वाराणसी में 15 - 16 नवम्बर को होने वाली किसान - कारीगर पंचायत की तैयारियाँ शुरू हो चुकी है। वाराणसी के ग्रामीण इलाकों और कारीगर बस्तियों में ज्ञान पंचायतों का सिलसिला शुरू हो गया है। इन ज्ञान पंचायतों में चर्चा के मुद्दों में भूमि अधिग्रहण और किसान और कारीगर के लिए पक्की और नियमित आय प्रमुख बन रहे हैं ।
किसान की माली हालत सुधरे और उसकी आमदनी भी संगठित क्षेत्र के कर्मचारी की तरह हो यह सवाल तो हमारी सरकारों के ज़ेहन में कभी आया ही नहीं है। हाँ, भूमि अधिग्रहण पर विगत चार - पांच वर्षों से उग्र विरोध और तेज़ बहस है। पश्चिम बंगाल के सिंगुर और नंदीग्राम, उत्तर प्रदेश के टप्पल, भट्ठा-परसौल सहित देश के विभिन्न हिस्सों में शहर विकास, खनिज उद्यम और बिजली परियोजनाओं के लिए किसानों से ली जा रही ज़मीन के विरोध में उग्र किसान आंदोलन हुए हैं। भूमि अधिग्रहण कानून और उसमें कई संशोधन पर संसद में छिड़ी बहसें और किसान संगठनों के साथ इस कानून के राष्ट्रव्यापी विरोध ने किसान और किसानी को राजनैतिक पटल पर ला खड़ा किया। लेकिन अधिकांश बहस कुछ मुद्दों पर ही सीमित रह गई जैसे - किसान को मुआवज़ा बाजार रेट के चौगुना मिलना चाहिए, भूमि अधिग्रहण के लिए 80 फीसदी किसानों की सहमति हो, अधिग्रहित ज़मीन पर परियोजना न स्थापित होने पर किसान को ज़मीन वापस हो, विस्थापितों का पुनर्वास, नौकरी आदि।
भूमि अधिग्रहण का सारा बखेड़ा विकास के नाम पर खड़ा हुआ है। अब भला ऐसा कौन होगा जिसे विकास विरोधी होने का तमगा लेना पसंद आये। इसलिए एक भी पार्टी, संगठन या व्यक्ति ने भूमि अधिग्रहण के औचित्य पर सवाल खड़ा करना मुनासिब नहीं समझा। कायदे से तो यह होना चाहिए था कि अभी तक उजाड़े गए किसानों, आदिवासियों, फूटपाथ पर रोटी कमाने वालों की स्थिति की समीक्षा की जाती और अध्ययन कर नीति-कानून बनाये जाते। ऐसा तो हुआ नहीं। भूमि अधिग्रहण कानून वास्तव में देश के मुट्ठी भर अमीर लोगों के विकास के लिए है। टाटा , बिड़ला , अम्बानी और अडानी जैसों की फैक्ट्री खड़ी करने के लिए करोड़ों किसानों , आदिवासियों, पटरी के दुकानदारों से उनकी ज़मीन और जीविका छीनना और उसे विकास मानना शुद्ध अन्याय है ।
विकास की मंशा से काम किया गया होता तो ग्रामीण क्षेत्र का एक-एक नलकूप दुरुस्त होता, नहरें पूरी क्षमता से चलकर खेतों को हराभरा रखतीं , खाद, बीज, कीटनाशक, कृषि साधन सुलभ और सस्ता होता। किसानों को अपनी उपज का दाम पाने के लिए भटकना न पड़ता और उसे आत्महत्या न करनी पड़ती। किसान को गरीब बनाये रखने की नीतियों को खत्म कर के उसकी आय को संगठित क्षेत्र के कर्मचारी के बराबर करने से ही गाँव के लोगों के जीवन का अँधेरा दूर होगा।
हमारा मानना है कि ज़मीन पर तो किसानों का ही अधिकार होना चाहिए, किसी दूसरी एजेंसी का नहीं और भूमि अधिग्रहण को संविधान विरोधी गतिविधि घोषित किया जाना चाहिए। वाराणसी की किसान कारीगर पंचायत में हम इस बात को पुरज़ोर ढंग से उठाएंगे और साथ ही इस बात को भी कि भारत के गांवों की खुशहाली से ही देश खुशहाल होगा और इसके लिए ऐसी नीति बनाई जाये कि गाँव के हर घर में कम से कम एक पक्की और नियमित आय हो जो सरकारी कर्मचारी के बराबर हो।
लक्ष्मण प्रसाद
वाराणसी जिला अध्यक्ष
भारतीय किसान यूनियन
किसान की माली हालत सुधरे और उसकी आमदनी भी संगठित क्षेत्र के कर्मचारी की तरह हो यह सवाल तो हमारी सरकारों के ज़ेहन में कभी आया ही नहीं है। हाँ, भूमि अधिग्रहण पर विगत चार - पांच वर्षों से उग्र विरोध और तेज़ बहस है। पश्चिम बंगाल के सिंगुर और नंदीग्राम, उत्तर प्रदेश के टप्पल, भट्ठा-परसौल सहित देश के विभिन्न हिस्सों में शहर विकास, खनिज उद्यम और बिजली परियोजनाओं के लिए किसानों से ली जा रही ज़मीन के विरोध में उग्र किसान आंदोलन हुए हैं। भूमि अधिग्रहण कानून और उसमें कई संशोधन पर संसद में छिड़ी बहसें और किसान संगठनों के साथ इस कानून के राष्ट्रव्यापी विरोध ने किसान और किसानी को राजनैतिक पटल पर ला खड़ा किया। लेकिन अधिकांश बहस कुछ मुद्दों पर ही सीमित रह गई जैसे - किसान को मुआवज़ा बाजार रेट के चौगुना मिलना चाहिए, भूमि अधिग्रहण के लिए 80 फीसदी किसानों की सहमति हो, अधिग्रहित ज़मीन पर परियोजना न स्थापित होने पर किसान को ज़मीन वापस हो, विस्थापितों का पुनर्वास, नौकरी आदि।
भूमि अधिग्रहण का सारा बखेड़ा विकास के नाम पर खड़ा हुआ है। अब भला ऐसा कौन होगा जिसे विकास विरोधी होने का तमगा लेना पसंद आये। इसलिए एक भी पार्टी, संगठन या व्यक्ति ने भूमि अधिग्रहण के औचित्य पर सवाल खड़ा करना मुनासिब नहीं समझा। कायदे से तो यह होना चाहिए था कि अभी तक उजाड़े गए किसानों, आदिवासियों, फूटपाथ पर रोटी कमाने वालों की स्थिति की समीक्षा की जाती और अध्ययन कर नीति-कानून बनाये जाते। ऐसा तो हुआ नहीं। भूमि अधिग्रहण कानून वास्तव में देश के मुट्ठी भर अमीर लोगों के विकास के लिए है। टाटा , बिड़ला , अम्बानी और अडानी जैसों की फैक्ट्री खड़ी करने के लिए करोड़ों किसानों , आदिवासियों, पटरी के दुकानदारों से उनकी ज़मीन और जीविका छीनना और उसे विकास मानना शुद्ध अन्याय है ।
विकास की मंशा से काम किया गया होता तो ग्रामीण क्षेत्र का एक-एक नलकूप दुरुस्त होता, नहरें पूरी क्षमता से चलकर खेतों को हराभरा रखतीं , खाद, बीज, कीटनाशक, कृषि साधन सुलभ और सस्ता होता। किसानों को अपनी उपज का दाम पाने के लिए भटकना न पड़ता और उसे आत्महत्या न करनी पड़ती। किसान को गरीब बनाये रखने की नीतियों को खत्म कर के उसकी आय को संगठित क्षेत्र के कर्मचारी के बराबर करने से ही गाँव के लोगों के जीवन का अँधेरा दूर होगा।
हमारा मानना है कि ज़मीन पर तो किसानों का ही अधिकार होना चाहिए, किसी दूसरी एजेंसी का नहीं और भूमि अधिग्रहण को संविधान विरोधी गतिविधि घोषित किया जाना चाहिए। वाराणसी की किसान कारीगर पंचायत में हम इस बात को पुरज़ोर ढंग से उठाएंगे और साथ ही इस बात को भी कि भारत के गांवों की खुशहाली से ही देश खुशहाल होगा और इसके लिए ऐसी नीति बनाई जाये कि गाँव के हर घर में कम से कम एक पक्की और नियमित आय हो जो सरकारी कर्मचारी के बराबर हो।
लक्ष्मण प्रसाद
वाराणसी जिला अध्यक्ष
भारतीय किसान यूनियन
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