देश के अनेक स्थानों पर सामाजिक
कार्यकर्ताओं ने 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले जन पक्ष
की एक मुहिम चलाई थी और व्यापक पैमाने पर भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के
खतरों से लोगों को आगाह किया था. अब पांच वर्षों का अनुभव यह है कि दिल्ली की
सत्ता पर कब्ज़े के बाद से इनकी सरकार ने आम जनता की आवश्यकताओं के बारे में कुछ
करना तो दूर, कुछ सोचा हो ऐसा भी नहीं दीखता, उलटे ये देश के धन्ना सेठों के खजाने
भरने में लगे रहे और ऐसा करने में किसानों, कारीगरों, मजदूरों, आदिवासियों,
ठेला-पटरी वालों, महिलाओं, सभी सामान्य लोगों के हितों को कुर्बान कर दिया. इतना
ही नहीं तो समाज को बांटने का आक्रामक दौर चलाया. अब एक बार फिर 2019 के लोकसभा
चुनाव के सन्दर्भ में सामाजिक कार्यकर्ताओं को और समाज के प्रति संवेदना और सरोकार
रखने वाले सभी लोगों को अपना कर्त्तव्य तय करने का समय आ गया है.
साम्प्रदायिकता बनाम धर्म निरपेक्षता को केंद्र में रखकर बड़ी बहस चलाई गई है
तथा इसे राजनैतिक ध्रुवीकरण का आधार बनाया गया है. यह सवाल बेहद महत्वपूर्ण होते
हुए भी सार्वजनिक बहस पर पूरा छा जाये यह इस देश की जनता के हित में नहीं है. यह
आवश्यक है कि आम लोगों की ज़िन्दगी से जुड़े बुनियादी सवाल भी सार्वजनिक बहस का
मुद्दा बनें. एक ऐसा ही सवाल है --- किसान,
कारीगर, मज़दूर, ठेला-पटरीवाले तथा आदिवासी परिवारों की आय का सवाल. इस सवाल को
सामने रखकर आगामी लोकसभा चुनाव के लिए अजेंडा बनाया जाना चाहिए.
उपरोक्त सभी समाजों के लिए तरह-तरह की परियोजनाएं सभी सरकारें लाती हैं लेकिन
इन लोगों की वास्तविक परिस्थितियां गिरती ही चली गई हैं. आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य,
क़र्ज़, उत्पादों के दाम, रोज़गार, इत्यादि की बातें होती रहती हैं लेकिन इन सबकी आय
में वृद्धि के लिए न नीतियां बनती हैं, न कोई कानूनी, अथवा अन्य व्यवस्थाओं की ही
बात होती है. आय के प्रश्न पर व्यापक बहस की ज़रूरत है और इस बात की ज़रूरत है कि
सभी दल इसपर अपनी स्पष्ट राय ज़ाहिर करें.
किसान अपने उत्पादन के दाम, क़र्ज़, बिजली, सिंचाई, खाद-बीज के लिए कई दशकों से
बड़े पैमाने पर आन्दोलन कर रहा है लेकिन स्थितियां बद से बदतर ही हुई हैं. ऐसे में
यह विचार प्रबल रूप से सामने आया है कि सारी बातचीत किसान परिवार की आय को केंद्र
में रखकर होनी चाहिए. मांग यह होनी चाहिए कि हर किसान परिवार को वैसी ही आय हो
जैसी आय एक सरकारी कर्मचारी की होती है. इस मांग का मूल आधार इस बात में है कि
किसान परिवार सभी दृष्टियों से अपने आर्थिक और सामाजिक कार्यों को अपने ज्ञान के
आधार पर करता है. उसका ज्ञान विश्वविद्यालय के ज्ञान से किसी भी अर्थ में कम नहीं
होता. यह बात कारीगर, आदिवासी औए ठेला-पटरी पर धंधा करने वाले परिवारों को भी लागू
होती है. ये सब अपने सारे काम अपने ज्ञान के आधार पर ही करते हैं. तथा हर अर्थ में
भारत देश के उतने ही सम्मानित नागरिक हैं जितने सम्मानित नागरिक इस देश के
पढ़े-लिखे स्त्री-पुरुष हैं.
अतः जनता का भविष्य संवारने का मूल मुद्दा यह है कि इस देश
के हर परिवार को ऐसी आय होनी चाहिए जैसी एक सरकारी कर्मचारी की होती है.
हमारी अपील है कि अलग-अलग विचारों से व अलग-अलग संगठनात्मक ढांचों में काम
करने वाले लोग अपने-अपने ढंग से इस वार्ता को आगे बढायें.
आशा है कि बैठकों और सभाओं में तथा सोशल मीडिया पर ऐसी गूँज होगी कि सभी दल इस
विषय पर अपना दृष्टिकोण साफ करना ज़रूरी समझेंगे.
विद्या आश्रम