कौल साहब के ब्लॉग पोस्ट से शुरू हुई बहस में शामिल होते हुए अपनी बातों को मैं कुछ बिन्दुओं के मार्फ़त रखने की कोशिश करुँगी।
- नरेंद्र मोदी और भाजपा को जिताने में लोकविद्या समाज की जिस मौन लेकिन सक्रिय भूमिका का तर्क दिया जा रहा हैं उससे सहमत होना कठिन है। अभी तक सभी बहुमत की सरकारें लोकविद्या समाज के वोट के बल पर ही सत्ता में आती रही हैं। भाजपा की वर्तमान सरकार का बहुमत से जीतना भी लोकविद्या समाज के वोटों के बल पर हुआ है क्योंकि लोकविद्या समाज इस देश की आबादी का 80 % से ज्यादा है। यह कोई लोकविद्या समाज की मौन क्रांति का सूचक नहीं लगता बल्कि भाजपा के उस नए अवतार का सूचक है जो संसदीय चुनाव के गणित और समाज के घटकों पर शासन करने का प्रचार व प्रबंधन करने में सफल हो गया है। इस बार नयी बात यह है कि भाजपा मोदी के नेतृत्व में बड़े पूंजीपतियों का बड़े पैमाने पर समर्थन हासिल करने के साथ लोकविद्या समाज के वोट पाने में भी सफल रही है, जिसमें अभी तक कांग्रेस कुशल मानी जाती रही है। इस सरकार से पूँजीपति तबके को क्या मिलने जा रहा है यह तो देखा जा सकता है लेकिन लोकविद्या समाज को इस नयी सरकार से क्या मिलेगा यह तो अभी अँधेरे में ही है।
- लोकविद्या जन आंदोलन ( लोजआ ) यह मानता रहा है कि 2011 के बाद से राजनितिक माहौल में जो खुलापन आया है इसके लिए अन्ना हज़ारे का आंदोलन और बाद में केजरीवाल के नेतृत्व में बनी आम आदमी पार्टी का निश्चित तौर पर योगदान रहा है। 'आप' ने राजनैतिक माहौल में इतनी हलचल तो पैदा कर ही दी की प्रमुख राष्ट्रीय दलों को 'आप' की रणनीति और मुद्दों में से कई चीज़ों का अनुकरण करना पड़ा। साफ़ तौर पर यह देखा जा सकता है कि प्रचार के दौरान धीरे-धीरे मोदी के भाषणों में 'आप' की बातें समाहित होती गयी. 'आप' ने भ्रष्टाचार पर झाड़ू लगाने और अच्छे व चुस्त प्रशासन को प्राथमिकता दी जो 12 मई आते-आते मोदी के भाषणों का अंग बन गए। भाजपा ने अपने कई बुजुर्ग नेताओं को किनारे किया, हिंदुत्व का मुद्दा फ़िलहाल पीछे धकेला गया, चुनाव प्रचार का प्रबंधन नयी प्रौद्योगिकी के बल पर और बहुत खर्च के साथ किया गया। नरेंद्र मोदी के भाषणों में उनकी सार्वजनिक छबि को एक उदार नेता के रूप में सामने लाया। हालांकि अमित बसोले जिन खतरों के प्रति आगाह कर रहे हैं उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता क्योंकि भाजपा और रास्वसं का इतिहास भुलाया नहीं जा सकता। लेकिन कई नयी बातें नज़र आई हैं जो जताती है कि भाजपा का नवीनीकरण हो गया है । कांग्रेस इस मामले में पिछड़ गयी और पिछले 10 वर्षों में निरंतर हर मोर्चे पर गिरती ही गयी। इसलिए कांग्रेस के पक्ष का भी वोट भाजपा की झोली में गया।
- कौल साहब के कहने का संकेत शायद इस ओर है कि लोजआ को राजनैतिक पहल लेने की और बढ़ना चाहिए और नयी सरकार से , सत्ता से, वार्ता में उतरने की तैयारी करनी चाहिए। लोजआ यह मानता है कि 'आप ' पार्टी के उदय से राजनीति में जो हलचल पैदा हो गयी है उससे सार्वजनिक माहौल में नए विचार, नए सृजन का मौका बन रहा है चाहे पार्टी फिलहाल बिखरती नज़र आ रही है। भाजपा ने इसी दौरान खुद को नया किया है। लोजआ के लिए यह मौका किसी पार्टी विशेष को लक्ष्य कर नहीं देखना है बल्कि पूरे राजनैतिक माहौल में आई हलचल को लक्ष कर देखना है और लोकविद्या-समाज के हित के मुद्दों को लेकर लगातार राजनैतिक वार्ता को खड़ा करना है। लोजआ इस हलचल पर नज़र रखता है न कि भाजपा या मोदी पर या 'आप' पर और इस हलचल के बीच वह निश्चित ही एक नए राजनैतिक संवाद को खड़ा करने का सुनहरा अवसर देखता है। 'आप' पार्टी लोकविद्या-समाज के प्रति कोई सकारात्मक रुख नहीं रखती लेकिन एक नयी बहस को खड़ा करने की शुरुआत दे चुकी है। लोजआ यह राजनैतिक संवाद भाजपा, कांग्रेस, 'आप', सपा, बसपा या अन्य किसी क्षेत्रीय दल से नहीं बल्कि पूरे राजनैतिक माहौल या व्यवस्था से करने का लक्ष्य रखता है। और हो सकता है कि इस संवाद से इनमें से कुछ पार्टियों को इससे कुछ मिले भी लेकिन अंततः लोकविद्या-समाज को ही फायदा होगा।
- ऐसा राजनैतिक संवाद ही लोकविद्या-समाज का ज्ञान आंदोलन है। लोजआ का शुरू से आग्रह रहा है कि यह एक ज्ञान आंदोलन है और लोकविद्या समाज की अगुवाई में इसे आकार लेना है तभी यह पूरे समाज की खुशहाली के रास्तों को खोलेगा, एक नयी राजनैतिक व्यवस्था की कल्पना की बुनियाद बनाएगा। दूसरी बात यह है कि लोजआ का इतना बड़ा आधार भी नहीं है कि ये वार्ताएं अकेले के बल पर की जा सकें । लोकविद्या समाज के उन तमाम संगठनों, विचारकों, संघर्षकर्ताओं और इनके समर्थकों के साथ मिलकर ही यह ज्ञान संवाद और ज्ञान आंदोलन चलाना होगा। वाराणसी में 7-8 जून और नागपुर में 28-29 जून की प्रस्तावित बैठकें इसी दिशा में हैं।
चित्रा सहस्रबुद्धे
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