Tuesday, January 29, 2013

लोकविद्या ताना-बाना और आदिवासी-किसान एकता

इंदौर क्षेत्र में लोकविद्या जन आन्दोलन 
19-20 जनवरी 2013


यह इंदौर क्षेत्र के दो दिन के कार्यक्रम का एकदम संक्षिप्त वर्णन है। पहले दिन खुर्दी गाँव में लोकविद्या ताना-बाना के अंतर्गत लोक-कला प्रस्तुति का कार्यक्रम हुआ और दूसरे दिन मानपुर में लोकविद्या जन आन्दोलन के कार्यकर्ताओं और क्षेत्रीय किसान संघर्षों के प्रतिनिधियों के बीच आदिवासी-किसान एकता पर बैठक हुई। 

मालवा और निमाड़ के गांवों में सभी ओर कबीर को गाने वाले मिलते हैं। गाँव-गाँव में ऐसी गायकी की मंडलियाँ हैं। कुमार गन्धर्व की कबीर गायकी का आधार इसी क्षेत्र की कबीर गायकी में रहा है। इसी क्षेत्र में विस्थापन के खिलाफ संघर्ष कर रहे किसानों के बीच लोकविद्या जन आन्दोलन भी पिछले तीन साल से सक्रिय है। क्षेत्रीय मिजाज़ और जज़्बे की खोज में आन्दोलन के कार्यकर्ताओं का कबीर गाने वालों से सहज ही परिचय हो गया। और अब जब लोकविद्या ताना-बाना का विचार बनाना शुरू हुआ तो हमने भी कला और दर्शन के इस माध्यम और किसानों के आन्दोलन के बीच कड़ियाँ खोजना शुरू किया। इसी दृष्टि से लोकविद्या जन आन्दोलन के क्षेत्रीय कार्यक्रम की रचना की गयी जिसे  दो दिन के इस कार्यक्रम में पहली अभिव्यक्ति मिली। 
कार्यक्रम के कुछ फोटो।



दिनभर के गायकी के कार्यक्रम का अद्भुत अनुभव रहा। इंदौर से लगभग 50 किलो मीटर दूर दक्षिण की ओर मानपुर क़स्बा है और  मानपुर से लगभग 6 किलोमीटर अन्दर खुर्दी गाँव। खुर्दी के मुख्य चौक पर पंडाल लगाकर दिन में 12.00 बजे से शाम 6.00 बजे तक लोकसंगीत का कार्यक्रम आयोजित हुआ। मानपुर के आस-पास के 25 गाँवों से कलाकार मंडलियाँ आयी थीं। कुछ कलाकार धार, झाबुआ, खरगोन, अलीराजपुर और बडवानी से भी थे। करीब 80 कलाकार थे, साज़ और आवाज़ मिलाकर। उतने ही श्रोता भी थे। स्थानीय श्रोताओं के अलावा इंदौर से भी लगभग 15 जने आये थे। 

नवरंगपूरा के चन्द्र शेखर वर्मा ने कार्यक्रम का सञ्चालन किया और वाराणसी के दिलीप कुमार 'दिली' ने बीच-बीच में समाज में बदलाव की दृष्टि से लोकविद्या और संत दर्शन के बीच सम्बन्ध की चर्चा की। चन्द्रशेखर वर्मा के साथ रायकुंडा  के  गिरवर सिंह तिन्गारे, झारी के तूल सिंह  और बकलाई के घनश्याम को लेकर एक समिति बनायी गयी जिसके साथ लोकविद्या समन्वय समूह आगे की बात करेगा। इनके अलावा खुर्दी के जगदीश भूरिया और अमरसिंह, रायकुंडा  के लाल सिंह तिन्गारे, गोंडकुआ  के गुलाब, बकलाई के फूलचंद, सिरसिया के चंदू सिंह, औलिया तलाव के देवराज तथा भिलामी के रमेश और जगदीश बाबा के नाम सक्रिय भागीदारी के लिए उल्लेखनीय हैं। 


 सारा कार्यक्रम मंडलियों ने खुद आयोजित किया। उनके अपने शब्द हैं, अपना संगीत और अपने तौर तरीके। सभी किसान और आदिवासी समाजों से थे। लगता है लोकविद्या ताना-बाना का वैचारिक सहारा ग्रामीण क्षेत्रों के उस दर्शन और शक्ति से सहज सामना कराएगा जिसमें लोकविद्या आधारित ज्ञान आन्दोलन खड़ा करने की क्षमता हो। इंदौर के लोकविद्या समन्वय समूह की सहयोग की भूमिका रही।

दूसरे दिन मानपुर के एक विद्यालय के प्रांगण  में बैठक हुई। विषय आदिवासी किसान एकता था। स्थानीय किसान संघर्षों से आदिवासियों और किसानों के साथ उनके संगठनकर्ता आये थे तथा इंदौर, वाराणसी, नागपुर और सिंगरौली से लोकविद्या जन आन्दोलन के कार्यकर्त्ता उपस्थित थे। चर्चा का मुख्य विषय यह बना कि किस तरह मध्य प्रदेश में किसानों और आदिवासियों के जगह-जगह हो रहे संघर्ष आपस में एकता कायम कर सकते हैं। इस सिलसिले में एक बात यह भी हुई कि किसान नेताओं को जन आंदोलनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर इस एकता के लिए प्रयास करने का दबाव लाना चाहिए। 


मानपुर बैठक का एक दृश्य 


संजीव दाजी
संयोजक, लोकविद्या समन्वय समूह, इंदौर



Friday, January 25, 2013

लोकविद्या ताना-बाना पर बहस Lokavidya Tana-bana Debate


This post in English is given below the Hindi one


लोकविद्या ताना-बाना पर बहस : कला-विद्यालोक की दस्तक


इस पोस्ट के साथ हम लोकविद्या ताना - बाना के विषय पर इस ब्लाग में एक वार्ता शुरू कर रहे हैं। यह वार्ता इसी विषय पर 24 फरवरी 2013 को मुंबई में प्रस्तावित बैठक की तैयारी का काम भी करेगी। इस बैठक का स्थान है - बायो मेडिकल एथिक्स सेण्टर, सेंट पायस कालेज, आरे रोड, गोरेगांव (पूर्व). 
बहस हिंदी और अंग्रेजी दोनों में चलेगी।

विचार 

लोकविद्या ताना - बाना  के मार्फ़त एक ऐसी सार्वजनिक दुनिया की कल्पना करने और उसे बनाने का प्रयास है जहाँ आज के बहिष्कृत समाज के लिए पूरा स्थान हो, यानि  मुख्यरूप से किसानों, कारीगरों, आदिवासियों, महिलाओं और छोटे-छोटे दुकानदारों से बने लोकाविद्याधर समाज की सहज अभिव्यक्तियों के लिए स्थान हो। वहां उनके मूल्यों, स्वाभाविक रिश्तों और संवेदनाओं के लिए स्थान हो तथा उन्हें मूर्ख और जाहिल न माना जाये, न कहा जा सके।

ज़ाहिर है यह एक बड़े परिवर्तन का काम है और तभी संभव हो पायेगा जब ऐसे ज्ञान क्षेत्रों से पहल आये जो न लिखित शब्द से बंधे हैं और न साइंस की चौखट से ही। कला, भाषा, मीडिया और दर्शन कुछ ऐसे ही क्षेत्र हैं। इसे हम कला-विद्यालोक का नाम दे सकते हैं।

वार्ता 

लोकविद्या जन आन्दोलन के नवम्बर 2011 के वाराणसी अधिवेशन के समय से ही यह वार्ता शुरू है। इसी दौर में लोकविद्या तान-बाना  का विचार बना और उसके अंतर्गत वार्ताएं जारी रहीं। ये बातें हमारी पत्रिका  लोकविद्या पंचायत के पन्नों में, विद्या आश्रम की वेब साईट पर और कुछ इस ब्लाग पर आती रही हैं। अभी हाल में 11 दिसम्बर 2012 को अंग्रेजी में और 6 जनवरी 2013 को हिंदी में इसी ब्लाग पर वह सामग्री डाली गयी जो इस वर्तमान ब्लाग वार्ता तथा 24 फरवरी 2013 की मुंबई बैठक के लिए ठोस सन्दर्भ बनाती है।  कृपया उसे  अवश्य देखें।

आपकी भागीदारी 

वार्ता खुले इसके लिए हमने  कुछ ठोस बिंदु तैयार किये हैं जो नीचे दिए हैं। ये बेहद संक्षेप में लिखे गए हैं जिससे कि हम ही न बोलते रहें। आप उनमें से किसी पर भी टिपण्णी कर सकते हैं अथवा अपने स्वतंत्र विचार लिख सकते हैं। अपना लेखन हमें भेज दें तो हम उसे ब्लाग पर डाल देंगे। जो इस ब्लाग के  subscriber हैं वे सीधे ब्लाग पर लिख सकते हैं। अगर इसमें दिक्कत आये तो हमें भेज दें, हम ब्लाग पर डाल देंगे।
कृपया इस ब्लाग को subscribe करें जिससे ब्लाग पोस्ट सीधे आपके मेल बाक्स में आ जाये।

प्रमुख बिंदु 

  1. एक नयी न्यायसंगत दुनिया बनाने का दिशा बोध ज्ञान की दुनिया से मिलना है। यह समाज और प्रकृति के साथ संवेदना के ज्ञान की दुनिया है। 
  2. समाज और प्रकृति के साथ संवेदना की कसौटी पर खरा उतरने वाला ज्ञान कला, भाषा, दर्शन और मीडिया के क्षेत्रों में दिखाई देता है। इसे ही कला-विद्यालोक कहा गया है। 
  3. कला-विद्यालोक ने साइंस की हुकूमत को कभी नहीं माना। यहीं से परिवर्तन, प्रगतिशीलता, उन्नति और सभ्यता के नए मूल्य आने हैं।  
  4. लोगों के उन आपसी संबंधों का ताना-बाना जिनकी मध्यस्थता पूँजी, विश्वविद्यालय या सत्ता के प्रतिष्ठानों द्वारा नहीं होती, उसे लोकविद्या ताना-बाना कहते है। 
  5. लोकविद्या ताना-बाना को महसूस करना, समझना और अभिव्यक्त करना कला-विद्यालोक की गतिवधियां हैं। 
  6. लोकविद्या ताना-बाना सार्वजनिक महत्व हासिल करे इसमें कला-विद्यालोक की बड़ी भूमिका है। 
  7. लोकविद्या ताना-बाना एक नए न्यायसंगत, लोकोन्मुख परिवर्तन का मंच है। 
  8. साइंस के दबदबे में लोकप्रिय हुआ 'वस्तुपरक' दुनिया का दर्शन अब सूचना युग में  टूट रहा है और विश्व रचना के दर्शन में मनुष्य के संबंधों, उनके भाव व अर्थ तथा संचार-संपर्क की वास्तविकताओं का मौलिक स्थान पहचाना जा रहा है। 
  9. सामाजिक मीडिया के विस्तार के साथ एक नए दर्शन और नयी राजनीति का उदय हो रहा है। ये दर्शन और राजनीति तब तक एकांगी रहेंगे जब तक लोकविद्या ताना-बाना को सामाजिक मीडिया का हिस्सा नहीं माना जाता। 
  10. साइंस ने इस दुनिया को एक त्रासदी बना रखा है। इससे मुक्ति के युगांतरकारी परिवर्तन की पहल कला-विद्यालोक से आनी है। लोकविद्या ताना-बाना वह स्थान है जहाँ से यह कार्य शुरू होता है। 
  11. लोकविद्या ताना-बाना को सजीव, सक्रिय और सार्वजनिक बनाना एक ज्ञान आन्दोलन है जो कला-विद्यालोक से वैसा ही रिश्ता रखता है जैसा एक समय अपने यहाँ का युगांतरकारी ज्ञान आन्दोलन भक्ति की दुनिया के साथ रखता था।

विद्या आश्रम
+91-9839275124 

Lokavidya Tana-bana : Debating the Role of Art, Language, Philosophy and Media 


With this post we are starting on this blog a dialogue on Lokavidya Tana-bana. It will also prepare us for the proposed meeting on this subject in Mumbai on 24th Feb. 2013. Venue- Bio-medical Ethics Center, St. Pius College, Arey Road, Goregaon East.
One can write in Hindi or English.

The Idea

Lokavidya Tana-bana is an attempt at imagining and constructing that public realm where there will be full participation of the externed of this society. Those who live by lokavidya, namely peasants, artisans, adivasis, women and small shopkeepers, will have a full opportunity to express and participate freely in the society, a world where their values, sensitivities and relationships will find a natural place and they will not be considered stupid or uneducated. 
This is a tall order and will be possible only if initiatives come from such areas of epistemic activity which are not bound down by the written word or by the analytic order laid down by science.The areas of art, language, media and philosophy are some such areas. This is popularly known as the world of Humanities. Not a world of Humanities as a world of study but as a world of activity and creativity.

The Dialogue 

This dialogue has started since the Varanasi Conference of Lokavidya Jan Andolan in November 2011. It is during this period that the idea of Lokavidya Tana-bana got shaped and became the focus of this dialogue. It found place in the pages of Lokavidya Panchayat, our Hindi periodical, on the Vidya Ashram website and on this blog. On this blog two posts, one in English and one in Hindi have already appeared which provide the concrete context now for this blog-dialogue and the proposed meeting in Mumbai on 24th Feb. 2013. The English post is on 11th Dec. 2012 and the Hindi post is on 6th Jan. 2013. Please do see these posts. 

Your Participation 

To open the dialogue we have prepared some points which are given below. These are written very briefly, leaving as much scope as we could for others to come forward and say what they want to say. You may comment on any one of these points or you may write your views independent of them. If you send your write-up to us, we will post it on the blog. Those who are subscribers to this blog can write straight on it. If there is any difficulty in doing this, please send it to us and we will do the post. 
May we take this opportunity also to request you to subscribe to this blog so that posts come straight to your mail box. 

Main Points

  1. The direction for the movement towards a just world is to come from the world of knowledge. This is the world of knowledge which is sensitive towards and harmonious with  nature and society. 
  2. Knowledge that is true to nature and society is seen in the areas of art, language, philosophy and media, namely the world of Humanities.
  3. These areas of art, language, philosophy and media constitute a world ( that of Humanities) outside and beyond the dictat of science. It is from these areas that the new values and understanding of change, progress and civilized life are to come. 
  4. Relations and connections between people which are not mediated by capital, university or state, may be said to constitute the Lokavidya Tana-bana. 
  5. It is in Humanities and through it that one can relate with, understand and give expression to, that is represent, articulate, communicate about, Lokavidya Tana-bana.
  6. The world of humanities is to play a great role in Lokavidya Tana-bana assuming public significance. 
  7. Lokavidya Tana-bana is the forum where the game-change is to take place in favor of justice and the people. 
  8. The scientific ontology of an objective world of things and forces is being shown the door in this Information age and the relationships between human beings, communication, connectivity, meaning and such like are being seen as essentially constituting the world. 
  9. A new philosophy and a new politics is emerging hand-in-glove with the development of social media. Such philosophy and politics will remain one-sided if Lokavidya Tana-bana is not seen as an essential part of social media. 
  10. Science has turned this world into a tragedy. It is only from the world of Humanities that initiative for a total change can come. Lokavidya Tana-bana is the place where such engagement may find a beginning.
  11. It is a knowledge movement that activates, enlivens and makes public the Lokavidya Tana-bana. This knowledge movement has the same relation with the world of Humanities, which the epoch making knowledge movement of the medieval times in this country had with the world of devotion. 
Vidya Ashram
+91-9839275124

Friday, January 11, 2013

स्त्री संघर्ष - दिशाबोध पर विचार

दिल्ली में उत्तर प्रदेश के पूर्वी छोर बलिया जिले से पढने के लिए गयी एक छात्रा पर सामूहिक बलात्कार की घटना ने देश को झकझोर दिया है। रोंगटे खड़े कर देने वाली इस घटना पर जनता का आक्रोश उबल पड़ा है। राजनैतिक दल, प्रशासन और धार्मिक संगठनों का व्यवहार गैर-जिम्मेदाराना व संवेदनाहीन नज़र आ रहा है।  जगह-जगह से प्रतिरोध के स्वर उठ रहे हैं और समस्या के हल की ओर जाने की इच्छा के बावजूद ये  कड़े से कड़े कानून बनाने और दंड देने की  मांग तक ही पहुँच पा रहे हैं। कानून ज़रूरी है, लेकिन उसकी सीमा और हश्र से हम आँख नहीं मूँद सकते। टी-वी पर चल रही बहसों में विचित्रता दिखाई दे रही है। इन बहसों में एक तरफ  स्त्रियों पर हो रही ज़बरदस्ती/अत्याचार को आधुनिकता बनाम रूढ़िवादिता के पेंच/भंवर में फंसा कर एक न सुलझ सकने वाली पहेली के रूप में पेश किया जा रहा है तो दूसरी ओर  ये बहसें समस्या की बुनियाद को मर्दवादी सोच में दिखा कर सत्ता-प्रशासन व व्यवस्थाओं को दोषमुक्त होने के लिए बचाव का रास्ता बनाती दिखाई देती हैं। मर्दवादी सोच को बदलने की जिम्मेदारी समाज और  लोगों पर ढकेलना आसान है (बे-नतीजा जन शिक्षा के कार्यक्रम सरकारें चला ही रही हैं).

यह घटना और स्त्री समाज पर लादी गयी यह ज्यादती सभ्यता के सामने खड़ा सबसे गंभीर सवाल है।

स्त्रियों पर बलात्कार और ज़बरदस्ती की घटनाओं का बढ़ता पैमाना समाज में बढती गैर-बराबरी और गरीबी से सीधा रिश्ता रखता है। औद्योगिक युग में और अब सूचना और वैश्वीकरण के इस दौर में पूंजीवादी व्यवस्थाएं लगातार मजदूर सस्ते मिलें इसका इंतजाम करती रहती हैं। इसके चलते दुनिया भर के किसानों, आदिवासियों और कारीगरों को मजदूर बनाने की प्रक्रियाएं तेज़ से तेज़ होती चली आई हैं और मजदूरों को अपने घर, परिवार, गाँव, समाज, से अलग दूर ले जाकर काम करने के लिए मजबूर किया गया है। आज विस्थापन के बर्बर दौर ने यह सब कुछ बिलकुल साफ़ कर दिया है। समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा एक अजनबी माहौल में अनिश्चितता, असुरक्षा, अकेलापन, आर्थिक तंगी और तमाम तरह से वंचित और पीड़ित अवस्था में जीने को मजबूर है, केवल इसलिए कि पूंजीवादी व्यवस्थाओं को सस्ता श्रम और संसाधनों पर कब्ज़ा चाहिए। नतीजे स्वरूप सम्पन्न और समृद्ध हुए वर्ग जीवन और सामाजिक मूल्यों  की हदों को लगातार ध्वस्त कर अश्लीलता का प्रदर्शन करने में ही गौरव मान रहे हैं। यही नहीं, युवाओं को शिक्षा के लिए भी दूर-दूर तक जाने की मजबूरी आ गयी है। यह व्यवस्था है या षड़यंत्र ? इसे पहचानने का समय आ गया है।

दिल्ली की इस घटना के प्रतिरोध के स्वर समाज में बुनियादी बदलाव चाहते हैं। लेकिन सम्पन्न और समृद्ध वर्गों की पूंजीवादी मूल्यों में गहरी आस्था के चलते प्रतिरोध की शक्तियां बंद गली में खो जाती हैं। बाकी  सब कुछ मोटे तौर पर ऐसे ही चलता रहेगा और स्त्रियों पर अत्याचार रोके जा सकेंगे, यह संभव नहीं है। स्त्रियों के शोषण और उन पर होने वाली ज़बरदस्ती से मुक्ति की लड़ाई समग्र है और लम्बी है। मूल्यों, आस्थाओं और व्यवस्थाओं में बड़े बदलाव के लिए सोचना और काम करना ज़रूरी है। ऐसे बदलाव की एक बड़ी शर्त समाज के उस  संगठन में है जिसमें स्त्री अथवा पुरुष को अपने समाज से उखड़  कर दूर जाने के लिए मजबूर न किया जाये। ऐसी समाज व्यवस्था बनाने के लिए लोकविद्या और लोकाविद्याधर समाज की शक्तियों पर अधिकतम भरोसा करना होगा। लोकविद्या जन आन्दोलन की यह मांग इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण मांग है कि सभी स्त्रियों और पुरुषों के लिए लोकविद्या के बल पर नियमित पक्की आय की व्यवस्था हो और उन्हें  सरकारी कर्मचारी के बराबर वेतन मिले। इस मांग को आकार देने का अर्थ है पूरे समाज के लिए अपनी शर्त पर जीवन जीने, उसे संगठित करने और उसे खुशहाल बनाने का रास्ता खुलना।

इससे समाज के हर क्षेत्र और तबके में एक ताकत का संचार होगा, जिससे बदलाव की संभावनाएं मज़बूत होंगी, वास्तविक होंगी। स्त्री समाज ताकतवर हो इसके लिए यह ज़रूरी है कि स्थानीय समाज के लिए अपनी शर्तों पर जीने की व्यवस्था एवं माहौल हो।

चित्रा  सहस्रबुद्धे   

Tuesday, January 8, 2013

लोकविद्या जन आन्दोलन का क्षेत्रीय अधिवेशन मानपुर, इंदौर (म प्र ) , 19-20 जनवरी 2013


इंदौर मध्य प्रदेश का सबसे बड़ा औद्योगिक-व्यापारिक नगर है। प्रदेश के पश्चिमी हिस्से में बसा यह शहर दिल्ली-मुंबई के बीच बन रहे कारीडोर की एक महत्त्व पूर्ण कड़ी है। सूचना-संचार , ऑटो-मोबाईल और आधुनिक बाज़ार के विस्तार ने जैसे कि इस पूरे इलाके में लोकाविद्याधर समाज को उजाड़ने का बीड़ा उठाया हुआ है।

लोकविद्या जन आन्दोलन इंदौर से मध्य प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र में सक्रिय है। यह ज्ञान आन्दोलन मुख्य रूप से किसानों और आदिवासियों के बीच  उनकी अपनी ज्ञान चेतना के आधार पर एकता बनाने के प्रयास में कार्यरत है। अब दो वर्षों से विस्थापन से पीड़ित इलाकों में लोकविद्या ज्ञान पंचायतों का सिलसिला बनाया गया है। किन्हीं भी बड़े राजनीतिक संगठनों द्वारा यहाँ के किसानों और आदिवासियों की पीड़ा के सन्दर्भ में कोई पहल नहीं ली जा रही है। मध्य प्रदेश की जनता की वास्तविक ज़रुरत निश्चित ही एक बुनियादी विकल्प की है। लोकविद्या जन आन्दोलन इसी भूमि को तैयार करने में अपनी भूमिका देखता है।

मानपुर इसी क्षेत्र में इंदौर से लगभग 50 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में बसा एक क़स्बा है। यहीं पर 19-20 जनवरी 2013 को लोकविद्या जन आन्दोलन का एक क्षेत्रीय अधिवेशन हम कर रहे हैं।

  • पहले दिन क्षेत्रीय लोक कला और विद्या के प्रदर्शन होगा 
  • दूसरे दिन  आदिवासी-किसान एकता पर अधिवेशन। 

सैकड़ों की तादाद में किसान और आदिवासी भाग लेने आयें इसके लिए प्रयास है। आशा है कि इस अधिवेशन से पूरे क्षेत्र में लोकविद्या चेतना के विकास और फैलाव को अच्छी गति मिलेगी।

मध्य प्रदेश के पूर्वी छोर पर सिंगरौली में सितम्बर 2012 में लोकविद्या जन आन्दोलन का अधिवेशन हुआ था। उस अधिवेशन में इंदौर क्षेत्र के लोकविद्या कार्यकर्ताओं ने भाग लिया था। वहां उभर कर आये विचार कि  हर ग्रामीण  परिवार में लोकविद्या के आधार पर एक पक्की नौकरी हो, को पश्चिमी मध्य प्रदेश के किसानों और आदिवासियों ने बहुत पसंद किया है। यहाँ भी यह बात हमारे आन्दोलन का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। विस्थापन हमें किसी भी रूप में मान्य नहीं है।

वे सब लोग जो इस ब्लॉग को पढ़ रहे हैं इस अधिवेशन में आमंत्रित हैं। समय निकालें, भाग लेने आयें और एक नयी आदिवासी-किसान एकता को बल दें।

लोकविद्या समन्वय समूह , इंदौर                                   विद्या आश्रम, वाराणसी                                        
09926426858                                                                       09369124998

Sunday, January 6, 2013

कला, भाषा, मीडिया और दर्शन की दुनिया के साथ वार्ता


24 फरवरी 2013 की लोकविद्या ताना-बाना की मुंबई बैठक की तैयारी में 


 सूचना और  वैश्वीकरण के  इस नए युग में परिवर्तन की शक्तियां आपस में जुड़ सकें ऐसे स्थानों की फिर से पहचान करना और ऐसे नए स्थानों को गढ़ना ज़रूरी हो गया है। लोकविद्या ताना -बाना की एक ऐसे ही स्थान के रूप में पहचान की गयी है। लोकविद्या ताना-बाना उन लोगों के आपसी सम्बन्ध और संपर्क का ताना-बाना है जो लोकविद्या के बल पर अपनी ज़िन्दगी चलाते हैं तथा औरों के रहने, खाने और पहनने का इंतजाम भी करते हैं। नीचे कला, भाषा, मीडिया और दर्शन की दुनिया में लोकविद्या ताना-बाना पर बातचीत का एक प्रारंभिक सन्दर्भ तैयार किया जा रहा है, वह तर्क पेश करने का प्रयास है जिसके चलते यह देखा जा सके कि लोकविद्या ताना-बाना उन बहसों, गतिविधियों और रचनाओं का स्थान हो सकता है जो हमें एक नए दर्शन और परिवर्तन की राजनीति की ओर ले जायें। 

लोकविद्या      

दो दशकों से दुनिया नए चमत्कारिक घटनाक्रमों और बर्बादी के नए पैमानों के बीच घिसट रही है। कम्प्यूटर, बायो और नैनो की नयी प्रौद्योगिकियाँ विकसित हुई हैं, इन्टरनेट बना है, आर्थिकी, राजनीति, शिक्षा, स्वास्थ्य ... सभी का वैश्वीकरण हुआ है। अमेरिकी युद्धों के नए अवतार सामने आये हैं और पूरी दुनिया में, राज्य के समर्थन से, नए उद्योगों और बाज़ार ने जैसे कि लोगों को उजाड़ने का बीड़ा उठा रखा है। इस सबके विरोध में उठने वाले नए जन-आंदोलनों में लोगों के विचार करने और सोचने के तरीकों की शिरकत बढ़ी है। यानि नयी दुनिया के इस निर्माण में जहाँ एक ओर किसानों और आदिवासियों को बड़े पैमाने पर विस्थापित किया जा रहा है वहीँ दूसरी ओर उनके द्वारा अपने ज्ञान और अपने तौर-तरीकों पर बने रह कर अपनी दुनिया को बनाने का आग्रह बढ़ता जा रहा है। लोकविद्या उस मज़बूत खम्भे के रूप में उभर रही है जिसके इर्द-गिर्द दुनिया भर के विविध समुदाय एक नयी बुनियादी एकता हासिल कर सकते हैं। लोकविद्या पर वार्ताओं के सन्दर्भ के लिए देखें परिशिष्ट-1. 

सत्ता के तौर-तरीकों और जन-आन्दोलन, दोनों में ही इतना नया इतनी तेज़ी से हो रहा है कि 20वीं सदी के सिद्धांत लगातार पीछे छूटते चले जा रहे हैं और नयी परिकल्पनाओं के लिए मैदान खाली होता चला जा रहा है।   लोकविद्या को एक बार फिर ज्ञान और विचार के एक महान स्थान एवं स्रोत के रूप में पहचान मिल रही है।

ज्ञान की दुनिया में परिवर्तन 

परिवर्तन के इस दौर में साइंस की परम स्थिति टूट गयी है। और अब ज्ञान के जायज होने या समाज में सम्मान पाने के लिए वैज्ञानिक तरीकों का हवाला ज़रूरी नहीं रह गया है। ज्ञान की दुनिया का अभूतपूर्व विस्तार हो रहा है, जिसका एक आधार ज्ञान की लोक परम्पराओं द्वारा फिर से अर्जित सम्मान में है, समाज में मौजूद ज्ञान, यानि लोकविद्या, की प्रतिष्ठा में है। मनुष्य की सक्रियता की वे अभिव्यक्तियाँ जो साइंस की हुकूमत से हमेशा बाहर रहीं, जैसे कला, भाषा, मीडिया और दर्शन के क्षेत्रों की ज्ञान की गतिविधियाँ, अब अपने खुद के बूते पर ज्ञान की गतिविधियाँ मानी जा रही हैं।  ज्ञान की दुनिया में हो रहे वर्तमान परिवर्तन के लिए देखें परिशिष्ट-2. 

लोकविद्या ताना-बाना 

लोकविद्या ताना-बाना को वह स्थान बनना है जहाँ परिवर्तन के विचार और गतिविधियाँ स्वाभाविक तौर पर आपस में और एक दूसरे के संपर्क में आते हैं तथा अंतरक्रियाओं में उतरते हैं। इसे एक ऐसे सामाजिक स्थान के रूप में विकसित किया जाना चाहिए जहाँ कलाकर्मियों की गतिविधियाँ, लोकविद्याधर समाज के संचार, संघर्ष और संगठन के तौर-तरीके और न्याय के लिए संघर्षरत सभी व्यक्ति, समूह एवं संगठन स्वाभाविक तौर पर एक दूसरे  के साथ संपर्क में आते हैं। इसे इन सबके नए प्रयोगों का स्थान बनना है। एक लोकविद्या ताना-बाना समाज में अस्तित्व रखता है किन्तु यह अपनी वर्तमान अवस्था में उपरोक्त भूमिका निभा पाने की स्थिति में नहीं है। उसे इस भूमिका के लायक बनाने में कला,भाषा,मीडिया और दर्शन के क्षेत्रों से सक्रिय पहल की ज़रुरत है। वर्णन, कथन, सम्प्रेषण, संचार, अभिव्यक्ति और रचना के उन नए रूपों को गढ़ने की ज़रुरत है जो लोकविद्या ताना-बाना को राजनीतिक अर्थ प्रदान करें और बुनियादी परिवर्तन की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण स्थान बनाने में अपनी भूमिका निभाएं। 
लोकविद्या ताना-बाना को संस्थागत स्थान नहीं बनना है। जिस तरह लोकविद्या समाज में रहती है, उसीतरह लोकविद्या ताना-बाना भी समाज में ही रहना चाहिए, उसे समाज के एक अंग के रूप में ही विकसित  होना चाहिए। 

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परिशिष्ट-1

लोकविद्या संवाद और अभियान 

लोकविद्या का विचार अब लगभग दो दशकों से बहस में है। 1990 के दशक में हुए पारंपरिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के महाधिवेशनों, आई आई टी मुंबई 1993, अन्ना यूनिवर्सिटी, चेन्नई 1995, गाँधी विद्या संस्थान, वाराणसी, 1998,  ने लोक ज्ञान के बढ़ते महत्व की ओर ध्यान आकर्षित किया, यहाँ तक कि वाराणसी महाधिवेशन का नाम लोकविद्या महाधिवेशन रखा गया। लोकविद्या के आर्थिक, राजनैतिक पक्षों पर लेख लिखे गए हैं, उन्हें विभिन्न कार्यशालाओं और विचार गोष्ठियों में प्रस्तुत किया गया है और प्रकाशित भी किया गया है। 'समाज में ज्ञान पर वार्ता' के नाम से विभिन्न विश्व सामाजिक मंचों ( हैदराबाद सितम्बर  2003, मुंबई जनवरी 2004, कराची मार्च 2006, दिल्ली नवम्बर 2006, नैरोबी जनवरी 2007) में कार्यशालाएं आयोजित की गयीं और इन अवसरों पर अंग्रेजी में बुलेटिनें छापी गयीं। विश्वविद्यालयों में पढ़े-लिखे लोगों से लेकर किसानों, आदिवासियों और कारीगरों के स्थानों पर लोकविद्या पर वार्ताएं आयोजित की गयी हैं। विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के निमंत्रण पर वर्ष 2004 से 2012 के बीच दिल्ली, इलाहाबाद, कोलकाता, जयपुर,  इंदौर, मुंबई, हैदराबाद , बंगलुरु और चेन्नई में लोकविद्या पर व्याख्यान दिए गए हैं।  वर्ष 2012 में लोकविद्या जन आन्दोलन  के अधिवेशन, वाराणसी ( उ प्र ), दरभंगा (बिहार), सिंगरौली और इंदौर (म प्र ) तथा चिराला  (आन्ध्र प्रदेश), में आयोजित किये जा चुके हैं। लोकविद्या, ज्ञान और राजनीति के विषयों पर तथा विस्थापन, बाज़ार और ज्ञान के दर्शन पर लोकविद्या दृष्टिकोण से पुस्तिकाएं प्रकाशित की गयी हैं। पुस्तिकाएं अंग्रेजी व हिंदी दोनों में हैं। लोकविद्या संवाद और लोकविद्या पंचायत के नाम से 1998 से 2012 के बीच पत्रिकाएँ प्रकाशित की गयी हैं। विद्या आश्रम के सदस्य इन्टरनेट पर अंतरराष्ट्रीय बहस में भाग लेते हैं।  लोकविद्या जन आन्दोलन के नाम से एक ब्लॉग lokavidyajanandolan.blogspot.com चलाया जाता है। विद्या आश्रम की वेब साईट www.vidyaashram.org पर लोकविद्या विचार और कार्य से सम्बंधित अधिकांश जानकारी व प्रकाशन उपलब्ध हैं।  

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परिशिष्ट-2

ज्ञान की दुनिया में हो रहा वर्तमान परिवर्तन 

( 20वीं से 21वीं सदी )

  1. औद्योगिक युग में ज्ञान की दुनिया में बड़ी ऊँच-नीच थी। साइंस शीर्ष पर बैठा हुआ था और उसके बाद आते थे जीव विज्ञान, समाज विज्ञान, भाषा, कला आदि लगभग इसी क्रम में। अब यह श्रेणीबद्धता टूट गयी है। कोई नया सब पर हावी ऐसा क्रम अभी बना नहीं है। 
  2. 19वीं  और 20वीं सदी की दुनिया में साइंस के अलावा ज्ञान की अन्य परम्पराओं और व्यवस्थाओं को कोई सम्मान नहीं था। उन्हें ज्ञान का दर्जा ही हासिल नहीं था। अब स्थिति बदली है। लोगों के पास जो ज्ञान है उसे पहचाना जा रहा है। इसलिए भी लोकविद्या का विचार और उससे जुडी पहल एक नया विश्वास जागृत करने की स्थिति में आ रहे हैं। 
  3. व्यापार की दुनिया में और एक विद्यागत गतिविधि के रूप में मीडिया, कला, डिजाईन और भाषा अब साइंस की बराबरी करते दिखाई दे रहे हैं। 
  4. नए किस्म के विज्ञान सामने आ रहे हैं। इनमें प्रमुख हैं सूचना विज्ञान, ज्ञान का प्रबंधन व मन का विज्ञान।
  5. जब साइंस का दबदबा था तब उसी का सोचने का तरीका सभी ज्ञान की गतिविधियों में लागू किया जाता था , जैसे भाषा के अध्ययन, कला-समीक्षा, संस्कृति और परम्पराओं के मूल्यांकन, समाजशास्त्र, यहाँ तक कि दर्शन में भी। पर अब ऐसा नहीं होता। लोकविद्या, कला, भाषा, मीडिया, पूरब के दर्शन, मन का विज्ञान, जीव विज्ञान और सूचना का विज्ञान जैसे स्थानों से सोचने के अलग तरीकें सामने आ रहे हैं। 
  6. आधुनिक दुनिया ने विश्वविद्यालय को ज्ञान का एकमात्र केंद्र बना कर रखा था। लेकिन अब विश्वविद्यालय की यह इजारेदारी टूट रही है। इन्टरनेट पर और व्यापक समाज में ज्ञान की गतिविधियों (लोकविद्या) को नयी पहचान मिली है।
  7. कौन-सा ज्ञान जायज़ माना जाये और कौन नहीं, यह तय करने की कसौटी अब वैज्ञानिक तरीके में नहीं मानी जाती। मनुष्य समाज और प्रकृति के प्रति संवेदना और ज्ञान का संगठन और भण्डारण योग्य होना, ये दो बातें स्वतंत्र रूप से नए मानकों के रूप में उभरी हैं। 
  8. प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बड़े और शक्ति (पावर ) आधारित उद्योग का महत्व घटा है। और अधिकांश अनुसन्धान सूचना, नैनो, और बायो टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में हो रहा है। 
  9. ज्ञान की दुनिया पर के राष्ट्रीय नियंत्रण कमज़ोर हो रहे हैं और उनका स्थान एक तरफ अंतरराष्ट्रीय वित्तीय और कारपोरेट  ताकतें और दूसरी ओर सामाजिक आन्दोलन ले रहे हैं। 
  10. सामाजिक और तकनीकी दोनों ही क्षेत्रों में लोकविद्या आन्दोलन, फ्री एंड ओपन सॉफ्टवेयर मूवमेंट, क्षेत्रीय भाषाओँ और कला का उभार ये नए ज्ञान आन्दोलन हैं। प्रकृति और धरती माँ  के अधिकार के आन्दोलन अंतरराष्ट्रीय पटल पर एक नयी लोकसम्मत ज्ञान की राजनीति का उद्घाटन कर रहे हैं। 
ज्ञान की दुनिया की साइंस रूपी बुनियाद कुछ यों हिल गयी है कि शोषित और तिरस्कृत वर्गों के लिए अपने उद्धार के ऐतिहासिक मौके तैयार हो रहे हैं। अब की बार पहल उन लोगों से आ सकती है, और आनी भी चाहिए, जिनकी संवेदना मनुष्य और प्रकृति के साथ है और जिन्हें उनकी गतिविधियों के साथ फिर से ज्ञान की दुनिया में जगह मिलना शुरू हुई है। 

विद्या आश्रम 
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Wednesday, January 2, 2013

लोकविद्या आश्रम, बभनपुरा , वाराणसी - उद्घाटन







28 दिसम्बर 2012 को वाराणसी में गंगा नदी के किनारे के गाँव बभनपुरा में एक लोकविद्या आश्रम की शुरुआत की गयी। यह विद्या आश्रम के सक्रिय कार्यकर्ता दिलीप कुमार 'दिली' का गाँव है और वाराणसी शहर से लगभग 10 किलोमीटर दूर है।
कार्यक्रम का उद्घाटन कबीर के भजनों से किया गया--' नर तू ज्ञान बिना पछ्तैबा ...' रमाशंकर बाबा केशव, राधेश्याम और दिलीप कुमार ने ये भजन गाये। दिलीप जी ने लोकविद्या आश्रम के मूल्यों को सबके सामने रखा। उन्होने तीन प्रमुख बातें कहीं-

  • लोकजीवन में रमता ज्ञान दर्शन लोकविद्या है। 
  • लोकविद्या के स्वामी किसान, कारीगर, आदिवासी, महिलाएं, छोटे-छोटे दुकानदार ये ही असली ज्ञानी हैं। 
  • पाखंड, दमन, गैर-बराबरी, मनुष्य के हाथों मनुष्य की लूट, इन सबके खिलाफ अलख जगाने का स्थान लोकविद्या आश्रम है। 
कई लोगों ने अपने वक्तव्यों में लोकविद्या की वास्तविकता और ताकत की ओर ध्यान आकर्षित किया। यह भी कहा गया कि लोकविद्या में जीवन का आधार है और व्यवस्था का आधार विश्वविद्यालय की विद्या में, तथा यह कि इस विसंगति को दूर करना और लोकविद्या में व्यवस्था का आधार बनाना यही एक नया समाज बनाने का रास्ता है। इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम के रूप में कहा गया कि लोकविद्या के बल पर सबको पक्की आय की व्यवस्था होनी चाहिए, उन्हें सरकारी कर्मचारी के बराबर नियमित वेतन मिलना चाहिए। 
बोलने वालों में प्रमुख रहे बभनपुरा के शिवप्रसाद, जयप्रकाश, राकेश, सलारपुर के लक्षमण प्रसाद, बरईपुर  की राधा देवी, पीलीकोठी के एहसान अली, चिंतन ढाबा सारनाथ के कृष्ण कुमार व विद्या आश्रम सारनाथ की प्रेमलता सिंह और सुनील सहस्रबुद्धे। रमचंदीपुर  के बबलू कुमार ने सभा का सञ्चालन किया। चार-पांच गाँवों से कुल 60 लोगों ने भाग लिया। 



यह लोकविद्या आश्रम गाँव वासियों के सहयोग से बनाया गया है। गाँव के लोगों ने चावल, दाल, सब्जी का सहयोग किया जिससे खिचड़ी बनायीं गयी और सभी लोगों को प्रसाद के रूप में दी गयी। 

दिलीप जी ने घोषणा की कि हर महीने पूर्णिमा के दिन लोकविद्या आश्रम पर लोकविद्या सत्संग का आयोजन रहेगा, यहाँ से गाँव- गाँव में लोकविद्या का सन्देश पहुँचाया जायेगा तथा आश्रम पर बच्चों के लिए लोकविद्या शिक्षा की व्यवस्थाएं की जाएँगी। 

बबलू कुमार