Wednesday, March 24, 2021

Nyaya, Tyaga and Bhaichara

 Yesterday was the day of martyrdom of Bhagat Singh, Sukhdev and Rajguru. It is always a very big occasion to seek invigoration from positive social values whose great source it constitutes. It was also Dr. Lohiya’s jayanti. His followers call him ‘aadi vidrohi’ and others do not object to it. We need to reflect deeply in the context of the ongoing farmers’ movement.

The farmers have rebelled since the imposition of Zamindaari by the British through the Permanent Settlement Act back in 1770s. There have been innumerable peasant struggles and movements since then. The methods and forms of enslaving the peasants and looting their produce have kept changing. The government and the corporations have now come up with the three new farm laws relating to agricultural production, exchange and storage and doing away with the MSP to loot farmers’ knowledge and labour. They want to appropriate land and exercise complete control on farmers’ lives. The farmers are fighting and other sections of population have come forward in a big way to support them. They seem to be taking the Nation to a promising future. Martyrdom of hundreds and express sacrifices in a highly fraternal atmosphere seem to be drawing new contours for us as a Nation and a society. Can we decipher it?
If we think in the context of the values like Nyaya, Tyaga and Bhaichaara ( न्याय, त्याग और भाईचारा) then we may understand what the farmer is saying. Farmers are great carriers of the traditions of this country. They retain the good and the desirable and enrich it with new experiences to create and recreate life incessantly.
‘Just’ is not separable from ‘logical’. A major aspect of Indian philosophical tradition known as ‘Nyaya Shastra’ is referred to as Indian Logic in modern scholarship. For women, peasants, artisans, daily service providers and adivasis, broadly speaking in ordinary life, ‘just’ and ‘logical’ or rational’ are not seen as separate entities. ‘Tyaga’(sacrifice) does not only mean ‘asanchay’(non-storage), giving one’s time to society is part of it. ‘Tyaga’ clears the way to free oneself from moha (greed) and aham (ego). It has its direct role also in regulation and governance of society. The stories of kings like Harshavardhan, Bhoja and Vikramaditya are not prevalent for no reason. Nyaya and Tyaga fuse to make clear the path of truth and knowledge.
Bhaichara is rooted deep in our tradition, in ways many of us may not be able to imagine. Before the British intervention there were spread all over the country villages known as ‘bhaichara villages’. In the South they were called ‘manyam villages’. The fertile lands of these villages were redistributed among the peasants’ households every few years. There the land revenue was small and they were models of self governance.
In the end only this that the farmers’ movement is telling the way to a ‘khushhaal samaj’(flourishing society). Farmers will be masters of land. They will decide what to do with it. And if they get a just price for their produce, things will change in a big way. It is known that when farmers get a better price for their produce, local markets buzz with activity. They flourish to everybody’s advantage there. It is in this that lie the roots of reconstructing a distributed and flourishing society. Centralized political power, big capital and big markets are the hurdles in such a path, they need to be confronted in the immediate space in the guidance of social values like bhaichara, tyaga and nyaya.

Sunil Sahasrabudhey
24 March 2021


न्याय, त्याग और भाईचारा
कल भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत का दिन था . बहुत बड़ा दिन था. यह समाज में सकारात्मक मूल्यों के संचार का एक बहुत बड़ा स्रोत है. सोचने के लिए एक सहारा है. कल ही डा. लोहिया का भी जन्म दिन था. उनके अनुयायी उन्हें ‘आदि विद्रोही’ कहते हैं, बाकी लोग भी इस पर आपत्ति नहीं करते. कोई तो सबक लेना ही चाहिए. खासकर किसान आन्दोलन के सन्दर्भ में.
अंग्रेजों ने ज़मींदारी की व्यवस्था लागू की तबसे किसान विद्रोह कर रहा है. आन्दोलन कर रहा है. ज़मीन पर नियंत्रण और उसके फल की लूट के तरीके बदलते रहे हैं. सरकारें और पूँजी के बड़े घराने अब इन नए तीन कानूनों को बनाकर और एम.एस.पी. को वेदी पर चढ़ा कर किसान के ज्ञान और श्रम, उसकी ज़मीन और ज़िन्दगी पर क़ब्ज़ा करके लूट के नए पैमाने गढ़ना चाहते हैं. किसान लड़ रहा है और बड़ी तादाद में और लोग उसका साथ दे रहे हैं. देश के लिए कुछ अच्छा होने वाला है. सैंकड़ों लोगों की शहादत, आन्दोलन में दिन रात शामिल लोगों का त्याग और उनके बीच का भाईचारा देश के लिए एक नई इबारत लिख रहा है. क्या हम उसे पढ़ सकते हैं?
न्याय, त्याग और भाईचारा मोटे तौर पर वे मूल्य नज़र आ रहे हैं जिनके सन्दर्भ में सोचने से किसान की बात कुछ समझ में आ सकती है. किसान-समाज देश की परम्पराओं का बहुत बड़ा वाहक है. अच्छी बातें संजोकर रख लेता है और उसके सहारे जीवन का निर्माण और पुनर्निर्माण करता रहता है. न्याय से तर्क को अलग नहीं किया जा सकता. भारतीय दर्शन की ‘न्यायशास्त्र’ की धारा को आधुनिक पठन-पाठन में इन्डियन लाजिक के नाम से जाना जाता है. महिलाओं के लिए, किसानों, कारीगरों और आदिवासियों के लिए, मोटे तौर पर कहें तो, सामान्य जीवन में, न्यासंगत होने और तकर्संगत होने में फर्क नहीं किया जाता. त्याग का अर्थ केवल असंचय नहीं होता. अपना समय समाज के लिए देना उसका हिस्सा है. मोह और अहं से अधिकाधिक मुक्ति के लिए त्याग सक्षम रास्ता बनाता है. समाज के नियमन और शासन में भी इसकी प्रकट भूमिका रही है. हर्षवर्धन, भोज और विक्रमादित्य जैसे राजाओं की कहानियाँ अभी भी ऐसे ही नहीं सुनी और सुनाई जाती हैं. न्याय और त्याग का अद्भुत संगम है सत्य का मार्ग प्रशस्त करने में.
अंग्रेजों ने जो ज़मीन की व्यवस्थाएं बनाई, वो आज भी बनी हुई हैं. उन्होंने भाईचारे को पट्टीदारी में बदल दिया. क्या अद्भुत क्षय है समाज और उसके मूल्यों का ! किसान के अलावा और कौन हमें इस गहरे गड्ढ़े से बाहर निकाल सकता है ! अंग्रेजों के कब्जे के पहले भारत में काफी तादाद में ‘भाईचारा गाँव’ हुआ करते थे, दक्षिण में ये मन्यम गांवों के नाम से जाने जाते थे. इन गांवों में उपजाऊ ज़मीन का कुछ वर्षों की अवधि में गाँव के किसान परिवारों में पुनर्वितरण होता था. वहां राजस्व बहुत कम होता था और वे स्वशासन की प्रतिमूर्ति हुआ करते थे.
अंत में केवल इतना ही कि किसान आन्दोलन एक खुशहाल समाज की ओर बढ़ने के रास्ते बता रहा है. किसान ज़मीन का मालिक होगा, उस पर क्या करना वह खुद तय करेगा, और उसके उत्पाद को न्यायसंगत मूल्य मिलेगा तो बात बड़े पैमाने पर बदलेगी. सब जानते हैं की किसान के उत्पाद को जब मूल्य मिलता है तब स्थानीय और क्षेत्रीय बाजारों में बड़ी गति आ जाती है. इसी गति में समाज की पुनर्रचना और खुशहाल समाज की और बढ़ने के सूत्र निहित हैं. केन्द्रीय सत्ता, बड़ी पूँजी और बड़े बाज़ारों के मूल्य इस प्रक्रिया को रोकने वाले हैं, उनसे सामाजिक मूल्यों के स्तर पर मुकाबला करना होगा. भाईचारा, त्याग और न्याय वे सक्षम मूल्य हैं, जो हमें आगे बढ़ने की गति देंगे.

सुनील सहस्रबुद्धे
24 मार्च 2021


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