विद्या आश्रम, सारनाथ से 5 - 6 किलो मीटर की दूरी पर हिंदी साहित्य के महान लेखक प्रेमचंद जी का गांव, लमही बसा हुआ है। 31 जुलाई को प्रेमचंद जयंती के अवसर पर वाराणसी के कला जगत के लोग लमही में जुटते हैं और 30 , 31 जुलाई व 1 अगस्त तक तीन दिनों के कला प्रदर्शन के साथ कलाकारों का जमावड़ा यहाँ लगता है। कई वर्षों से यह मेला लगता है और धीरे-धीरे बड़ा होता जा रहा है।
प्रेमचंद हिंदी साहित्य के महान लेखक और कला जगत की महत्वपूर्ण हस्ती हैं और उनका लेखन सामान्य जीवन की अद्भुत शक्ति को उजागर करता है। सामान्य लोगों के नैतिक बल, ज्ञान और संकल्पों को सशक्त अभिव्यक्ति देता है। गाँवों और बस्तियों में बसे किसानों और कारीगरों , स्त्रियों और अनपढ़ लोगों के ज्ञान को परत दर परत खोलता है, उसकी गहराई, दूरगामी और विवेकपूर्ण दृष्टि को सामने रखता है। लोकविद्या जन आंदोलन इन्हीं लोगों के ज्ञान की प्रतिष्ठा का आंदोलन है।
प्रेमचंद ने बहुत पहले ही कहा है - "भारत की राष्ट्रीय जागृति का सबसे महत्वपूर्ण शुभ परिणाम वे बैंक और डाकखाने नहीं हैं जो पिछले कुछ सालों में स्थापित हुए हैं और होते जाते हैं , न वे विद्यालय हैं जो देश के हर भाग में खुलते जाते हैं बल्कि वह गौरव जो हमें अपने प्राचीन उद्योग धंधों और ज्ञान - विज्ञान व साहित्य पर
होने लगा है और वह आदर का भाव जिससे हम अपने देश की कारीगरी व प्राचीन स्मारकों को देखने लगे हैं। "
भारतीय कला के जानकर इ.बी. हैवेल के अनुसार " भले ही कारीगर विश्वविद्यालयों में न गए हों परन्तु वे अपने शिल्पशास्त्र, लोकसंस्कृति और जातीय महाकाव्यों से खूब अच्छी तरह परिचित होते हैं और वे औसत भारतीय ग्रेजुएट से अधिक ज्ञानी होते हैं। "
मुक्तिबोध की पंक्तियाँ शायद इसी सत्य को शब्द दे रही हैं -
हरेक छाती में आत्मा अधीरा है
प्रत्येक सुस्मित में विमला सदानीरा है
प्रत्येक वाणी में महाकाव्य पीड़ा है
मुझे भ्रम होता है...
प्रत्येक पत्थर में चमकता हीरा है
मैं कुछ गहरे उतरना चाहता हूँ...
लोक ज्ञान की गहराई में उतरने की तैयारी में विद्या आश्रम के सामने बने चिंतन ढाबा पर प्रेमचंद जयंती मनाई गयी। लोकविद्या सत्संग के साथ शुरू हुए इस आयोजन में प्रेमचंद की कहानी ' मोटर के छींटें ' ( http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=230&pageno=5 ) का पाठ हुआ और कहानी पर चर्चा हुई। सभी ने चर्चा में हिस्सा लिया।
कृष्ण कुमार क्रांति ने कहा कि अँगरेज़ साहब किस तरह यहाँ के लोगों को कीड़े-मकौड़े समझते रहे लेकिन यही लोग संगठित होकर उनके द्वारा ढाये जा रहे ज़ुल्मों का विरोध भी कर सकते हैं । आज की सत्ता भी किसान-कारीगरों को अंग्रेज़ों की तरह ही देखती है तो इसका भी संगठित विरोध ज़रूरी है। लक्ष्मण प्रसाद ने कहा कि कहानी छोटे में संगठित होकर अन्याय के खिलाफ खड़े होने का सन्देश देती है। लोग अपने छोटे-छोटे लालच और स्वार्थ में डूबे हुए और तमाशबीन बने भले ही दिखाई देते हों लेकिन समय आने पर एकजुट होकर अन्याय के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। शाम बिहारी का कहना था कि विरोध तो किया लेकिन पुलिस आने पर तो सब लोग भाग गए और पंडितजी भी भाग गए, भगोड़े साबित हो गये। प्रेमलताजी ने कहा कि नहीं, इसे यूँ समझें कि शुरू में लोग संगठित नहीं थे , पंडितजी ने जब ललकारा तो लोगों को भी कुछ बात सही लगी और लोग संगठित होकर मोटर वालों का विरोध करने लगे। लेकिन पुलिस आते ही जब वो गलियों में भागे तो इसका अर्थ वे भगौडे हैं ऐसा नहीं है बल्कि ये है कि वे इतने संगठित नहीं थे कि राज्यसत्ता की संगठित ताकत से मोर्चा ले लेते। ऐसे में कोई जान थोडे ही देनी है। गलियों में भागने का प्रतीक यह है कि राज्यसत्ता जैसी शक्तिशाली संस्था से न्याय हासिल करने की लड़ाई के लिए अधिक संगठित ताकत की तैयारी की ज़रूरत है और उसे बनाने के लिए एक कदम पीछे हटने की बात है। दिलीप ने लोकविद्या गायकी के साथ लोकविद्या समाज की एकता की शक्ति को उजागर किया और आवाहन किया कि लोकविद्या समाज अपने ज्ञान का दावा ठोंके और अपने को सरकारी कर्मचारी के बराबर की आमदनी का हक़दार घोषित करें।
विद्या आश्रम
प्रेमचंद हिंदी साहित्य के महान लेखक और कला जगत की महत्वपूर्ण हस्ती हैं और उनका लेखन सामान्य जीवन की अद्भुत शक्ति को उजागर करता है। सामान्य लोगों के नैतिक बल, ज्ञान और संकल्पों को सशक्त अभिव्यक्ति देता है। गाँवों और बस्तियों में बसे किसानों और कारीगरों , स्त्रियों और अनपढ़ लोगों के ज्ञान को परत दर परत खोलता है, उसकी गहराई, दूरगामी और विवेकपूर्ण दृष्टि को सामने रखता है। लोकविद्या जन आंदोलन इन्हीं लोगों के ज्ञान की प्रतिष्ठा का आंदोलन है।
प्रेमचंद ने बहुत पहले ही कहा है - "भारत की राष्ट्रीय जागृति का सबसे महत्वपूर्ण शुभ परिणाम वे बैंक और डाकखाने नहीं हैं जो पिछले कुछ सालों में स्थापित हुए हैं और होते जाते हैं , न वे विद्यालय हैं जो देश के हर भाग में खुलते जाते हैं बल्कि वह गौरव जो हमें अपने प्राचीन उद्योग धंधों और ज्ञान - विज्ञान व साहित्य पर
होने लगा है और वह आदर का भाव जिससे हम अपने देश की कारीगरी व प्राचीन स्मारकों को देखने लगे हैं। "
भारतीय कला के जानकर इ.बी. हैवेल के अनुसार " भले ही कारीगर विश्वविद्यालयों में न गए हों परन्तु वे अपने शिल्पशास्त्र, लोकसंस्कृति और जातीय महाकाव्यों से खूब अच्छी तरह परिचित होते हैं और वे औसत भारतीय ग्रेजुएट से अधिक ज्ञानी होते हैं। "
मुक्तिबोध की पंक्तियाँ शायद इसी सत्य को शब्द दे रही हैं -
हरेक छाती में आत्मा अधीरा है
प्रत्येक सुस्मित में विमला सदानीरा है
प्रत्येक वाणी में महाकाव्य पीड़ा है
मुझे भ्रम होता है...
प्रत्येक पत्थर में चमकता हीरा है
मैं कुछ गहरे उतरना चाहता हूँ...
लोक ज्ञान की गहराई में उतरने की तैयारी में विद्या आश्रम के सामने बने चिंतन ढाबा पर प्रेमचंद जयंती मनाई गयी। लोकविद्या सत्संग के साथ शुरू हुए इस आयोजन में प्रेमचंद की कहानी ' मोटर के छींटें ' ( http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=230&pageno=5 ) का पाठ हुआ और कहानी पर चर्चा हुई। सभी ने चर्चा में हिस्सा लिया।
कृष्ण कुमार क्रांति ने कहा कि अँगरेज़ साहब किस तरह यहाँ के लोगों को कीड़े-मकौड़े समझते रहे लेकिन यही लोग संगठित होकर उनके द्वारा ढाये जा रहे ज़ुल्मों का विरोध भी कर सकते हैं । आज की सत्ता भी किसान-कारीगरों को अंग्रेज़ों की तरह ही देखती है तो इसका भी संगठित विरोध ज़रूरी है। लक्ष्मण प्रसाद ने कहा कि कहानी छोटे में संगठित होकर अन्याय के खिलाफ खड़े होने का सन्देश देती है। लोग अपने छोटे-छोटे लालच और स्वार्थ में डूबे हुए और तमाशबीन बने भले ही दिखाई देते हों लेकिन समय आने पर एकजुट होकर अन्याय के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। शाम बिहारी का कहना था कि विरोध तो किया लेकिन पुलिस आने पर तो सब लोग भाग गए और पंडितजी भी भाग गए, भगोड़े साबित हो गये। प्रेमलताजी ने कहा कि नहीं, इसे यूँ समझें कि शुरू में लोग संगठित नहीं थे , पंडितजी ने जब ललकारा तो लोगों को भी कुछ बात सही लगी और लोग संगठित होकर मोटर वालों का विरोध करने लगे। लेकिन पुलिस आते ही जब वो गलियों में भागे तो इसका अर्थ वे भगौडे हैं ऐसा नहीं है बल्कि ये है कि वे इतने संगठित नहीं थे कि राज्यसत्ता की संगठित ताकत से मोर्चा ले लेते। ऐसे में कोई जान थोडे ही देनी है। गलियों में भागने का प्रतीक यह है कि राज्यसत्ता जैसी शक्तिशाली संस्था से न्याय हासिल करने की लड़ाई के लिए अधिक संगठित ताकत की तैयारी की ज़रूरत है और उसे बनाने के लिए एक कदम पीछे हटने की बात है। दिलीप ने लोकविद्या गायकी के साथ लोकविद्या समाज की एकता की शक्ति को उजागर किया और आवाहन किया कि लोकविद्या समाज अपने ज्ञान का दावा ठोंके और अपने को सरकारी कर्मचारी के बराबर की आमदनी का हक़दार घोषित करें।