Sunday, July 20, 2014

नागपुर बैठक की रिपोर्ट

लोकविद्या समाज संगठन और जन आंदोलनों की बैठक
28 - 29 जून 2014 , विनोबा विचार केन्द्र, धरमपेठ , नागपुर 

विलास भोंगाडे सभा की शुरुआत करते हुए 

जन संघर्षों में आपसी समन्वय और सामाजिक संगठनों की भूमिका के नए वैचारिक आधार से जुड़े प्रश्नों पर लोकविद्या जन आंदोलन, नागपुर द्वारा बुलाई गयी इस बैठक में लगभग 100 कार्यकर्ताओं की भागीदारी रही।  महाराष्ट्र से शेतकरी संघटना, गोसीखुर्द परियोजना प्रभावित संघर्ष समिति, निम्न पैनगंगा बांध विरोधी संघर्ष समिति, विदर्भ आंदोलन समिति, लोकतांत्रिक श्रमिक मुक्ति दल, आंध्र से चिराला बुनकर संगठन, हैदराबाद से लोकविद्या जन आंदोलन, इंदौर से लोकविद्या समन्वय समूह, और वाराणसी से विद्या आश्रम और लोकविद्या जन आंदोलन के कार्यकर्ताओं के अलावा कई स्थानीय संगठनों व स्वतंत्र सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया।


 सभा में बोलते हुए गिरीश सहस्रबुद्धे 

बैठक में वर्तमान राजनैतिक परिस्थिति, लोकविद्या विचार, जन संघर्षों में समन्वय के नए विचार तथा लोकविद्या और समता इन विषयों पर अलग-अलग सत्रों में चर्चा हुई। पन्नालाल सुराणा, सुनील सहस्रबुद्धे, विजय जावंधिया, धनाजी गुरव, मोहन राव, नारायण राव, वीर नागेश्वर राव, संजीव दाजी, चित्रा सहस्रबुद्धे, राम नेवले, दिलीप कुमार 'दिली', मोहन हीराबाई हीरालाल, के. के. सुरेंद्रन, बी. कृष्णराजुलु, अभिजीत मित्रा , श्रीनिवास खांदेवाले , प्रह्लाद जगताप पाटिल, बालाजी येरावर , रूपा कुलकर्णी, रामचन्द्र राव येरपुड़े, सूर्यभान खोब्रागड़े, गोपाल रायपुरे, संजय सोनटक्के, वासंती सरदार, बबलू कुमार, एहसान अली, विलास भोंगाडे , गिरीश सहस्रबुद्धे व अन्य लोगों ने अपने विचार रखे।  समीक्षा जनवीर ने संघर्ष गीत प्रस्तुत किया और दिलीप कुमार 'दिली' ने लोकविद्या के बोल प्रस्तुत किये। 

लोकविद्या विचार के सत्र में 1990  से हो रहे परिवर्तनों की ओर ध्यान दिया गया। वित्तीय पूँजी का वर्चस्व, वैश्विक बाजार का उदय, कम्प्यूटर इंटरनेट का प्रसार तथा ज्ञान प्रबंधन व तकनीकी का बढ़ता प्रयोग, हर गतिविधि पर कार्पोरेट जगत का दखल, ज्ञान उद्द्योगों का बोलबाला, नए प्रोफेशनल वर्ग का आकर लेना, अमेरिका की दादागिरी और सब जगह आंदोलनों का पीछे हटना ये सब इस काल की विशेषतायें हैं। नई व्यवस्थाओं में श्रम के साथ ज्ञान का शोषण, विशेषकर लोकविद्या का शोषण एक मज़बूत आधारस्तम्भ के रूप में उभरा है।  शोषक और शोषित समाज तथा समाज के अन्य घटकों के आपसी सम्बन्ध, ज्ञान व उसकी नई समझ के इर्द-गिर्द आकार ले रहे हैं।  उत्पादन करने वाले अपने ज्ञान और काम के नतीजों को सस्ते से सस्ता बेचें यही व्यवस्था है।  यह लूट का नया तंत्र है जिसका समर्थन आज की राजनीति विकास के नाम पर करती है।  इस राजनीति को विश्वविद्यालय के संगठित ज्ञान-विज्ञान और ज्ञान प्रबंधन का पूरा  समर्थन है।  इस तरह लोकविद्या और उसके बल पर ज़िंदा रहने वाला लोकविद्या समाज दोनों के सामने नई चुनौतियाँ आकार ले रही हैं।  इन्ही के आगे बढ़ने से और इन्ही के वैचारिक नेतृत्व में संघर्ष व्यापक हो सकते हैं और निर्णायक दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।  इन बातों के साथ में चर्चा आगे बढ़ी और सामान्य मत यह बना कि लोकविद्या विचार को आगे बढ़कर  समाज की  ताकत और संघर्ष की एक नई ज्ञान की भाषा बनानी चाहिए और उसी के मार्फ़त नई मुक्ति की राजनीति की सम्भावनों को उजागर करना चाहिए।
विजय जावंधिया सभा को सम्बोधित करते हुए 

दूसरे  सत्र में लोकविद्या और सामाजिक विषमता पर विशेष चर्चा हुई।  चर्चा का मुख्य विषय यह बन गया कि जल-जंगल-ज़मीन-खेती आदि के सम्बन्ध में लोगों के पास के विस्तृत ज्ञान के प्रति सरकारों की उदासीनता तथा स्थानीय संसाधनों व संपत्ति की लूट और जाति पर आधारित सामाजिक विषमता को बनाये रखने और बढ़ाने का काम ही विकास के कार्यक्रम करते हैं। सबने यह माना कि जातिगत विषमता में आज भी अस्पृश्यता की चुनौती सबसे बड़ी है।  और यह कि केवल आर्थिक उपायों से इससे मुकाबला हो सकेगा ऐसा लगता नहीं है।  लोकविद्या विचार की ओर से यह कहा गया कि आज की ज्ञान व्यवस्थाओं ने जातिगत विषमताओं को एक स्थायी व्यवस्था में फंसा कर रखा है। इस प्रश्न के हल के लिए और सामाजिक समता की ओर नए कदम बढ़ सकें इसके लिए लोकविद्या जन आंदोलन की वर्तमान ज्ञान व्यवस्थाओं को चुनौती एक महत्वपूर्ण योगदान हो सकती है। इस पर एक राय  बनी कि लोकविद्या जन आंदोलन की सभी मुहिमों में विषमता निर्मूलन के  विचारों और कार्यक्रमों को जोड़ा जाये।  

वासंती सरदार बैठक में अपने विचार रखते हुए  

अंतिम सत्र में लोकविद्या से काम करने वालों को सरकारी कर्मचारियों जैसी आय और राष्ट्रीय संसाधनों के बराबर के बंटवारे पर चर्चा हुई।  बहुत से लोगों के लिए यह नई बात थी इसलिए कई सवाल आए जिनके जवाब लोकविद्या जन आंदोलन की ओर से दिए गए।  यह दिखाया गया कि  किस तरह ये दोनों बातें लोकविद्या दर्शन की तार्किक व्यावहारिक परिणति हैं।  बात वेतन आयोग के सन्दर्भ में हुई।  यह तय हुआ कि राष्ट्रीय वेतन आयोग द्वारा निर्धारित  न्यूनतम आय से कम किसी को नहीं मिलना चाहिए।  और यह कि बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा और वित्त जैसे राष्ट्रीय संसाधन का समाज में बराबर का बंटवारा होना चाहिए। यह बात हुई कि इस मुहिम में लोकविद्या-समाज के संगठनों के नेताओं, विचारकों और संघर्षकर्ताओं से विस्तृत संवाद किया जाये। 

 इन मुद्दों पर मुहिम खड़ी  करने के लिए सर्व सम्मति से यह समिति बनायी गई - विलास भोंगाडे (संयोजक) , विजय जावंधिया, गिरीश सहस्रबुद्धे , प्रह्लाद गावंडे (यवतमाळ) , अशोक जाधव (कोल्हापुर),  गोपाल रायपुरे (चंद्रपुर), वासंती सरदार (धारगांव, भंडारा ), तेजश्री (पुणे), उमेश निनावे (नागपुर) और संजीव दाजी (इंदौर) ।

विजय जावंधिया, गिरीश सहस्रबुद्धे, विलास भोंगाडे  

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