यह पोस्ट फिर से प्रकाशित कर रहे हैं . नीचे से दूसरे पैरा में दिया लाल रंग का वाक्य पिछले पोस्ट में न जाने कैसे छूट गया था. अंग्रेजी वाला ठीक है.
सहज जीवन
Ordinary Life पर चल रही यह बहस अगर हिंदी में चलाना
हो तो ‘सामान्य जीवन’ की जगह हमारी राय में ‘सहज जीवन’ शब्द का प्रयोग करना अधिक
सही होगा. ‘सहज’ शब्द जीवन के प्राकृतिक रूप के निकट ले जाता है और जीवन के
स्व-भाव को समझने में मददगार हो सकता है. हमारे देश में सहज पर तो दार्शनिक चिंतन
की एक लम्बी परंपरा भी है. किसी भी काल में सहज जीवन अथवा सरल जीवन जीने का प्रयास
करना यानि जीवन के स्व-भाव को हासिल करना माना गया है, और यह किसी तपस्या से कम
नहीं है. यह मुक्तिदायी जीवन है.
एक बार की बात है हम कुछ महिलाओं से मिलकर बच्चों के पालन-पोषण पर बात कर रहे
थे तब किसी महिला ने कहा “बच्चों को पाला नहीं जाता, वे पलते हैं ”. यह कथन ‘सहज
जीवन’ के कुछ पक्षों को उजागर करता-सा मालूम
पड़ता है. सहज शब्द के अर्थ में सामूहिकता, साथ-साथ, सहित, मिलकर, सहोदर, पैदा
होना शामिल है. सहज होना यानि अपने मूल रूप अथवा मूल स्वभाव पर आना है. मनुष्य को
अपने जीवन को सहज बनाना यानि उसे अधिकाधिक सुविधापूर्ण बनाना नहीं है और न उसकी
सक्रियता को घटाना. यह एक ऐसा जीवन है जो सहजीवन और सहअस्तित्व को आत्मसात करता
है.
हमारे यहाँ कबीर के समय सहजिया पंथ का प्रभाव व्याप्त था. सहजिया, सहज पंथ,
सहजधारी, सहजयान, सहज समाधी, सहज ध्यान आदि की लम्बी परंपरा है. हजारी प्रसाद के
अनुसार सहज साधना में ध्यान की अवस्था मन्त्र, आसन और तंत्र साधना के बिना भी
हासिल होती है. ‘सहज जीवन’ साधन, धन, तकनीकी, विचारधारा पर निर्भर नहीं है.
सहज बुद्धि का अर्थ है सभी जीवधारियों में प्रकृति से प्राप्त वह चेतना जिससे
वे कुछ करने के लिए प्रेरित होते हैं और सही-गलत का बोध कर पाते हैं. सहज का आग्रह
यह नैतिक शक्तियों को अर्जित करने का मार्ग रहा है. सीता का अशोक वन में घास की
पाती हाथ में लेकर रावण का मुकाबला करने की कथा सहज का आग्रह है. गांधीजी द्वारा
सीता का खादी पहनने का उदहारण सहज होने का आग्रह है. सहज यानि सादगी नहीं है,
बल्कि न्यायपूर्ण होने का आग्रह है.
समाज का नेतृत्व करने वालों को सहज होना, उनके विचारों को सहज होना, उनके
तरीके सहज होना यह एक अनिवार्य गुण साबित हुआ है. कला की गुणवत्ता में सहज एक
कसौटी रही है. माताओं का सहज होना बच्चों के सर्वांगीण विकास का आधार है. यह गौर
करने की बात है कि इन सभी क्रियाओं में नेतृत्व और लोगों के बीच या कलाकार और रसिक
के बीच या माँ और बच्चों में सम्प्रेषण हो पाए यह ‘सहज’ को अंगीकार करने का कारण
नहीं है. इनके बीच ऊँच-नीच का सम्बन्ध नहीं है बल्कि एक ही हो जाने का प्रयास है. कला दार्शनिक नीहार रंजन राय के अनुसार सृजनकारी नेतृत्व या कलाकार जो विचार और कार्य
सामने लाते हैं, उन्हें सामान्यत: समाज के अधिकांश स्त्री-पुरुष पहले से जानते
हैं.
समाज में बदलती परिस्थितियां मनुष्योचित कार्य के मार्ग में तरह-तरह के भ्रम
जाल फैलाती हैं. जैसे आज तकनीकी आधारित जीवन के चलते यह मान्यता हो गई है कि इनके
बिना कैसे जिया जा सकता है? सहज कला और सहज साहित्य इन जैसे भ्रम-जालों को सरलता
से हटाने का कार्य है. सहज कला-साहित्य अपने समय के सत्य को सरलतम रूपों में सामने
लाता है. कबीर का ‘ज्ञान का हाथी’ सहज का दुशाला ओढ़े है, गाँधी की दृष्टि में
विद्वत्ता की तुलना में ‘सहज बुद्धि’ श्रेष्ठ मानी गई. प्रेमचंद की ‘सहज शैली’ और हजारी
प्रसाद का ‘सहज भाषा’ का चिंतन ज्ञान-मार्ग को नैतिक और सरल बनाता है. चंद्रधर शर्मा
‘गुलेरी’ का ‘बोल-चाल की भाषा’ को शुद्ध भाषा का दर्जा देना और नामवर सिंह का
सामान्य पाठक की ‘सहज दृष्टि’ को सृजनशील समीक्षक का दर्जा देना, यह ‘सहज जीवन’ के
कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं को सामने ले आता है.
चित्रा सहस्रबुद्धे
Sahaj Jeevan
If this debate on ‘Ordinary Life’ is to be carried out
in Hindi then in my view the appropriate word would be ‘sahaj jeevan’
and not ‘samanya jeevan’. The word ‘sahaj’ takes one close to
natural forms life and it may be helpful in understanding the swa-bhaav
of life. In our country there is a long
tradition of philosophical reflection on ‘sahaj’ , the ordinary. In any
period attempts at ordinary life or simple life were seen as trying to be one
with swa-bhav of life, and this was no less than tapasya. This is
emancipatory life.
Once we were discussing with some women the question
of upbringing of children and one of them said “ children are not brought up, they
grow”. This statement seems to bring into light certain aspects of ordinary
life, sahaj jeevan. The meaning of sahaj includes being natural,
unhampered by extraneous influences, togetherness, inclusiveness, joining together,
brotherhood etc. To be sahaj is to gravitate towards basic forms,
instincts or the swa-bhaav . To make one’s life more and more sahaj
is not to add conveniences to one’s life , not to reduce one’s activity. Living
together and being together is intrinsic to ordinary life.
In
the times of Kabir there was a popular sect called Sahajiya Panth. There is a
long tradition of Sahajiya, Sahaj Panth, Sahaj Dhaari, Sahajyaan, Sahaj Samadhi,
Sahaj Dhyan etc. According to Hazari
Prasad Dwivedi in Sahaj Sadhna the state of dhyan is achievable
even without mantra, aasana and tantra. Sahaj jeevan is not dependent upon
resources, wealth, technology, ideology.
The
meaning of sahaj buddhi for all creatures is, that consciousness
obtained from nature which inspires them to do something and enables them to differentiate
what is right from what is wrong. Sahajagrah (सहजाग्रह), that is insistence on sahaj, is a way to obtain
moral strengths.
Sita’s
taking into her hand petals of grass as weapon to defend her against Ravan is
an instance of sahajagrah.
Gandhiji’s reference to Sita
wearing khadi is also for sahajagrah. Sahajagrah is to insist on what is
just.
Leaders of society need to be sahaj, their
thought needs to be sahaj, their methods need to be sahaj. Sahaj is part of the criteria of art appreciation.
Mothers need to be sahaj for all round development of children. It is
not for communication between leadership and the people or between artists and
audience or between mother and her children that the need for being sahaj
is felt, for there is no hierarchy in these relationships, they strive for
unity. The philosopher of art Neehar Ranjan Ray says that the thoughts and
creations brought forward by the creative leaderships or the artists are
ordinarily already known to most men and women in society.
The changing situations in society sometimes create
confusions while performing tasks appropriate for human beings. For example the
spread of technology has given currency to the thought that life would be very
difficult without technology. Sahaj art and sahaj literature remove
such confusion. Sahaj art-literature presents the truth of its time in
very simple form. Some examples from the towering figures of Hindi literature
illustrate the point. Kabir’s ‘elephant of knowledge’ wears a shawl of sahaj.
For Gandhi, sahaj-buddhi has preference over scholarship. The ordinary style
of Premchand and the ordinary language of Hazari Prasad Dwivedi make gyan-marg,
the path of knowledge, simple. Chandrdhar
Sharma ‘Guleri’ gave spoken language the status of correct and pure language and Namawar Singh gave the natural stand point
of an ordinary reader the status of a creative critic. These bring forward some
important aspects of sahaj jeevan,
Ordinary Life.
Chitra Sahasrabudhey