Wednesday, January 29, 2020

खुल जा सिम सिम


जब से नागरिकता संशोधन कानून (CAA) , राष्ट्रीय नागरिकता पंजिका (NRC) और राष्ट्रीय आबादी पंजिका (NPR) बनाने का फैसला केन्द्रीय सरकार ने लिया है तब से देश की जनता में उबाल सा आ गया है. कहा जा रहा है कि देश के संविधान पर डाका पड़ गया है. इस संशोधन और उससे जुड़कर आई इन पंजिकाओं के खिलाफ जगह-जगह विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. इस कानून के समर्थन में भी कुछ प्रदर्शन हुये हैं. समर्थन तथा विरोध के प्रदर्शनों में दोनों ओर तिरंगा लहराया जा रहा है, बावजूद एक नया दौर शुरू हो गया लगता है, जिसमें पार्टी और विचारधाराओं के दायरे तोड़ देने का आवाहन जनता स्वीकार करती नज़र आती है. अगर वाकई ऐसा है तो हम मानते हैं कि यह शुभ संकेत है. आर्थिक महासंकट के इस दौर में देश, राष्ट्र, राष्ट्रवाद व संविधान जैसे विषय सामान्य लोगों में सैद्धांतिक चर्चा के विषय बन गये हैं. नतीजे स्वरूप मनुष्य और समाज-संगठन के नैतिक विचार अब प्रकट होना लाजिमी है.
हम सभी यह देख रहे हैं कि केन्द्रीय सरकार के निर्णयों के खिलाफ देश भर में जो ये बड़े-बड़े विरोध हो रहे हैं उनका नेतृत्व न किसी राजनैतिक नेता, पार्टी या धार्मिक संगठन के हाथ है और न किन्हीं स्थापित विचारधाराओं के दायरे में. छात्र-छात्राओं, महिलाओं (विशेषकर मुसलमान महिलाओं), कलाकारों  और सामाजिक कार्यकर्ताओं की स्वयंस्फूर्त भागीदारी का प्रमाण बने ये शांति पूर्ण विरोध प्रदर्शन एक नये दौर का आगाज़ कर रहे हैं.
इस विरोध में महिलाओं ने जिस हिम्मत, अडिगता, लगन, निर्भीकता और स्पष्टता से इस कानून का विरोध किया है वह निश्चित ही इस देश की जनता के नैतिक बल को एक नई ऊंचाई पर ले आया है. छात्र-छात्राओं ने कालेज में पढ़ी हुई बातों को और अपने विचारों को बाहर आकर समाज के सरोकार से जोड़ा. विशेष बात यह कि कलाकारों ने अपनी रचनाओं से इस आन्दोलन को पिछले दो सौ साल की यूरोपीय वैचारिक कैद से मुक्त कर देशज विचारों के आधार पर ऊर्जा का स्रोत बना दिया. फैज़ की ग़ज़ल ‘हम देखेंगे..’ ने नव-सृजन की ज़मीन मुहैया करा दी. वरुण ग्रोवर की ‘हम कागज़ नहीं दिखायेंगे’ या पुनीत शर्मा की ‘इस मिट्टी से मेरा सीधा रिश्ता है, तू कौन है बे !’ में कबीर और गाँधी की परम्परा में अन्यायी राज्यसत्ता से असहयोग और ललकार की मिलीजुली गूँज के साथ दिशा बोध भी है.
लेकिन इससे आगे का रास्ता बनाने के लिये जिस उर्जा की ज़रूरत है वह उस समाज में बसी है, जो वाकई में कागज़ से कभी भी बंधा नहीं रहा है या यूं कहें कि कागज़ से बंधने से इनकार करता रहा है, जबकि राज्यसत्ता इसे तरह-तरह से कागज़ से बांधना चाहती रहीं हैं. यही वह लोकविद्या-समाज है जो अपने ज्ञान से आलोकित है और जिसमें इस देश की बहुसंख्य जनता है. हम सब जानते हैं कि ये लोग हर धर्म, जाति और हुनर के हैं. यह समाज इस भूमि की गौरवशाली परम्परा का निर्माता है. इसमें किसान, कारीगर, आदिवासी, छोटे-छोटे दुकानदार, महिलायें और तमाम तरह के सेवा-मरम्मत कार्य से जुड़े परिवार हैं. इसी समाज के लिए गांधीजी ने कहा था कि “इस देश की जनता पर कोई राज नहीं कर सकता...” अन्यायी राज्यसत्तायें शोषण करने के लिये अपने कदमों को हमेशा ही कानून का जामा पहनाती हैं और औपचारिक घेरेबंदियाँ बढ़ाती जाती हैं. ऐसी सत्ताओं का मुकाबला ‘कागज़ नहीं दिखायेंगे’ से किया जा सकता है. इसमें भविष्य की बड़ी संभावनायें हैं.
‘हम मांगें आज़ादी’ के नारे को ज़मीनी अर्थ देने की क्षमता भी लोकविद्या-समाज के पास है. कागज़ के बल पर लादी गई तमाम तरह की गुलामी से मुक्ति का विचार इस समाज के ज्ञान और जीवन में है. एक नई नैतिक, सैद्धांतिक और राजनैतिक दिशा का बोध इस समाज के साथ जीवंत वार्ताओं में सामने आ सकता है. इसे ‘बौद्धिक सत्याग्रह’ का नाम दिया जा सकता है. गांधीजी ने हमें पहले ही इस संसदीय लोकतंत्र के पाखण्ड से आगाह कर दिया था. उन्होंने इस बात को बहुत गहराई से समझ लिया था कि हमारे किसान-कारीगर-आदिवासी समाजों में स्वायत्त सत्ताओं को बनाने और उन्हें बनाये रखने का आग्रह है. विभिन्न कार्यक्षेत्रों में बिखरी ये स्वायत्त सत्तायें ही उनकी आज़ादी को साकार करने की क्षमता रखती हैं. ये स्वायत्त सत्तायें ही उन्हें अन्याय का मुकाबला करने के नये-नये तरीकें उपलब्ध कराती हैं. इनमें नैतिक विचारों की वरीयता होती हैं. यह उस दुनिया का आगाज़ होगा जहाँ समाज का निर्धारण बाहरी दबावों से मुक्त होगा. हिंसा तथा बल के इस्तेमाल के लिये कोई स्थान नहीं होगा.

विद्या आश्रम