वाराणसी का पंचगंगा घाट कबीर के ज्ञान प्राप्ति का स्थान माना जाता है. कबीर
ज्ञान पंचायत के लिए यह सबसे उपयुक्त स्थान होता. इस बार हम इसे नहीं कर पाए, अगली
बार यहाँ कबीर दर्शन से साक्षात्कार का आयोजन करने का प्रयास ज़रूर करेंगे. वाराणसी
में पंचगंगा घाट से उत्तर-पूर्व दिशा में लगभग एक किलोमीटर दूर, राजघाट (भैंसासुर
घाट) पर दर्शन अखाड़ा है. इस वर्ष कबीर जयंती (17 जून ) के चार दिन पूर्व 13 जून को
दर्शन अखाड़ा में कबीर ज्ञान पंचायत रखी गई. इस कबीर ज्ञान पंचायत में वाराणसी के
कुछ सामाजिक विचारक और कार्यकर्त्ता जुटे. आज की दुनिया में कबीर दर्शन से क्या
उजाला मिलता है इस विषय पर सभी ने अपने-अपने विचारों को साझा किया. कबीर दर्शन
ज्ञान और विचार की दुनिया में एक बहुत बड़ा फलक देता है, ऐसे में चर्चा के
प्रस्थानबिन्दु के रूप में उनका एक पद पंचायत के सामने रखा गया.
मेरा तेरा मनुवा कैसे होई एक रे II
मैं कहता आंखन की देखी, तू कहता कागज़ की लेखी I
मैं कहता सुरझावनहारी, तू राख्यो उरझाई रे I
मेरा तेरा मनुवा कैसे होई एक रे II
मैं कहता जागत रहियो, तू रहता है सोई रे I
मैं कहता निर्मोही रहियो, तू जाता है मोई रे I
मेरा तेरा मनुवा कैसे होई एक रे II
बायें से -- महेंद्र मौर्य, अरुण कुमार, रामजनम, फ़ज़लुर्रहमान अंसारी,
एहसान अली. मतीन अंसारी, गोरखनाथ और मो. अलीम
कबीर ने अपने समय के स्थापित संगठित ज्ञान और सत्ता की सांठ-गांठ को चुनौती दी.
ज्ञान जिसे समाज का एक छोटा सा समूह ही
हासिल कर पाता है और जिस ज्ञान का सत्ता से सीधा सम्बन्ध होता है उस समूह को अपने ज्ञान
का अपार दंभ हो जाता है. वह खुद को समाज के अन्य लोगों से अलग करता है, अपने को विशेष
समझता है, शेष समाज को मूर्ख समझता है. कबीर के समय यही स्थिति थी. उनके समय
स्थापित ज्ञान बहुत कुछ धार्मिक घेरे में रहा, ऐसे में वे धर्म के ठेकेदारों को
संबोधित करते दिखाई देते हैं. आज अगर कबीर होते तो किसे संबोधित करते? आज का
प्रतिष्ठित ज्ञान विश्वविद्यालय का ज्ञान है. विश्वविद्यालय राजसत्ता के साथ
सांठ-गांठ कर ज्ञान के ठेकेदार बने हुए हैं. ये राजसत्ता की नीतियों को समाज में
मान्यता और आधार प्रदान करने के औजार हैं. इस ज्ञान का सत्य और न्याय से कोई
लेना-देना नहीं है, लोगों की आवश्यकतायें और कष्टों से कोई लेना-देना नहीं है. अगर
होता तो हमारी रोज़गार, उद्योग, शिक्षा, न्याय, चिकित्सा, आदि की नीतियां, गाँव और
शहरों का संगठन और सम्बन्ध कुछ ही लोगों के लिए लाभ और सुविधा देने के लिए न बन गए
होते. हम सभी जानते हैं कि गांधीजी ने भी अपने समय के प्रतिष्ठित ज्ञान और सत्ता
के सम्बन्ध को अन्यायी और लोक विरोधी कह कर चुनौती दी.
आज के “कागज़ की लेखी” ज्ञान के वाहक और राजसत्ता से सुविधा प्राप्त समूह के
ज्ञान और ज्ञान-संस्थानों को चुनौती “आंखन देखी” ज्ञान-परंपरा के वाहक समाजों से
जब मिलेगी तो समाज के सभी तबकों और हिस्सों के लिए न्याय का रास्ता खुलेगा. पंचायत
में विषय को रखते हुए सुनीलजी ने कहा कि इस चुनौती को पद की पहली पंक्ति “मेरा
तेरा मनुवा कैसे होई एक रे” अपनी सम्पूर्णता में सामने लाती है. समाज को सभी तरह
के ज्ञान की आवश्यकता है. ऐसे में किसी एक ही ज्ञान को प्रतिष्ठित किया जाये या ज्ञान
की कसौटी बना दिया जाए तो यह अन्याय का रास्ता खोल देता है. ऐसे में प्रतिष्ठित
ज्ञान और समाज में स्थित ज्ञान प्रवाहों के बीच बराबरी और मैत्री का सम्बन्ध
आवश्यक है.
बाएं से -- प्रेमलताजी, चित्राजी, सरगम येर्रा और वनलता बुलुसु
कबीर ज्ञान पंचायत में उपरोक्त पद का सन्दर्भ लेते हुए सभी लोगों ने अपने
विचार रखे. महेंद्र प्रसाद मौर्य ने कहा कि कबीर ज्ञान की इजारेदारी का विरोध करते
हैं. सबके पास ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और हर कोई ज्ञान प्राप्त करता है. सबका ज्ञान
अलग अलग होता है. यह अलग-अलग ज्ञान समाज के बीच आना चाहिए. हैदराबाद से इस पंचायत
में शामिल होने आई वनलता ने सवाल उठाया कि ज्ञान पर सहमति के आधार क्या हों, इस पर
भी विचार होना चाहिए. प्रेमलताजी ने इस बात पर जोर दिया कि ज्ञान को व्यक्तिगत
पहचान के साथ न देख कर समाज के ज्ञान के
रूप में देखना होगा. लक्ष्मण प्रसाद ने कबीर के सहज ज्ञान की ओर सबका ध्यान खींचा
और कहा कि सहज ज्ञान को समाज में प्रतिष्ठा मिलेगी तो पाखंड और अन्याय से मुक्ति
का रास्ता खुलेगा. रामजनम ने कहा कि किसान और गाँव- समाज के पास जो ज्ञान है उसे
न्याय मिलना चाहिए. गोरखनाथ ने कबीर के ज्ञान को सत्य से तपा और प्रेम से सिक्त
हुआ कहा. एहसान भाई का जोर हमेशा की तरह नैतिकता पर था. कैसे भी दबाव के बावजूद
सही और गलत की पहचान से ही रास्ता बने और अपने को बड़ा और दूसरे को छोटा न देखा
जाए. फ़ज़लुर्रहमान अंसारी ने इस बात पर जोर दिया कि कबीर की ज्ञान परंपरा में हमें
खुद को देखना होगा, न कि कबीर संस्थानों की परम्परा में. ऐसे में कारीगर और किसान
समाजों को अपने ज्ञान को विश्वविद्यालय के ज्ञान के बराबर होने का दावा प्रस्तुत
करना होगा. रास्ता चाहे लम्बा हो लेकिन यही सत्य का रास्ता है, यही कबीर का रास्ता
है. अरुणजी ने कहा कि इन सभी बातों पर सहमति है लेकिन प्रमुख बात “मेरा तेरा मनुवा
कैसे होई एक रे” में देखी जाये. लोकविद्या समाज और उच्च शिक्षित लोगों के बीच,
उनकी विद्याओं के बीच मैत्री और सद्भाव का रिश्ता कैसे बने यह प्रमुख चिंता का
विषय है. इसके लिए क्या क्रिया करनी चाहिए? बुनकर दस्तकार मंच के मतीन भाई ने कहा
कि “मेरा तेरा मनुवा कैसे होई एक रे” यही आज जनसंगठनों और जन आंदोलनों का प्रमुख
कार्य है. चित्राजी ने कहा कि इस पद से स्वराज की कल्पना को आधार मिलता दिखाई देता
है. ऐसे समाज की कल्पना जिसमें विशेषज्ञों के बल पर नहीं बल्कि सामान्य जन के
ज्ञान के बल पर सबकी अपनी-अपनी पहल के साथ भागीदारी हो. अंत में गोरखनाथ जी ने
दर्शन अखाड़ा की ओर से सबके प्रति अपने आभार व्यक्त किये.
विद्या आश्रम
विद्या आश्रम
मुझे लोकविद्या का ननबर पता मिला में 3 साल से ढूंढ रहा था
ReplyDeleteअमित बसोले मेरा दोस्त है
उसके किताब में लोकविद्या का जिक्र था
आज खुश हुआ
मुझे अमित की किताब और उसका मोबाइल नम्बर दीजिये मुझे लोकविद्या का दृष्टिकोण सही है क्यों कि में सहमत हूं
आपका श्याम सोनार मुम्बई महाराष्ट्र