24 फरवरी 2013 की लोकविद्या ताना-बाना की मुंबई बैठक की तैयारी में
सूचना और वैश्वीकरण के इस नए युग में परिवर्तन की शक्तियां आपस में जुड़ सकें ऐसे स्थानों की फिर से पहचान करना और ऐसे नए स्थानों को गढ़ना ज़रूरी हो गया है। लोकविद्या ताना -बाना की एक ऐसे ही स्थान के रूप में पहचान की गयी है। लोकविद्या ताना-बाना उन लोगों के आपसी सम्बन्ध और संपर्क का ताना-बाना है जो लोकविद्या के बल पर अपनी ज़िन्दगी चलाते हैं तथा औरों के रहने, खाने और पहनने का इंतजाम भी करते हैं। नीचे कला, भाषा, मीडिया और दर्शन की दुनिया में लोकविद्या ताना-बाना पर बातचीत का एक प्रारंभिक सन्दर्भ तैयार किया जा रहा है, वह तर्क पेश करने का प्रयास है जिसके चलते यह देखा जा सके कि लोकविद्या ताना-बाना उन बहसों, गतिविधियों और रचनाओं का स्थान हो सकता है जो हमें एक नए दर्शन और परिवर्तन की राजनीति की ओर ले जायें।
लोकविद्या
दो दशकों से दुनिया नए चमत्कारिक घटनाक्रमों और बर्बादी के नए पैमानों के बीच घिसट रही है। कम्प्यूटर, बायो और नैनो की नयी प्रौद्योगिकियाँ विकसित हुई हैं, इन्टरनेट बना है, आर्थिकी, राजनीति, शिक्षा, स्वास्थ्य ... सभी का वैश्वीकरण हुआ है। अमेरिकी युद्धों के नए अवतार सामने आये हैं और पूरी दुनिया में, राज्य के समर्थन से, नए उद्योगों और बाज़ार ने जैसे कि लोगों को उजाड़ने का बीड़ा उठा रखा है। इस सबके विरोध में उठने वाले नए जन-आंदोलनों में लोगों के विचार करने और सोचने के तरीकों की शिरकत बढ़ी है। यानि नयी दुनिया के इस निर्माण में जहाँ एक ओर किसानों और आदिवासियों को बड़े पैमाने पर विस्थापित किया जा रहा है वहीँ दूसरी ओर उनके द्वारा अपने ज्ञान और अपने तौर-तरीकों पर बने रह कर अपनी दुनिया को बनाने का आग्रह बढ़ता जा रहा है। लोकविद्या उस मज़बूत खम्भे के रूप में उभर रही है जिसके इर्द-गिर्द दुनिया भर के विविध समुदाय एक नयी बुनियादी एकता हासिल कर सकते हैं। लोकविद्या पर वार्ताओं के सन्दर्भ के लिए देखें परिशिष्ट-1.
सत्ता के तौर-तरीकों और जन-आन्दोलन, दोनों में ही इतना नया इतनी तेज़ी से हो रहा है कि 20वीं सदी के सिद्धांत लगातार पीछे छूटते चले जा रहे हैं और नयी परिकल्पनाओं के लिए मैदान खाली होता चला जा रहा है। लोकविद्या को एक बार फिर ज्ञान और विचार के एक महान स्थान एवं स्रोत के रूप में पहचान मिल रही है।
ज्ञान की दुनिया में परिवर्तन
परिवर्तन के इस दौर में साइंस की परम स्थिति टूट गयी है। और अब ज्ञान के जायज होने या समाज में सम्मान पाने के लिए वैज्ञानिक तरीकों का हवाला ज़रूरी नहीं रह गया है। ज्ञान की दुनिया का अभूतपूर्व विस्तार हो रहा है, जिसका एक आधार ज्ञान की लोक परम्पराओं द्वारा फिर से अर्जित सम्मान में है, समाज में मौजूद ज्ञान, यानि लोकविद्या, की प्रतिष्ठा में है। मनुष्य की सक्रियता की वे अभिव्यक्तियाँ जो साइंस की हुकूमत से हमेशा बाहर रहीं, जैसे कला, भाषा, मीडिया और दर्शन के क्षेत्रों की ज्ञान की गतिविधियाँ, अब अपने खुद के बूते पर ज्ञान की गतिविधियाँ मानी जा रही हैं। ज्ञान की दुनिया में हो रहे वर्तमान परिवर्तन के लिए देखें परिशिष्ट-2.
लोकविद्या ताना-बाना
लोकविद्या ताना-बाना को वह स्थान बनना है जहाँ परिवर्तन के विचार और गतिविधियाँ स्वाभाविक तौर पर आपस में और एक दूसरे के संपर्क में आते हैं तथा अंतरक्रियाओं में उतरते हैं। इसे एक ऐसे सामाजिक स्थान के रूप में विकसित किया जाना चाहिए जहाँ कलाकर्मियों की गतिविधियाँ, लोकविद्याधर समाज के संचार, संघर्ष और संगठन के तौर-तरीके और न्याय के लिए संघर्षरत सभी व्यक्ति, समूह एवं संगठन स्वाभाविक तौर पर एक दूसरे के साथ संपर्क में आते हैं। इसे इन सबके नए प्रयोगों का स्थान बनना है। एक लोकविद्या ताना-बाना समाज में अस्तित्व रखता है किन्तु यह अपनी वर्तमान अवस्था में उपरोक्त भूमिका निभा पाने की स्थिति में नहीं है। उसे इस भूमिका के लायक बनाने में कला,भाषा,मीडिया और दर्शन के क्षेत्रों से सक्रिय पहल की ज़रुरत है। वर्णन, कथन, सम्प्रेषण, संचार, अभिव्यक्ति और रचना के उन नए रूपों को गढ़ने की ज़रुरत है जो लोकविद्या ताना-बाना को राजनीतिक अर्थ प्रदान करें और बुनियादी परिवर्तन की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण स्थान बनाने में अपनी भूमिका निभाएं।
लोकविद्या ताना-बाना को संस्थागत स्थान नहीं बनना है। जिस तरह लोकविद्या समाज में रहती है, उसीतरह लोकविद्या ताना-बाना भी समाज में ही रहना चाहिए, उसे समाज के एक अंग के रूप में ही विकसित होना चाहिए।
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परिशिष्ट-1
लोकविद्या संवाद और अभियान
लोकविद्या का विचार अब लगभग दो दशकों से बहस में है। 1990 के दशक में हुए पारंपरिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के महाधिवेशनों, आई आई टी मुंबई 1993, अन्ना यूनिवर्सिटी, चेन्नई 1995, गाँधी विद्या संस्थान, वाराणसी, 1998, ने लोक ज्ञान के बढ़ते महत्व की ओर ध्यान आकर्षित किया, यहाँ तक कि वाराणसी महाधिवेशन का नाम लोकविद्या महाधिवेशन रखा गया। लोकविद्या के आर्थिक, राजनैतिक पक्षों पर लेख लिखे गए हैं, उन्हें विभिन्न कार्यशालाओं और विचार गोष्ठियों में प्रस्तुत किया गया है और प्रकाशित भी किया गया है। 'समाज में ज्ञान पर वार्ता' के नाम से विभिन्न विश्व सामाजिक मंचों ( हैदराबाद सितम्बर 2003, मुंबई जनवरी 2004, कराची मार्च 2006, दिल्ली नवम्बर 2006, नैरोबी जनवरी 2007) में कार्यशालाएं आयोजित की गयीं और इन अवसरों पर अंग्रेजी में बुलेटिनें छापी गयीं। विश्वविद्यालयों में पढ़े-लिखे लोगों से लेकर किसानों, आदिवासियों और कारीगरों के स्थानों पर लोकविद्या पर वार्ताएं आयोजित की गयी हैं। विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के निमंत्रण पर वर्ष 2004 से 2012 के बीच दिल्ली, इलाहाबाद, कोलकाता, जयपुर, इंदौर, मुंबई, हैदराबाद , बंगलुरु और चेन्नई में लोकविद्या पर व्याख्यान दिए गए हैं। वर्ष 2012 में लोकविद्या जन आन्दोलन के अधिवेशन, वाराणसी ( उ प्र ), दरभंगा (बिहार), सिंगरौली और इंदौर (म प्र ) तथा चिराला (आन्ध्र प्रदेश), में आयोजित किये जा चुके हैं। लोकविद्या, ज्ञान और राजनीति के विषयों पर तथा विस्थापन, बाज़ार और ज्ञान के दर्शन पर लोकविद्या दृष्टिकोण से पुस्तिकाएं प्रकाशित की गयी हैं। पुस्तिकाएं अंग्रेजी व हिंदी दोनों में हैं। लोकविद्या संवाद और लोकविद्या पंचायत के नाम से 1998 से 2012 के बीच पत्रिकाएँ प्रकाशित की गयी हैं। विद्या आश्रम के सदस्य इन्टरनेट पर अंतरराष्ट्रीय बहस में भाग लेते हैं। लोकविद्या जन आन्दोलन के नाम से एक ब्लॉग lokavidyajanandolan.blogspot.com चलाया जाता है। विद्या आश्रम की वेब साईट www.vidyaashram.org पर लोकविद्या विचार और कार्य से सम्बंधित अधिकांश जानकारी व प्रकाशन उपलब्ध हैं।
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परिशिष्ट-2
ज्ञान की दुनिया में हो रहा वर्तमान परिवर्तन
( 20वीं से 21वीं सदी )
- औद्योगिक युग में ज्ञान की दुनिया में बड़ी ऊँच-नीच थी। साइंस शीर्ष पर बैठा हुआ था और उसके बाद आते थे जीव विज्ञान, समाज विज्ञान, भाषा, कला आदि लगभग इसी क्रम में। अब यह श्रेणीबद्धता टूट गयी है। कोई नया सब पर हावी ऐसा क्रम अभी बना नहीं है।
- 19वीं और 20वीं सदी की दुनिया में साइंस के अलावा ज्ञान की अन्य परम्पराओं और व्यवस्थाओं को कोई सम्मान नहीं था। उन्हें ज्ञान का दर्जा ही हासिल नहीं था। अब स्थिति बदली है। लोगों के पास जो ज्ञान है उसे पहचाना जा रहा है। इसलिए भी लोकविद्या का विचार और उससे जुडी पहल एक नया विश्वास जागृत करने की स्थिति में आ रहे हैं।
- व्यापार की दुनिया में और एक विद्यागत गतिविधि के रूप में मीडिया, कला, डिजाईन और भाषा अब साइंस की बराबरी करते दिखाई दे रहे हैं।
- नए किस्म के विज्ञान सामने आ रहे हैं। इनमें प्रमुख हैं सूचना विज्ञान, ज्ञान का प्रबंधन व मन का विज्ञान।
- जब साइंस का दबदबा था तब उसी का सोचने का तरीका सभी ज्ञान की गतिविधियों में लागू किया जाता था , जैसे भाषा के अध्ययन, कला-समीक्षा, संस्कृति और परम्पराओं के मूल्यांकन, समाजशास्त्र, यहाँ तक कि दर्शन में भी। पर अब ऐसा नहीं होता। लोकविद्या, कला, भाषा, मीडिया, पूरब के दर्शन, मन का विज्ञान, जीव विज्ञान और सूचना का विज्ञान जैसे स्थानों से सोचने के अलग तरीकें सामने आ रहे हैं।
- आधुनिक दुनिया ने विश्वविद्यालय को ज्ञान का एकमात्र केंद्र बना कर रखा था। लेकिन अब विश्वविद्यालय की यह इजारेदारी टूट रही है। इन्टरनेट पर और व्यापक समाज में ज्ञान की गतिविधियों (लोकविद्या) को नयी पहचान मिली है।
- कौन-सा ज्ञान जायज़ माना जाये और कौन नहीं, यह तय करने की कसौटी अब वैज्ञानिक तरीके में नहीं मानी जाती। मनुष्य समाज और प्रकृति के प्रति संवेदना और ज्ञान का संगठन और भण्डारण योग्य होना, ये दो बातें स्वतंत्र रूप से नए मानकों के रूप में उभरी हैं।
- प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बड़े और शक्ति (पावर ) आधारित उद्योग का महत्व घटा है। और अधिकांश अनुसन्धान सूचना, नैनो, और बायो टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में हो रहा है।
- ज्ञान की दुनिया पर के राष्ट्रीय नियंत्रण कमज़ोर हो रहे हैं और उनका स्थान एक तरफ अंतरराष्ट्रीय वित्तीय और कारपोरेट ताकतें और दूसरी ओर सामाजिक आन्दोलन ले रहे हैं।
- सामाजिक और तकनीकी दोनों ही क्षेत्रों में लोकविद्या आन्दोलन, फ्री एंड ओपन सॉफ्टवेयर मूवमेंट, क्षेत्रीय भाषाओँ और कला का उभार ये नए ज्ञान आन्दोलन हैं। प्रकृति और धरती माँ के अधिकार के आन्दोलन अंतरराष्ट्रीय पटल पर एक नयी लोकसम्मत ज्ञान की राजनीति का उद्घाटन कर रहे हैं।
ज्ञान की दुनिया की साइंस रूपी बुनियाद कुछ यों हिल गयी है कि शोषित और तिरस्कृत वर्गों के लिए अपने उद्धार के ऐतिहासिक मौके तैयार हो रहे हैं। अब की बार पहल उन लोगों से आ सकती है, और आनी भी चाहिए, जिनकी संवेदना मनुष्य और प्रकृति के साथ है और जिन्हें उनकी गतिविधियों के साथ फिर से ज्ञान की दुनिया में जगह मिलना शुरू हुई है।
विद्या आश्रम
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