Friday, February 19, 2021

Swaraj Dialogue – 2

Farmers Movement : Is there a Knowledge Conflict?

The conflict between the Government and the Farmers’ Movement does not appear to be heading towards a solution. On one side is the government (majority in the Parliament) and on the other is the farmers’ understanding of the three laws finding expression in the statements of Samyukt Kisan Morcha and the Mahapanchayts.

The government is talking about the advantage/profit to the farmers and the farmer is talking about ‘justice’. The world of knowledge, with which the parliament and the political processes their off are connected, is tied to the logic of ‘profit and loss’. This world of knowledge was born some 4-5 hundred years ago in Europe in a process in which were also born the new cities, trade and market which pushed the village and the farmer to the secondary position. Those who lived in the new cities became the citizens. Over time this process gave birth to parliamentary democracy. Morality, justice, and sacrifice have no place in this world of knowledge . It is this knowledge that is the ideal of the universities today. On the other hand, the worlds of knowledge to which the farmers belong have different traditions. We can call them swadeshi traditions of knowledge’ where justice, sacrifice and peoples’ agree-ability (lokasammat) are present intrinsically.

It appears that the stalemate, in the ultimate analysis, stems from the deep differences between these two worlds of knowledge. It is not easy to find a way in such an impasse. The government commands greater physical force and may find a solution based on such force. However, it will not be respectable and both sides would be hurt albeit in different ways. Anyway, the solution to be found will be determined by the leaderships of the two sides. They may be able to find a respectable solution, but one thing is certain that ways will have to be found to move towards a new arrangement of things and men/women, which incorporates the values of both, the Panchayat and the Parliamentary Democracy.   

Broadly speaking the whole society ought to be part of this search for the new arrangement, the systems of governance and conflict resolution. It will require fraternal relationship between various ways of thinking and streams of knowledge in society. Specifically, what is needed is a friendly relation between the knowledge in the university and the knowledge in society, namely lokavidya. Each will have to recognize and respect the interdependent, autonomous and sovereign nature of the other. This sub-continent is not unaware of such governance and social regulation. Traditions of swaraj is where we need to look to.

Sunil Sahasrabudhey 

19 February 2021

Vidya Ashram, Sarnath 


स्वराज संवाद – 2

किसान आन्दोलन और सरकार के बीच की जिच कुछ हल होने का नाम नहीं ले रही है. एक ओर सरकार (संसद में बहुमत) का निर्णय है और दूसरी ओर किसानों की समझ जिसकी झलक संयुक्त किसान मोर्चे के वक्तव्यों और महापंचायतों की प्रक्रियाओं में मिलती है. सरकार किसानों के फायदे की बात कर रही है और किसान न्यायकी बात कर रहा है.

संसद जिस ज्ञान की दुनिया से जुड़ा राजनीतिक उपकरण है वह ज्ञान की दुनिया फायदे और नुकसानके तर्कों से बंधी है. यह वही ज्ञान की दुनिया है, जिसका जन्म कुछ 4-5 सौ साल पहले यूरोप में हुआ, उसी प्रक्रिया में हुआ जिसमें नये शहर और नये व्यापार व बाज़ार ने आकार लिया, जिसने गाँव और किसान को दूसरे नंबर का बना दिया. नागरिक वे हो गए जो नगर में रहते थे. समयांतर में इसी प्रक्रिया में संसदीय लोकतंत्र का जन्म हुआ. इस ज्ञान की दुनिया में नैतिकता, न्याय, त्याग, आदि का कोई स्थान नहीं होता. यही ज्ञान आज के विश्वविद्यालयों का आदर्श है. दूसरी ओर जिस ज्ञान की दुनिया में किसान बसता है उसकी परंपरा अलग है. इसे हम स्वदेशी ज्ञान परंपरा कह सकते हैं, जहाँ न्याय, त्याग अथवा लोकसम्मतकी अन्तरंग उपस्थिति होती है.

इन दो ज्ञान-विश्वों के बीच के गहरे अंतर ही हल न निकल पाने की पृष्ठभूमि में हैं, ऐसा लगता है. इसमें से रास्ता निकालना आसान नहीं है. सरकार के पास भौतिक ताकत ज्यादा है और वह कोई बल आधारित हल खोज सकती है, लेकिन दोनों ही पक्षों के लिये वह सम्मानजनक नहीं होगा, उससे दोनों ही पक्ष आहत होंगे. बहरहाल रास्ता क्या निकलेगा यह तो इस गतिरोध के विविध पक्षों का नेतृत्व करने वाले ही तय करेंगे. शायद वे दोनों पक्षों के लिये सम्मानजनक हल भी ढूंढ लें लेकिन एक बात तो साफ़ नज़र आ रही है कि न्यायोचित और प्रभावी शासन के लिये संसदीय लोकतंत्र और पंचायत दोनों के मूल्यों को समाहित करने वाली नई व्यवस्था की ओर बढ़ने के रास्ते भी ढूंढने होंगे.

नई व्यवस्थाओं की खोज में पूरे समाज को शामिल होना होगा. समाज में जितनी भी ज्ञान की धाराएँ हैं उनके बीच भाईचारा और सौहार्द से ही वांछित उद्देश्य की प्राप्ति हो सकती है. मोटे तौर पर कहें तो विश्वविद्यालय के ज्ञान और लोकविदया यानि समाज में ज्ञानके बीच दोस्ताने का सम्बन्ध होना होगा. दोनों को एक दूसरे में निहित पारस्परिक निर्भरता, स्वायत्तता और प्रभुसत्ता को मान्यता देनी होगी. भारत देश ऐसे शासन और समाज सञ्चालन से अनभिज्ञ नहीं है. स्वराज की परम्पराएँ कुछ ऐसी ही हैं.

 सुनील सहस्रबुद्धे

19 फरवरी 2021

विद्या आश्रम सारनाथ


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