नवम्बर २०११ को वाराणसी में होने जा रहे लोकविद्या जन आन्दोलन के तीसरे दिन यानि १४ नवम्बर को लोकविद्या और कला, भाषा और मीडिया के बीच संबंधों पर चर्चा होगी। इस चर्चा के लिए कुछ विचार यहाँ प्रस्तुत है।
लोकविद्या की हर तरफ सराहना हो रही है। संगीत के क्षेत्र में, लोकसंगीत को समाज में इज्ज़त है। समारोह और सम्मेलनों में लोग इसे खूब पसंद करते हैं। सिनेमा संगीत में इसकी लोकप्रियता का जवाब नहीं है। नौशाद, सचिनदेव बर्मन, ओ पी नैयर ने तो लोकसंगीत के बल पर लोकप्रियता के झंडें गाड दिए। नए संगीतकारों में रहमान, भारद्वाज आदि भी पीछे नहीं हैं। गीत और बोल के मामले में तो गीतकारों ने लोकगीत ही उठा लिए हैं। लोकगायकी का लोहा कौन नहीं मानता? ठुमरी, होरी, चैती, कहरवा, निर्गुण, सभी ने शास्त्रीय संगीत में अपनी खास जगह बना ली है। नाटकों में भी लोककथा, लोकवाद्य, लोकजीवन को इज्ज़त का स्थान है। हबीब तनवीर को कौन नहीं जानता? कविता, कहानी, उपन्यास और पटकथाओं में लोकभाषाओं का प्रचुर इस्तेमाल हो रहा हैं और लोग इनके दम-ख़म और अभिव्यक्ति की समृद्धि के कायल हैं। फणीश्वरनाथ रेनू ने हिंदी साहित्य में जो रास्ता खोला वह आज बहुत चौड़ा हो चुका है और उस पर चलने वाले साहित्यकारों की एक बड़ी संख्या है, वे लोकप्रिय भी हैं। शिल्प की दुनिया में लोककला का सानी नहीं है। फैशन की दुनिया में लोककला को ऊंचा मान है। कपडे की बुनाई, रंगाई, छपाई, कसीदाकारी, फर्नीचर के डिज़ाइन, घरों की बनावट और सजावट, स्वाथ्य रक्षा सब में लोककला की बड़ी इज्ज़त है। यही नहीं विश्वविद्यालयों के ज्यादातर विभागों में आज जो शोध हो रहे हैं उनका आधार लोकविद्या के भंडार को खंगालने और जानकारियों को संग्रहित करने से सम्बंधित हैं।
इतना सब होने के बावजूद लोकविद्या को ज्ञान का दर्जा देने और लोकाविद्याधर को ज्ञानी मानने से सभी हिचकते हैं। यह हिचकिचाहट इसलिए है कि ज्ञान के क्षेत्र में केवल साइंस यानि मोटे तौर पर विश्वविद्यालय में पढाये जाने वाले ज्ञान को ही ज्ञान माना जाता रहा है। दूसरी बात यह है कि ज्यादातर लोगों में लोकविद्या के प्रति उत्सुकता है लेकिन लोकाविद्याधर समाज की बदहाली के प्रति वे उदासीन हैं।
सूचना युग ने एक बदलाव लाया है। इस युग ने बढ़ते व्यवसायीकरण के चलते ज्ञान को मुनाफा कमाने की वस्तु में तब्दील कर दिया है। इसका सबसे बड़ा नतीजा यह हुआ है कि लोकविद्या, यानि लोगों की विद्या, समाज में पैदा और समृद्ध होने वाले ज्ञान की लूट शुरू हो गयी है। किसानों, आदिवासियों, कारीगरों, महिलाओं के पास की लोकभाषा, लोककला, लोकसंगीत, लोकगीत, कृषि, वान्यिकी, जल-प्रबंधन, कारीगरी, स्वास्थ्य, आदि अनेक क्षेत्रों की जानकारियों को संग्रहित करने की होड़ मची है। मीडिया के नए रूप ने इस लूट को नए आयाम दिए है। संचार और संपर्क यानि मीडिया आज ज्ञान के प्रबंधन में एक अग्रणी स्थान पर है।
इस प्रक्रिया से बुनियादी सवाल खड़े हो गए हैं। जैसे- इन अशिक्षित लोगों के पास जो जानकारियां हैं क्या उन्हें ज्ञान का दर्जा दिया जाना चाहिए? क्या इन्हें इनके ज्ञान के सिद्धांत की समझ है? क्या लोकविद्या साईंस के समान है या भिन्न है? क्या इस ज्ञान में तर्क और मूल्यों का प्रकार भिन्न है? क्या लोकविद्या में कला, भाषा व संचार की भिन्न अवधारणायें हैं? अगर ज्ञान मनुष्य की शक्ति है तो लोकविद्या लोकविद्याधर समाज की ताकत कैसे बने? आदि।
लोकविद्या जन आन्दोलन इन और इन जैसे सारे सवालों को बहस का मुद्दा बनाता है और लोकविद्या के श्रेष्ठ ज्ञान होने का दावा पेश करता है। आन्दोलन की यह मान्यता है कि सभी ज्ञान लोकविद्या में जन्म लेते हैं और लौटकर लोकविद्या में आते हैं। जो ज्ञान धाराएं वापस लौटकर लोकविद्या में नहीं आतीं वे समयांतर में मनुष्य, समाज और प्रकृति की दुश्मन हो जाती हैं।
अभी तक कला के क्षेत्रों ने, सिनेमा, नाट्य, संगीत, चित्रकला, साहित्य, शिल्प आदि सभी क्षेत्रों ने लोकविद्या से बहुत कुछ लिया है। क्या लोकविद्या को वापस लौटाने की किन्हीं जिम्मेदारियों, प्रक्रियाओं और तरीकों पर विचार होना ज़रूरी नहीं है? क्या लोकविद्या के निर्माणकर्ताओं के प्रति शासन, कला संस्थाओं और कलाकारों की कोई ज़िम्मेदारी बनती है? क्या लोकविद्या की लूट को रोकने और लोकाविद्याधरों की तिरस्कृत ज़िन्दगी को खुशहाली की ओर ले जाने के रास्तों को बनाने में इन सभी को अपनी भूमिका तय करने की ज़रुरत नहीं है? और क्या इन जिम्मेदारियों और भूमिकाओं को सजग करने और मूर्त रूप देने में नए मीडिया की एक अग्रणी भूमिका नहीं होनी चाहिए?
भाषा, कला और मीडिया पर चर्चा एक साथ होनी चाहिए। इनके बीच के सक्रिय सम्बन्ध और इनमें ज्ञान के रूप की साईंस से भिन्नता के चलते ये क्षेत्र लोकविद्या जन आन्दोलन को गति देने में विशेष भूमिका निभा सकते हैं।
विद्या आश्रम