Monday, February 4, 2013

रचना के नए स्थान

संचार और संपर्क के इस युग में लोक, लोककला और कला जगत के बीच रिश्तों पर एक नयी बहस जन्म ले रही है क्योंकि कला की उपस्थिति समाज में बढ़ी है। कलाकर्मी जब लोक से किसी कला (ज्ञान) का हिस्सा लेते हैं तब उन्हें वापस करने के बारे में क्या सोचते हैं ? यह सवाल वैसा ही है जैसे प्रकृति से जब  उद्योगपति कुछ उठाते  हैं  तो वापस करने के बारे में क्या सोचते हैं ? लोकविद्या ताना-बाना  समाज में स्थित सम्बन्ध और संपर्क का वह जाल है जिसके मार्फ़त कलाकार लोक को वापस करने के कर्त्तव्य निभा सकता है और साथ ही अपनी सृजनात्मकता को नयी ऊँचाइयों पर ले जा सकता है। 

नीचे लोकविद्या के भंडार की व्यापकता को दिखाते हुए यही बात कहने का प्रयास है।

लोकविद्या की हर तरफ सराहना हो रही है। संगीत के क्षेत्र में लोकसंगीत को समाज में इज्ज़त है। समारोह और सम्मेलनों में लोग इसे खूब पसंद करते हैं। सिनेमा संगीत में इसकी लोकप्रियता का जवाब नहीं है। नौशाद, सचिनदेव बर्मन, ओ पी नैयर ने तो लोकसंगीत के बल पर लोकप्रियता के झंडें गाड दिए। नए संगीतकारों में ए . रहमान, विशाल भारद्वाज, स्नेहा खानवलकर  आदि भी पीछे नहीं हैं। गीत और बोल के मामले में तो गीतकारों ने लोकगीत ही उठा लिए हैं। लोकगायकी का लोहा कौन नहीं मानता? ठुमरी, होरी, चैती, कहरवा, निर्गुण, सभी ने शास्त्रीय संगीत में अपनी खास जगह बना ली है। नाटकों में भी लोककथा, लोकवाद्य, लोकजीवन को इज्ज़त का स्थान है। हबीब तनवीर को कौन नहीं जानता? कविता, कहानी, उपन्यास और पटकथाओं में लोकभाषाओं का प्रचुर इस्तेमाल हो रहा हैं और लोग इनके दम-ख़म और अभिव्यक्ति की समृद्धि के कायल हैं। फणीश्वरनाथ रेणु  ने हिंदी साहित्य में जो रास्ता खोला वह आज बहुत चौड़ा हो चुका है और उस पर चलने वाले साहित्यकारों की एक बड़ी संख्या है, वे लोकप्रिय भी हैं। शिल्प की दुनिया में लोककला का सानी नहीं है। फैशन की दुनिया में लोककला को ऊंचा मान है। कपडे की बुनाई, रंगाई, छपाई, कसीदाकारी, फर्नीचर के डिज़ाइन, घरों की बनावट और सजावट, स्वाथ्य रक्षा सब में लोककला की बड़ी इज्ज़त है। यही नहीं विश्वविद्यालयों के ज्यादातर विभागों में आज जो शोध हो रहे हैं उनका आधार लोकविद्या के भंडार को खंगालने और जानकारियों को संग्रहित करने से सम्बंधित हैं।

इतना सब होने के बावजूद लोकविद्या को ज्ञान का दर्जा देने और लोकाविद्याधर को ज्ञानी मानने से सभी हिचकते हैं। यह हिचकिचाहट इसलिए है कि ज्ञान के क्षेत्र में केवल साइंस यानि मोटे तौर पर विश्वविद्यालय में पढाये जाने वाले ज्ञान को ही ज्ञान माना जाता है। दूसरी बात यह है कि ज्यादातर लोगों में लोकविद्या के प्रति उत्सुकता है लेकिन लोकाविद्याधर समाज की बदहाली के प्रति वे उदासीन हैं। एक बात और है, वह यह कि लोकविद्या अथवा लोक-कलाओं को व्यक्तियों अथवा समुदायों के कौशल के रूप में देखा जाता है तथा उस स्थान को नहीं पहचाना जाता जो ऐसी विद्याओं में गति बनाये रखने का स्थान है। लोकविद्या ताना-बाना ही यह स्थान है। कला, भाषा और मीडिया के नए रूपों का इस स्थान से सक्रिय और सकारात्मक सम्बन्ध बनना है। 

सूचना युग ने एक बदलाव लाया है। इस युग ने बढ़ते व्यवसायीकरण के चलते ज्ञान को मुनाफा कमाने की वस्तु में तब्दील कर दिया है। इसका सबसे बड़ा नतीजा यह हुआ है कि लोकविद्या, यानि लोगों की विद्या, समाज में पैदा और समृद्ध होने वाले ज्ञान की लूट शुरू हो गयी है। किसानों, आदिवासियों, कारीगरों, महिलाओं के पास की लोकभाषा, लोककला, लोकसंगीत, लोकगीत, कृषि, वान्यिकी, जल-प्रबंधन, कारीगरी, स्वास्थ्य, आदि अनेक क्षेत्रों की जानकारियों को संग्रहित करने की होड़ मची है। मीडिया के नए रूप ने इस लूट को नए आयाम दिए है। संचार और संपर्क यानि मीडिया आज ज्ञान के प्रबंधन में एक अग्रणी स्थान पर है।

लोकविद्या जन आन्दोलन की यह मान्यता है कि सभी ज्ञान लोकविद्या में जन्म लेते हैं और लौटकर लोकविद्या में आते हैं। जो ज्ञान धाराएं वापस लौटकर लोकविद्या में नहीं आतीं, वे समयांतर में मनुष्य, समाज और प्रकृति की दुश्मन हो जाती हैं। लोकविद्या ताना-बाना वह ढ़ांचा  हो सकता है जिसके मार्फ़त वापस लौटने के रास्ते बनते हैं। 

अभी तक कला के क्षेत्रों ने, सिनेमा, नाट्य, संगीत, चित्रकला, साहित्य, शिल्प आदि सभी क्षेत्रों ने लोकविद्या से बहुत कुछ लिया है। क्या लोकविद्या को वापस लौटाने की किन्हीं जिम्मेदारियों, प्रक्रियाओं और तरीकों पर विचार होना ज़रूरी नहीं है? क्या लोकविद्या के निर्माणकर्ताओं के प्रति शासन, कला संस्थाओं और कलाकारों की कोई ज़िम्मेदारी बनती है? क्या लोकविद्या की लूट को रोकने और लोकाविद्याधरों की तिरस्कृत ज़िन्दगी को खुशहाली की ओर ले जाने के रास्तों को बनाने में इन सभी को अपनी भूमिका तय करने की ज़रुरत नहीं है? और क्या इन जिम्मेदारियों और भूमिकाओं को सजग करने और मूर्त रूप देने में नए मीडिया की एक अग्रणी भूमिका नहीं होनी चाहिए? 

लोकविद्या ताना-बाना को समयानुकूल नया भाव और अर्थ देना वापस देने के विचार को एक नया अर्थ देता है। यह कैसे होगा कि लोकविद्या ताना-बाना को समाज में सोशल मीडिया जैसी पहचान मिले ?  ये क्रियाएं बहुत बड़े पैमाने पर लोगों को सार्वजनिक दुनिया में शामिल करने में योगदान कर सकती हैं। 

लोक, भाषा, कला और मीडिया पर चर्चा एक साथ होनी चाहिए। इनके बीच के सक्रिय सम्बन्ध और इनमें ज्ञान के रूप की साईंस से भिन्नता के चलते ये क्षेत्र लोकविद्या ताना-बाना के पुनर्निर्माण को गति देने में विशेष भूमिका निभा सकते हैं।

चित्रा सहस्रबुद्धे 

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