अश्विन पूर्णिमा, शनिवार, 31अक्तूबर, 2020
विषय प्रवेश
‘बिरादरी’ शब्द को खोल कर देखना होगा : बिरादरी का शाब्दिक अर्थ
भाईचारे से है, एक ऐसा समुदाय जिसमें सब बराबर हैं. बिरादरी केवल पारंपरिक ही नहीं
होती, नई बनती रहती हैं और कुछ अपना अस्तित्व खोती भी रहती हैं. बिरादरी को
मुख्यतः पारंपरिक पेशेगत आधार पर देखा जाता हैं. अगर पेशेगत आधार पर देखें तो आधुनिक समाज में भी
बिरादरियां दिखाई देती हैं. उदाहरणार्थ डाक्टर, वकील, इंजीनियर, प्रशासक आदि.
लेकिन ‘बिरादरी’ शब्द में केवल पेशे का संकेत नहीं है. बिरादरियों के अपने
सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, व्यवसाय आदि के मूल्य होते हैं. इसमें व्यापक
जीवनमूल्यों और नैतिक संबंधों के दृष्टिकोण भी होते हैं, जो अलग-अलग हो सकते हैं
और ‘बिरादरी’ को एक ‘समाज’ का अर्थ प्रदान करते हैं. इस ज्ञान-पंचायत में
‘बिरादरी’ के इस व्यापक अर्थ को स्थान दिया जाना है.
आज़ाद भारत में शुरू से अब
तक विभिन्न बिरादरियों के बीच ऊँच-नीच का सवाल प्रमुख बना हुआ है. ऐसे तो बीसवीं सदी के
प्रारंभ से ही सार्वजनिक जीवन में ‘बिरादरियों का आत्मसम्मान’ एक महत्त्व
का मुद्दा बना. पिछले कुछ दशकों से बिरादरियों के आत्म-सम्मान और गौरव को संगठित
ढंग से सामने लाने की कोशिशें हो रही हैं, जिसमें जातीय इतिहास को सामने लाने
और जातीय सेनाओं के संगठन की पहल नज़र आ रही है. हम इन मुद्दों पर एक नज़र डाल
के अपनी बात रखेंगे.
1.
बिरादरियों में ऊँच–नीच
का सवाल और राजनीति : आज़ाद भारत में इस सोच के साथ कि बिरादरियों के बीच ऊँच-नीच सदियों से चली
आ रही है, एक किस्म की राजनीति ने
आकार लिया, जिसके अंतर्गत ब्राह्मणवाद का विरोध, आरक्षण की नीतियां, जाति-तोड़ो
आन्दोलन, जाति-व्यवस्था का निर्मूलन, वर्ग विभाजन से जाति विभाजन को प्रमुख मानना
आदि जैसे अभियान, आन्दोलन और सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों ने आकार लिया. लेकिन आज भी बिरादरियों में ऊँच-नीच है, यह
सच है और इसका राजनीति से गहरा सम्बन्ध है, यह भी सच है. संविधान में सभी नागरिक
बराबर माने जाने के बावजूद राजनैतिक दल वोट संग्रह के लिए इस ऊँच-नीच का फायदा
उठाते हैं. इस राजनीति से जातीय संघर्षों को भी हवा मिलती रहती है. यहाँ दो सवाल हैं. पहला,
क्या इस ऊँच-नीच का स्वरुप और पैमाना सदियों से स्थिर है या बदलता रहा है? दूसरा,
‘विकास’ के राजनैतिक दर्शन ने पढ़े-लिखे और कम पढ़े/अनपढ़ लोगों के बीच जो
आर्थिक-सामाजिक ऊँच-नीच पैदा की है क्या वह बिरादरियों के बीच की ऊँच-नीच जैसी ही
है? बिरादरियों के बीच यह ऊंच-नीच तो ख़त्म होनी ही होगी चाहे वो सदियों से हो या आधुनिक
राज्य की ‘विकास’ नीतियों से जन्मी हो. यह एक समग्र राजनैतिक
दर्शन की मांग करता है लेकिन दोनों ही प्रकार की बिरादरियों के बीच ऊँच-नीच को ख़त्म करने के लिए एक
नैतिक राजनीति का दर्शन चाहिए, वो कहाँ से आएगा?
2.
बिरादरियों का आत्मसम्मान
और राजनीति : आज़ाद भारत में बिरादरियों ने अपने-अपने
इतिहास को गौरवपूर्ण प्रस्तुत कर आत्मसम्मान को हासिल करने का मार्ग भी चुना है. इस
मार्ग पर चलते हुए और आज की राजनीति का दबाव झेलते हुए पिछले दशकों से जातीय
सेनाओं के संगठन की पहल भी दिखाई देती है. ब्रह्मर्षि सेना, निषाद सेना, रणवीर
सेना, करणी सेना, भूमि सेना, आज़ाद सेना, भीम आर्मी, आदि. इन सेनाओं का आत्म-सम्मान
का वैचारिक आधार अधिकतर ‘इतिहास में इनके पास राजसत्ता होने’ का है और आज सेना
जैसे ‘बल-संगठन’ का आधार इसे पुनः हासिल करने अथवा अपने गौरव की रक्षा की इच्छा
में है. हो सकता है इनके आलावा कुछ अन्य आधार भी हों. इस तरह की पहल बिरादरियों के
आत्मसम्मान और आत्मविश्वास को आकार देने की शुरुआत भी कर रही हैं. लेकिन किसी भी बिरादरी का ‘भौतिक बल’ आधुनिक राज्यसत्ता की ताकत के सामने बहुत छोटा है. ऐसे में ये
ताकतें आधुनिक राजनीति/राज्यसत्ता की सेवा में ही अपने अस्तित्व को बनाये रखने के
लिए बाध्य होती हैं. ये न अपने लिए और न बृहत समाज के लिए न्याय हासिल करने की किसी
नैतिक राजनीति के लिए मार्ग खोल सकती हैं.
3. लोकविद्या आन्दोलन का दृष्टिकोण : लोकविद्या दृष्टिकोण उपरोक्त दोनों बातों, यानि बिरादरियों के बीच ऊँच-नीच को ख़त्म करने और बिरादरियों के आत्मसम्मान की सार्वजनिक स्थापना, को एक साथ लाने में नए मार्ग खुलने की संभावनाओं को देखता है. इसके लिए नीचे लिखे विचार प्रस्थान बिंदु हो सकते है.
· बिरादरी एक समाज ही
होती है और ऐसे कई समाजों से मिलकर हमारा बृहत समाज बना है. बिरादरी का आत्मसम्मान
उनके समाज के ज्ञान में देखने पर, बिरादरी ये संस्कृतियों के ऐसे ज्ञान-पुंज दिखाई
देंगी जो अपनी स्वायत्त पहचान के साथ स्वयं प्रकाशित हैं.
· बिरादरी के ज्ञान
में उत्पादन, तकनीकी, भण्डारण, वितरण आदि के साथ कला, दर्शन, शासन, प्रकृति के साथ रिश्ते और
अन्य बिरादरियों के साथ संबंधों का ऐसा ज्ञान मिलेगा जो आज ‘आधुनिक ज्ञान’ की
क्षमताओं से बाहर हैं. इस ज्ञान के भण्डार को बिरादरियों के आत्मसम्मान का आधार
बनाना होगा. उनका ज्ञान ‘आधुनिक ज्ञान’ से अधिक नैतिक व न्याय-संगत हैं इसका दावा
पेश करना होगा.
· पुराने ब्राह्मणवाद
और आधुनिक ज्ञान से स्थापित नए ब्राह्मणवाद को एक साथ ख़त्म करने का रास्ता होगा-
ज्ञान के आधार पर बराबरी और आत्मसम्मान का दावा करना. इसमें जातियों के बीच
ऊँच-नीच को ख़त्म करने की सशक्त शुरुआत हो सकती है.
· इतिहास हमें
दिखाता है कि हमारे देश में विभिन्न कालों में देश के अलग-अलग हिस्सों पर अलग-अलग
बिरादरियों के राजाओं ने शासन किया. और इन्हीं राजाओं के दौर में बृहत समाज ने
ज्ञान के सभी क्षेत्रों जैसे दर्शन, कला, शिल्प, उत्पादन, गणित, तकनीकी, आदि में
ऊँचाइयाँ हासिल कीं. ये कैसे हो पाया? आत्मसम्मान हासिल करने के आंदोलनों में ये
किस प्रकार शामिल होगा?
· केंद्रीकृत आधुनिक शासन में बिरादरियों का स्थान अटपटा ही बनता है. ये
ऐसी शासन व्यवस्थाओं का अंग रही हैं और हो सकती हैं जिनमें स्वायत्तता, सम्प्रभुता
और सत्ता जनता के अधिक निकट हो.
·
चित्रा सहस्रबुद्धे
विद्या आश्रम
No comments:
Post a Comment