न्याय त्याग और भाईचारा
ललित कुमार कौल
मेरा जन्म किसी एक परिवार में हुआ ; किसी एक गाँव या शहर
में ; किसी एक देश में! हजारों गाँव और सेंकड़ों देश इस धरती पर मोजूद हैं! जिस
गाँव में मेरा जन्म हुआ उसमें कई परिवार बसते हैं जो उस गाँव के समाज का एक हिस्सा
हैं! हर परिवार का अपना अपना व्यवसाय/पेशा है या फिर कई परिवारों की जीविका एक ही
जैसी हो, यह संभव है! हर गांव/शहर /देश वासी की बुद्धि या फिर शारीरिक और मानसिक क्षमताएं
एक जैसी नहीं हैं ; शकल भी एक जैसी नहीं है! एक परिवार के सदस्यों के बीच भी इसी
प्रकार के अंतर दिखते हैं! यहाँ तक कि दो भाइयों या भाई – बहन के स्वभाव में;
रुचियों में; प्रवृति में ;सही-गलत आदि की समझ में; भी अंतर देखने को मिलता है!
इंसानों और अन्य जीवों में ऐसा कोनसा गुण है जो एक दुसरे से प्रथक नहीं है? ऐसे में किस आधार पे बंधुत्व की
बात की जाए? अपनेपन के एहसास बिना त्याग की भावना संभव नहीं! भौतिकवादी दुनिया में
त्याग और भाईचारा जैसे जीवन मूल्यों का प्रभुत्व होना कुछ मुशकिल लगता है!
इंसानी रिश्तों का आधार:
प्यार मोहब्बत आदर इन सब की गहराई वक़्त के साथ रिश्तों के
बीच बदलती रहती है और ऐसा होना स्वाभाविक है; ऐसा मेरा मानना है! जो नहीं बदलता वह एक इंसान का
दूसरे के प्रति आभार / कृतज्ञता है, यदि उसके चरित्र या स्वभाव में ऐसा अंश है! रिश्ता कोई भी हो नहीं टिक पाता यदि
आभार का अंश अनुपस्थित हो; बाल बच्चे अपनी गृहस्ती सँभालते हुए माँ बाप के साथ किस
प्रकार का रिश्ता निभायेंगे यह उनका माँ बाप के प्रति आभार तय करने वाला है
क्योंकि दो पीड़ियों के बीच वैचारिक और नज़रिये के भेद भाव तो स्वाभाविक हैं! यदि
बच्चों के जहन में यह जब्त है कि न केवल उनका वज़ूद पर उनकी उप्लब्दियाँ भी माँ बाप
के निजी बलिदानों के कारण है तो भेद भाव कितने ही तीव्र क्यों न हों साफ़ सुथरा
रिश्ता बना रहता है! माँ बाप कितने गरीब या अमीर रहे हों इससे रिश्तों में कोई
फर्क नहीं पड़ता! भौतिकवादी दुनिया में थोड़ी बहुत आध्यात्मिकता नज़र आती है!
पारस्परिक स्वार्थ भी रिश्तों को
जोड़ता है! सार्वजनिक या निजी इकाई जिनमें हर जाति वर्ग मज़हब के लोग काम करते
हैं पारस्परिक स्वार्थ के कारण मिलझुल के
हर काम को अंजाम देते हैं क्योंकि सबकी जीविका का प्रश्न होता है! काफ़िर और मोमीन
दलित और उच्च वर्ग मर्द और औरत गोरा और काला ऐसे सब भेद भाव इकाई के भीतर नहीं
रहते भले ही इकाई के बहार प्रचलित हों! जीविका का स्वार्थ! इस आपसी व्यवहार में
प्यार मोहब्बत इंसानियत इज्ज़त जैसे मूल्य किस हद तक मोजूद रहते हैं इसका अंदाजा
लगाना मुशकिल है ! लेकिन जब कभी दंगे फसाद समाज में होते हैं तो दंगों का विश्लेषण
वर्ग जाति और मज़हब के आधार पे ही होता है! पारस्परिक स्वार्थ के आभाव में
भौतिकवादी दुनिया में इंसानी रिश्तों का
कोई आधार नहीं!
यदि होता तो आर्थिक कठिनाइयों के
बावजूद किसान आत्महत्या नहीं करते क्योंकि किसान वर्ग एक जुट होकर संकट में गिरे
हुए किसान की सहायता करते या फिर उस क्षेत्र से जुड़े समाज के अन्य लोग मदद करते;
मदद करने का तात्पर्य यह है कि लोन की राशि अदा करते हुए पीड़ित किसान से सरल
किस्तों में दीगयी राशी के भुगतान की व्यवस्था मिलजुल के तय करते! लेकिन ऐसा न हों
पाया क्योंकि बंधुत्व का कोई आधार न बन पाया; कोई यह तर्क न दे कि पूरे समाज में
लोन का कुछ भी हिस्सा वापस देने की क्षमता ना थी; इंसानियत की बात न करिये क्योंकि
बात आध्यात्मिकता की नहीं हो रही!
ऐसा भी देखने को मिलता है कि दो
भाई एक ही छत के अंदर अलग अलग अपना परिवार चलाते हैं! दोनों के बच्चे लिखाई पढ़ाई में एक सामान हैं लेकिन आर्थिक असमानता
कारणवश एक भाई के बच्चे पेशेवर विद्यालयों में दाखला नहीं लेपाते! यदि अपनेपन का
एहसास अधिक संपन्न भाई में हो तो वह दुसरे के साथ मिलके कोई न कोई रास्ता निकालता
है ताकि बच्चों की पढ़ाई में किसी प्रकार की रुकावट न आये; ऐसी पहल में कहीं न कहीं त्याग का अंश है और जिसका वजूद
अपनेपन के एहसास में है!
क्या हम यह कह सकते हैं कि यदि
अपनापन और कृतज्ञता मोजूद हो तो न्याय मिल
ही जाता है? यदि हाँ , फिर भी न्याय का मामला पुर्णतः हल नहीं हुआ क्योंकि यह तो
किसी एक के स्वभाव पे आश्रित हो गया! तो प्रश्न यह है कि : किस प्रकार से मानव
जाति में प्यार मोहब्बत आदर कृतज्ञता और अपनेपन का बीज बोया जाए ताकि न्याय
सार्वजानिक हो? क्या यह संभव है?
हक और फ़र्ज़ (धर्म):
प्यार मोहब्बत आदर कृतज्ञता और
अपनापन; इन सब का एहसास होना या न होना; अधिक या कम मात्रा में होना; इंसान की मूल प्रवृति के विषय हैं! बाहरी दुनिया का इन सब
पे कोई अधिकार नहीं है; एक इंसान समाज में किस प्रकार का व्यवहार और कार्य करेगा
यह पुर्णतः उसकी मूल प्रवृति निर्धारित करेगी यदि समाज में किसी प्रकार का कोई
अंकुश न हो! आधुनिक समाजों में केवल इंसानों के हक और उन्हें सुरक्षित करने की चर्चा
होती है; समाज के प्रति इंसानों के धर्म की कोई चर्चा नहीं होती!
सरकार की नीतियों का विरोध करने का
हक सबको है और उसके साथ साथ सार्वजानिक सम्पति को तहस नहस करने का हक भी लोगों ने
धारण कर लिया है! सार्वजनिक सम्पतियों की देख भाल करने का धर्म किसी का नहीं है;
उनका भी नहीं जिन्हें इस काम के लिए मासिक वेतन मिलता है!
तो अपना हक पाने का संकल्प लेकर, निजी
जिम्मेदारियों से बेखबर, समाज देश या फिर दुनिया में यात्रा करने वालों के लिए कोई
मर्यादा रेखा नहीं होती! निजी स्वार्थ को फलित करने का हक सभ्य समाज के हर मूल्य
को कुचल देता है, कानूनी व्यवस्था इसे संज्ञान में ले या न ले इसका बुरा असर तो
समाज पे पड़ता ही है क्योंकि एक उधाहरण इसके
सामने पेश होती है , कि ऐसा भी संभव है!
हर एक को अपनी ज़िन्दगी अपने तरीक़े
से जीने का हक है; निजी आकांक्षाओं की पूर्ति करने का हक है; इस छूट की कोई इंतिहा
नहीं है ; कोई भी ऐसा रास्ता अपनाया जा सकता जिससे निजी आकांक्षाओं की पूर्ति हो! ऐसे वातावरण में मूल्यों का गतिशील होना स्वाभाविक है क्योंकि सब के सब हक
की पूर्ति के आधीन हैं !
परिवार समाज की मौलिक इकाई है!
परिवार बिखर जायें तो समाज के अस्तित्व क्या औचित्य?
यह धारणा - कि हर इंसान खुद का
मालिक है, जो चाहे कर सकता है यदि वह संकल्प कर ले – सही नहीं है क्योंकि इंसानी
उपलब्धियों में अवश्य ही समाज (परिवार) का योगदान निहित है जो धर्म निभाने स्वरुप
है! प्रश्न जो हर आकांक्षी को खुद से पूछना चाहिए : जिन्होंने निजी धर्म निभाते
हुए मेरी आकांक्षाओं की पूर्ति में मेरी सहायता की, क्या मेरा उनके प्रति कोई धर्म
नहीं है? किसी का धर्म किसी की हक पूर्ति के काम आया बिलकुल वैसे ही जैसे आज के
धर्म निभाने वालों की हक पूर्ति के लिए किसी औरों का धर्म काम आया होगा! यदि हक के
पाते पाते धर्म की भूमिका को नज़रंदाज़ ना किया जाए तो समाज में न्याय अवश्य होगा!
निजी उपलब्धियों का श्रेय यदि किसी
अनुपात में समाज और उसकी संस्थाओं को दिया जाये तो इससे बड़कर मिसाल कृतज्ञता की
नहीं हो सकती और यही गुण इंसान को समाज के साथ जोड़ता है!
इंसानों की निजी मूल प्रवृति कैसी
भी हों, धर्म का बीज उनके मन और चेतना में बोना तो असंभव कार्य नहीं लगता बशर्ते
परिवार के बुजुर्ग (दादा दादी माँ बाप आदि) अंदरूनी मसले हल करने में धर्म का पालन
करें! बच्चों का पहला और बहुत महत्वपूर्ण विद्यालय उनका घर है; अच्छे बुरे संस्कार
, सही गलत की समझ आदि सब घर के बुजुर्गों
से मिलते हैं! आज की दुनिया में बुजुर्गों के आचरण पर भी बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह
है!
जो भी हो धर्म के पालन में ही आशा
की किरण दिखती है जब बात न्याय त्याग और भाईचारे की हो!
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