Thursday, November 24, 2016

Aurangabad Gyan - Panchayats



औरंगाबाद (महाराष्ट्र) में ज्ञान-पंचायतें
17-18 नवम्बर 2016
कृष्णराजुलू, नारायण राव और मैं 17-18 नवम्बर को औरंगाबाद में थे| पिछले लगभग एक महीने से संजीव औरंगाबाद में कई आंदोलक और सामाजिक संघटनाओं के नेताओं और कार्यकर्ताओं से मुलाकातें कर रहे हैं| इन मुलाकातों के बाद संजीव ने 17-18 नवम्बर को चार ज्ञान पंचायतों के साथ पत्रकारों से वार्ता का आयोजन किया था| दलित समाज, मुस्लिम समाज,  लोक-कलाकार और महिलाओं की ये ज्ञान पंचायतें थीं जिनमें शामिल होना हम तीनों का उद्देश्य था| इन पाँचों अवसरों पर लोकविद्या-विचार के साथ ही लोकविद्याधरों के लिए सरकारी कर्मचारियों के बराबरी की निश्चित और नियमित आय पर चर्चा हुई| पूरा  कार्यक्रम बहुत अच्छा रहा| 
इस कार्यक्रम में सबसे उत्साह-वर्धक जो बात रही वह फुले, शाहू, आंबेडकर विचार प्रबोधन परिषद इस दलित संगठन के साथकी ज्ञान पंचायत| अध्यक्षता परिषद के अगुआ ऐड. रमेश खंडागले कर रहे थे| अभी कुछ ही दिन हुए कि रमेश भाई ने अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के महाराष्ट्र में हो रहे विरोध के खिलाफ एक लाख दलितों के मोर्चे का नेतृत्व किया था| और इसके बाद इस अधिनियम के कुछ जगह हो रहे दुरुपयोग के खिलाफ एक अन्य मोर्चे का भी|  पंचायत में लगभग पचास कार्यकर्ता शामिल हुए| चर्चा चार घंटे चली|  हम सभी के अनुभव में लोकविद्या विचार के संदर्भ में किसी दलित संगठन के साथ इतना खुलकर चर्चा शायद इससे पहले कभी न हुई थी| इन कार्यकर्ताओं में से कुछ के साथ संजीव की पिछली बैठकों की बदौलत लोकविद्या-विचार से इनका परिचय था ही| पंचायत में हमने इस विचार पर और बराबरी की आय की मांग पर विस्तार से अपनी बात रखी| अंत में बोलते हुए रमेश भाई ने कहा कि वे और उनके साथी सतत डा. आम्बेडकर के विचारों के तहत कार्य करते रहे हैं| उन्होंने कहा कि इस परिप्रेक्ष्य में दो मुद्दों पर खुलासा हो, और अगर बात उनको योग्य लगती है तो वे सब लोकविद्या – विचार के साथ हैं, और भविष्य में इसके साथ कार्यक्रमों में शामिल रहेंगे| ये दो मुद्दे थे:
1.        १. ‘आश्रम’, ‘वाराणसी’, ‘सत्संग’ जैसे शब्दों का प्रयोग जिनसे आर.एस.एस. या उस जैसे संगठनों का आभास होता है, और,
2.        २.  यद्यपि दलित जातियों द्वारा मरे जानवरों की खाल उतारने तथा मल-मूत्र की सफाई से सम्बंधित काम उनके पास के इस विषय के विशिष्ठ ज्ञान के आधार पर ही किये जाते हैं,  इन कामों का दलित लोग न स्वागत करते हैं और न इनमें कोई प्रतिष्ठा ही देखते हैं| इतना ही नहीं, डा. आंबेडकर ने उनको यह स्पष्ट रूपसे कहा है कि अगर अस्पृश्यता को उखाड़ फेंकना है तो उन्हें ये काम नहीं करने चाहिए|
इन मुद्दों पर हमने जो प्रतिक्रिया रखी उसका सारांश कुछ इस प्रकार है:
1.        १.  हालांकि ‘आश्रम’, ‘वाराणसी’, ‘सत्संग’ ये शब्द कुछ संस्कृत भाषा का आभास दिलाते हैं, लेकिन ये सभी पूर्वी उत्तर प्रदेश, जहां विद्या-आश्रम स्थित है, में सार्वजनिक बोलचाल में आम शब्द हैं|  ‘आश्रम’ शब्द का वर्त्तमान में  बड़ा दुरुपयोग हुआ है इसमें संदेह नहीं, लेकिन आश्रम तो साधुओं से भी जुड़े रहे हैं| कबीर कहते थे कि साधू की कोई जाति नहीं होती – जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान| हमारी ख्वाहिश इसी परम्परा में बैठ सकने की है| विद्या आश्रम सारनाथ में है जहाँ बुद्ध ने अपना पहला सार्वजनिक उपदेश दिया था| बुद्ध ने अपने अनुयायियों को पिटकों का संस्कृत में भाषांतर करने से मना किया था| कुछ मिलती-जुलती बातें ‘सत्संग’ इस शब्द के बारे में भी कही जा सकती हैं| वाराणसी किसी भी अर्थ में किसी एक हिन्दू परंपरा, या किसी एक धर्म का स्थान नहीं है| हमने अपनी कई ज्ञान पंचायतें और 17-अक्तूबर 2016 की किसान-कारीगर ज्ञान पंचायत गंगा के किनारे भैंसासुर घाट पर आयोजित की हैं, जहाँ बगल में संत रविदास का मंदिर है|
2.        २.  हम इस बात को जानते हैं कि अपने परम्परागत ज्ञान पर आधारित काम को दलित लोग प्रतिष्ठा का नहीं मानते, जब कि लोकविद्या समाज के अन्य लोगों के बारे में ऐसा नहीं है| हम यह भी जानते हैं कि इस काम के प्रकार से सम्बंधित सामाजिक विषमता का सबसे घिनौना रूप - अस्पृश्यता - आज भी हमारे समाज में मौजूद है| अस्पृश्यता को समाज से उखाड़ फेंकने के लिए हम दलित सगठनों के साथ वार्ता और कार्य करना चाहते हैं| अपनी ज्ञान पंचायतों में हमने इस विषय में पहले भी चर्चा की है| हम यह मानते हैं कि मात्र आर्थिक विषमता हटाने से सामाजिक विषमता समाप्त होगी यह मानने का कोई कारण नहीं है| लेकिन हम यह कहना चाहते हैं की सभी ज्ञान-प्रवाहों की समता पर आधारित बराबरी की आय का संघर्ष लंबा और दूरगामी संघर्ष है| इस प्रकार की आर्थिक समता को समाज में तभी मान्यता मिल पाएगी जब किसी पुरोहित, वैज्ञानिक, इंजीनियर, नौकरशाह या उद्योगपति को सामाजिक तौर पर किसान, आदिवासी या दलित के बराबरी का ही माना जाएगा| अंततः, वैसे तो हम यह नहीं मानते की आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों के हल मात्र तकनीकी किस्म के हो सकते हैं| लेकिन हम दलित भाइयों के साथ यह निश्चित तौर पर खोजना चाहेंगे कि अस्पृश्यता के प्रश्न का हल क्या किसी ऐसी तकनीकी से आरम्भ हो सकता है जिसमें मृत जानवरों की खाल निकालने और मल-मूत्र की सफाई जैसे काम सीधे हाथों के उपयोग के बिना हो सकें, और जिसके प्रबंधन का कार्य दलित अपने परम्परागत ज्ञान का उपयोग करते हुए करें| 
इस तकनीकी से सम्बंधित मुद्दे पर हमें आपस में चर्चा करने की जरूरत है| ‘लोकविद्या-स्वराज’ की अवधारणा को पुख्ता करने के लिए यह विशेष आवश्यकता बनती है| हमारी मान्यता है की सामाजिक-आर्थिक प्रश्नों के जवाब मात्र तकनीकी प्रकार के नहीं हुआ करते| क्या लोकविद्या पर आधारित समाज की परिकल्पना हमें अस्पृश्यता जैसे, लोकविद्या विचार के परिप्रेक्ष्य में मौलिक रूप में एकदम अलग और विशिष्ठ सामाजिक प्रश्न पर हमारी अन्य मान्यताओं को दर-किनार करके आगे बढ़ने की ताकत रखती है? अपने आप में क्या ऐसा प्रयास सामाजिक विवेक के साथ है? क्या ऐसा विचार दलित मन की टोह ले पायेगा? इसकी शर्तें क्या होंगी? कुछ अन्य किस्म के सवाल भी हैं: ‘विशुद्ध तकनीकी’ दृष्टिकोण में क्या यह विचार अर्थपूर्ण है?  क्या ऎसी तकनीक स्थानीय स्तर पर इस्तेमाल की जा सकती है? क्या उसके उपयोग को ‘हाई-टेक’ की दुनिया के हानिकारक प्रभावों से अलग रखा जा सकता है, विशेषतः तब जब इसके लिए कुछ ‘हाई-टेक’ उपकरणों को मुहैय्या करने और स्थानीय जरूरतों के मुताबिक़ उनमें फेरबदल करने की आवश्यकता हो?
-       गिरीश सहस्रबुद्धे
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Gyan Panchayats at Aurangabad (Maharashtra)
17-18 November 2016
The trip Krishnarajulu, Narayan Rao and I made to Aurangabad on 17-18 November to attend Gyan Panchayats organized by Sanjeev was very good. The lokavidya thought was discussed in all the four panchayats as well as during the meeting with press representatives.
However, the most encouraging aspect was the Gyan Panchayat with activists of the dalit organization फुले, शाहू, आंबेडकर विचार प्रबोधन परिषद. The Panchayat was attended by about fifty activists including a few women activists. It is the first time in my and others' experience that we could engage in a meaningful dialog on lokavidya thought with dalit activists. Thanks to the several earlier individual meetings which Sanjeev had with many of them over a period of a month, those present already had some familiarity with LJA. The meeting was chaired by Adv. Ramesh Khandagale who recently led a silent march of a lakh of dalits against the attack on atrocities act and then also another march against its misuse. Initially we talked at some length about lokavidya thought, lokavidya samaj and the demand for regular and definite income equal to that of government employees to every adult member of this samaj. In his final remarks Ramesh ji was very candid. He referred to, and asked for a response on, two counts:
1.        Appearance of words like आश्रम, वाराणसी, सत्संग as these sounded like those used by the RSS, and,
2.        The fact that the traditional work of skinning the dead cattle and hygiene / sanitation work related with cleaning up human excreta etc, although based on detailed knowledge with dalit castes, is unwelcome, regarded as devoid of any prestige and was explicitly denounced by Dr Ambedkar, who advised them to give it up if they wanted to overthrow the yolk of untouchability.
He also said that if our response to this is acceptable to them, then they are entirely with lokavidya thought and would actively participate in any programme taken up in future. We responded to both these points broadly as under:
1.        We are aware of the 'sanskritik' ring of these words. However, the words are perfectly common in public discourse in Eastern Uttar Pradesh, where Vidya Ashram is based. In spite of its misuse in current times, the word आश्रम is associated with sadhus, who as Kabir said have no caste (जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान), and we want to be seen in this continuity. Vidya Ashram is at Sarnath, where Buddha, who disallowed translation of his sayings and sermons into Sanskrit, gave his first sermon. Similarly, satsang. Varanasi does not belong to any hindu tradition as such. We have held Gyan Panchayats including the October 16, 2016 Kisan-Karigar Mahapanchayat on Bhainsasur Ghat with Ravidas Mandir behind us.
2.        We are aware that, unlike any other member of the lokavidyadhar samaj, dalit castes do not take pride in the exercise of their vidya of skinning dead animals and sanitation. We recognize that the most abhorrent form of wilful social discrimination - untouchability - persists. We want to work with dalit organizations on its removal and have discussed the issue earlier too in our gyan panchayats. We also believe that economic equity is not, of itself, co-terminus with social equity. However, the struggle for equality of incomes led by the demand discussed at the Panchayat is a long one and as satisfaction of the demand requires some level of acceptance by all of equal status of knowledge of the scientist and that of the farmer and the dalit, the struggle is also one of social equality (समता) and not just economic equality. And lastly, although in general we have no faith otherwise in technological solutions to either social or economic questions, we would want to explore with them whether a technological intervention, which removes the necessity of direct human handling in dead animal skinning and sanitary work, with dalit castes, given their knowledge of these, in an administrative and management role for this technology, is a possible starting point.
The last of the above (about technological intervention) is something, which has been in my mind for some time. I think that, may be, it is worth discussing also, and particularly, in the context of lokavidya swaraj. Does our conception of swaraj based on lokavidya allow us to make a radical departure to address a social question, which is radically different in so far as Dalits stand out in lokavidya samaj by rejecting that there is any prestige in work based on exercise of their traditional knowledge? Also, would this be a wise idea? Will it engage the dalit mind? And, at a different level, is the idea technologically sound: Can one imagine possibility of its implementation at local levels in a manner relatively isolated from the general logic of the world of hi-techeven if it involves acquisition and adaptation of existing hi-techsanitation components / systems?

- Girish Sahasrabudhe


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