दिल्ली में उत्तर प्रदेश के पूर्वी छोर बलिया जिले से पढने के लिए गयी एक छात्रा पर सामूहिक बलात्कार की घटना ने देश को झकझोर दिया है। रोंगटे खड़े कर देने वाली इस घटना पर जनता का आक्रोश उबल पड़ा है। राजनैतिक दल, प्रशासन और धार्मिक संगठनों का व्यवहार गैर-जिम्मेदाराना व संवेदनाहीन नज़र आ रहा है। जगह-जगह से प्रतिरोध के स्वर उठ रहे हैं और समस्या के हल की ओर जाने की इच्छा के बावजूद ये कड़े से कड़े कानून बनाने और दंड देने की मांग तक ही पहुँच पा रहे हैं। कानून ज़रूरी है, लेकिन उसकी सीमा और हश्र से हम आँख नहीं मूँद सकते। टी-वी पर चल रही बहसों में विचित्रता दिखाई दे रही है। इन बहसों में एक तरफ स्त्रियों पर हो रही ज़बरदस्ती/अत्याचार को आधुनिकता बनाम रूढ़िवादिता के पेंच/भंवर में फंसा कर एक न सुलझ सकने वाली पहेली के रूप में पेश किया जा रहा है तो दूसरी ओर ये बहसें समस्या की बुनियाद को मर्दवादी सोच में दिखा कर सत्ता-प्रशासन व व्यवस्थाओं को दोषमुक्त होने के लिए बचाव का रास्ता बनाती दिखाई देती हैं। मर्दवादी सोच को बदलने की जिम्मेदारी समाज और लोगों पर ढकेलना आसान है (बे-नतीजा जन शिक्षा के कार्यक्रम सरकारें चला ही रही हैं).
यह घटना और स्त्री समाज पर लादी गयी यह ज्यादती सभ्यता के सामने खड़ा सबसे गंभीर सवाल है।
स्त्रियों पर बलात्कार और ज़बरदस्ती की घटनाओं का बढ़ता पैमाना समाज में बढती गैर-बराबरी और गरीबी से सीधा रिश्ता रखता है। औद्योगिक युग में और अब सूचना और वैश्वीकरण के इस दौर में पूंजीवादी व्यवस्थाएं लगातार मजदूर सस्ते मिलें इसका इंतजाम करती रहती हैं। इसके चलते दुनिया भर के किसानों, आदिवासियों और कारीगरों को मजदूर बनाने की प्रक्रियाएं तेज़ से तेज़ होती चली आई हैं और मजदूरों को अपने घर, परिवार, गाँव, समाज, से अलग दूर ले जाकर काम करने के लिए मजबूर किया गया है। आज विस्थापन के बर्बर दौर ने यह सब कुछ बिलकुल साफ़ कर दिया है। समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा एक अजनबी माहौल में अनिश्चितता, असुरक्षा, अकेलापन, आर्थिक तंगी और तमाम तरह से वंचित और पीड़ित अवस्था में जीने को मजबूर है, केवल इसलिए कि पूंजीवादी व्यवस्थाओं को सस्ता श्रम और संसाधनों पर कब्ज़ा चाहिए। नतीजे स्वरूप सम्पन्न और समृद्ध हुए वर्ग जीवन और सामाजिक मूल्यों की हदों को लगातार ध्वस्त कर अश्लीलता का प्रदर्शन करने में ही गौरव मान रहे हैं। यही नहीं, युवाओं को शिक्षा के लिए भी दूर-दूर तक जाने की मजबूरी आ गयी है। यह व्यवस्था है या षड़यंत्र ? इसे पहचानने का समय आ गया है।
दिल्ली की इस घटना के प्रतिरोध के स्वर समाज में बुनियादी बदलाव चाहते हैं। लेकिन सम्पन्न और समृद्ध वर्गों की पूंजीवादी मूल्यों में गहरी आस्था के चलते प्रतिरोध की शक्तियां बंद गली में खो जाती हैं। बाकी सब कुछ मोटे तौर पर ऐसे ही चलता रहेगा और स्त्रियों पर अत्याचार रोके जा सकेंगे, यह संभव नहीं है। स्त्रियों के शोषण और उन पर होने वाली ज़बरदस्ती से मुक्ति की लड़ाई समग्र है और लम्बी है। मूल्यों, आस्थाओं और व्यवस्थाओं में बड़े बदलाव के लिए सोचना और काम करना ज़रूरी है। ऐसे बदलाव की एक बड़ी शर्त समाज के उस संगठन में है जिसमें स्त्री अथवा पुरुष को अपने समाज से उखड़ कर दूर जाने के लिए मजबूर न किया जाये। ऐसी समाज व्यवस्था बनाने के लिए लोकविद्या और लोकाविद्याधर समाज की शक्तियों पर अधिकतम भरोसा करना होगा। लोकविद्या जन आन्दोलन की यह मांग इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण मांग है कि सभी स्त्रियों और पुरुषों के लिए लोकविद्या के बल पर नियमित पक्की आय की व्यवस्था हो और उन्हें सरकारी कर्मचारी के बराबर वेतन मिले। इस मांग को आकार देने का अर्थ है पूरे समाज के लिए अपनी शर्त पर जीवन जीने, उसे संगठित करने और उसे खुशहाल बनाने का रास्ता खुलना।
इससे समाज के हर क्षेत्र और तबके में एक ताकत का संचार होगा, जिससे बदलाव की संभावनाएं मज़बूत होंगी, वास्तविक होंगी। स्त्री समाज ताकतवर हो इसके लिए यह ज़रूरी है कि स्थानीय समाज के लिए अपनी शर्तों पर जीने की व्यवस्था एवं माहौल हो।
चित्रा सहस्रबुद्धे
यह घटना और स्त्री समाज पर लादी गयी यह ज्यादती सभ्यता के सामने खड़ा सबसे गंभीर सवाल है।
स्त्रियों पर बलात्कार और ज़बरदस्ती की घटनाओं का बढ़ता पैमाना समाज में बढती गैर-बराबरी और गरीबी से सीधा रिश्ता रखता है। औद्योगिक युग में और अब सूचना और वैश्वीकरण के इस दौर में पूंजीवादी व्यवस्थाएं लगातार मजदूर सस्ते मिलें इसका इंतजाम करती रहती हैं। इसके चलते दुनिया भर के किसानों, आदिवासियों और कारीगरों को मजदूर बनाने की प्रक्रियाएं तेज़ से तेज़ होती चली आई हैं और मजदूरों को अपने घर, परिवार, गाँव, समाज, से अलग दूर ले जाकर काम करने के लिए मजबूर किया गया है। आज विस्थापन के बर्बर दौर ने यह सब कुछ बिलकुल साफ़ कर दिया है। समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा एक अजनबी माहौल में अनिश्चितता, असुरक्षा, अकेलापन, आर्थिक तंगी और तमाम तरह से वंचित और पीड़ित अवस्था में जीने को मजबूर है, केवल इसलिए कि पूंजीवादी व्यवस्थाओं को सस्ता श्रम और संसाधनों पर कब्ज़ा चाहिए। नतीजे स्वरूप सम्पन्न और समृद्ध हुए वर्ग जीवन और सामाजिक मूल्यों की हदों को लगातार ध्वस्त कर अश्लीलता का प्रदर्शन करने में ही गौरव मान रहे हैं। यही नहीं, युवाओं को शिक्षा के लिए भी दूर-दूर तक जाने की मजबूरी आ गयी है। यह व्यवस्था है या षड़यंत्र ? इसे पहचानने का समय आ गया है।
दिल्ली की इस घटना के प्रतिरोध के स्वर समाज में बुनियादी बदलाव चाहते हैं। लेकिन सम्पन्न और समृद्ध वर्गों की पूंजीवादी मूल्यों में गहरी आस्था के चलते प्रतिरोध की शक्तियां बंद गली में खो जाती हैं। बाकी सब कुछ मोटे तौर पर ऐसे ही चलता रहेगा और स्त्रियों पर अत्याचार रोके जा सकेंगे, यह संभव नहीं है। स्त्रियों के शोषण और उन पर होने वाली ज़बरदस्ती से मुक्ति की लड़ाई समग्र है और लम्बी है। मूल्यों, आस्थाओं और व्यवस्थाओं में बड़े बदलाव के लिए सोचना और काम करना ज़रूरी है। ऐसे बदलाव की एक बड़ी शर्त समाज के उस संगठन में है जिसमें स्त्री अथवा पुरुष को अपने समाज से उखड़ कर दूर जाने के लिए मजबूर न किया जाये। ऐसी समाज व्यवस्था बनाने के लिए लोकविद्या और लोकाविद्याधर समाज की शक्तियों पर अधिकतम भरोसा करना होगा। लोकविद्या जन आन्दोलन की यह मांग इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण मांग है कि सभी स्त्रियों और पुरुषों के लिए लोकविद्या के बल पर नियमित पक्की आय की व्यवस्था हो और उन्हें सरकारी कर्मचारी के बराबर वेतन मिले। इस मांग को आकार देने का अर्थ है पूरे समाज के लिए अपनी शर्त पर जीवन जीने, उसे संगठित करने और उसे खुशहाल बनाने का रास्ता खुलना।
इससे समाज के हर क्षेत्र और तबके में एक ताकत का संचार होगा, जिससे बदलाव की संभावनाएं मज़बूत होंगी, वास्तविक होंगी। स्त्री समाज ताकतवर हो इसके लिए यह ज़रूरी है कि स्थानीय समाज के लिए अपनी शर्तों पर जीने की व्यवस्था एवं माहौल हो।
चित्रा सहस्रबुद्धे
मुझे लगता है कि feminist movement की क्या दिशा होनी चाहिए, उसका focus क्या होना चाहिए और उसे क्यूँ और कैसे बाकी के movements से जुड़ना ज़रूरी है - इस पर और विस्तार से लिखा जाना चाहिए। यह शायद सही समय है इस पर बात को आगे बढ़ाने का।
ReplyDeleteएक 2009 का लेख लिंक कर रही हूँ जिसमें western और eastern feminist movements के बारे में लिखा है। इस लेख के सन्दर्भ में बात को समझा जाए तो जो लोग सिर्फ रूढ़िवादिता और मर्दवादी सोच की बातें कर रहे हैं, वो western feminist movement की तरह इस लड़ाई को और किसी बड़े political struggle से जुड़ा हुआ नहीं देखते।
http://truthseekers.cultureunplugged.com/truth_seekers/2009/06/womanist-is-to-feminist-as-purple-to-lavender-a-story-of-resistance.html
To quote from the above article:
This is why Afro-American writer Alice Walker suggested to use the word womanism, instead of feminism, to describe these movements spreading through Third World. A womanist, according to Alice Walker, is a “feminist of colour”, who “is committed to survival and wholeness of entire people, male and female.”
In the field of gender studies, the existence of this wider type of feminism – different from Western feminism because of the context where it’s rooted, more than because of its aims – has given birth to interesting debates about global cooperation and consciousness of diversity. Marie Angelique Savane, first President of the Association of African Women Organized for Research, writes:
“In Third World, women’s demands have been explicitly political, with work, education and health as major issues per se and not so linked to their specific impact on women. In addition, women of the Third World perceive imperialism as the main enemy of their continents and especially of women.