अक्टूबर भर होने वाले बिहार के चुनावों पर बड़ी बहस जारी है। चुनाव दो ध्रुवीय है - एक तरफ सामाजिक न्याय की बात करने वाले हैं, तो दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व का गठबंधन। समाज में परिवर्तन चाहने वाले सामाजिक न्याय के पक्षधर तो हैं लेकिन अब इस आंदोलन के अगले कदम का इंतज़ार कर रहे हैं।
बिहार सामाजिक न्याय का एक बड़ा गढ़ रहा है। 25 साल पहले शुरू हुए राजनैतिक परिवर्तन ने पिछड़े, शोषित और दबाये गए लोगों में एक नई ऊर्जा का संचार किया है। बिहार के गाँवों में जाकर पढ़े-लिखे लोग भाँजकर चले आएं, यह अब संभव नहीं है। लेकिन हम सब को दिखाई दे रहा है कि यह काफी नहीं है और यदि आर्थिक स्थितियों में इज़ाफ़े का गरीबों की तरफ विस्तार नहीं हुआ, तो आंदोलन की धार टूटना तय है । देश के अन्य भागों में जाट, गूजर और अब पटेल भी मैदान में आ चुके हैं।
अब यह निहायत ज़रूरी है कि सामाजिक न्याय आंदोलन अपना अगला चरण निर्धारित करे।
एक तरफ संगठित क्षेत्र के लोग हैं, यानि वे लोग जो सरकारी कर्मचारी हैं या बड़ी-बड़ी कंपनियों में नौकरी करते हैं। इन लोगों की तनख्वाहें आज 30 हज़ार से लेकर लाखों रुपये प्रति माह तक हैं। इसके अलावा तरह-तरह की सुविधाएं भी इन्हें मिलती हैं। इन्हीं के लिए महंगाई भत्ता होता है और इन्हीं के लिए वेतन आयोग बनते हैं। दूसरी ओर असंगठित क्षेत्र के लोग हैं जिनकी कभी कोई निश्चित आय नहीं होती और जो अपना पूरा ज्ञान और श्रम लगाने के बाद भी आज 5 से 8 हज़ार रुपये महीना तक बड़ी मुश्किल से कमा पाते हैं। इनमें किसान, कारीगर, आदिवासी , पटरी-ठेला-गुमटी वाले और मज़दूर स्त्री-पुरुष, ये सभी हैं। सामाजिक न्याय का आंदोलन कहता है कि सरकारें यह पक्षपातपूर्ण व्यवहार बंद करें और असंगठित क्षेत्र के लिए भी सरकारी कर्मचारी जैसी पक्की और नियमित आय सुनिश्चित करें ।
बिहार सामाजिक न्याय का एक बड़ा गढ़ रहा है। 25 साल पहले शुरू हुए राजनैतिक परिवर्तन ने पिछड़े, शोषित और दबाये गए लोगों में एक नई ऊर्जा का संचार किया है। बिहार के गाँवों में जाकर पढ़े-लिखे लोग भाँजकर चले आएं, यह अब संभव नहीं है। लेकिन हम सब को दिखाई दे रहा है कि यह काफी नहीं है और यदि आर्थिक स्थितियों में इज़ाफ़े का गरीबों की तरफ विस्तार नहीं हुआ, तो आंदोलन की धार टूटना तय है । देश के अन्य भागों में जाट, गूजर और अब पटेल भी मैदान में आ चुके हैं।
अब यह निहायत ज़रूरी है कि सामाजिक न्याय आंदोलन अपना अगला चरण निर्धारित करे।
असंगठित और संगठित क्षेत्र के बीच का अंतर मिटाना इस दिशा में एक युगांतरकारी कदम साबित होगा। समाज में बेइंतहा फैली हुई गैर-बराबरी, गरीबी और असम्मान की परिस्थितियों से मुखातिब हों तो सबसे पहले ध्यान जाता है संगठित और असंगठित क्षेत्र के बीच की खाईं की ओर। इस खाईं को पाटना अर्थात संगठित और असंगठित क्षेत्र में आमदनी के अंतर को ख़त्म करना, यही अब सामाजिक न्याय के आंदोलन का प्रमुख एजेंडा होना चाहिए ।
एक तरफ संगठित क्षेत्र के लोग हैं, यानि वे लोग जो सरकारी कर्मचारी हैं या बड़ी-बड़ी कंपनियों में नौकरी करते हैं। इन लोगों की तनख्वाहें आज 30 हज़ार से लेकर लाखों रुपये प्रति माह तक हैं। इसके अलावा तरह-तरह की सुविधाएं भी इन्हें मिलती हैं। इन्हीं के लिए महंगाई भत्ता होता है और इन्हीं के लिए वेतन आयोग बनते हैं। दूसरी ओर असंगठित क्षेत्र के लोग हैं जिनकी कभी कोई निश्चित आय नहीं होती और जो अपना पूरा ज्ञान और श्रम लगाने के बाद भी आज 5 से 8 हज़ार रुपये महीना तक बड़ी मुश्किल से कमा पाते हैं। इनमें किसान, कारीगर, आदिवासी , पटरी-ठेला-गुमटी वाले और मज़दूर स्त्री-पुरुष, ये सभी हैं। सामाजिक न्याय का आंदोलन कहता है कि सरकारें यह पक्षपातपूर्ण व्यवहार बंद करें और असंगठित क्षेत्र के लिए भी सरकारी कर्मचारी जैसी पक्की और नियमित आय सुनिश्चित करें ।
इस माँग का ठोस आधार इस बात में है कि लोकविद्या किसी भी अर्थ में विश्वविद्यालय की विद्या से कम नहीं होती ।
असंगठित क्षेत्र में कार्यरत सभी अपने ज्ञान और हुनर के बल पर यानि लोकविद्या के बल पर काम करते हैं। किसान , कारीगर , छोटा-मोटा मरम्मत और सेवा का काम करने वाले, आदिवासी, मछुआरे, सडकों पर छोटी-छोटी दुकानदारी करने वाले, खेतों में मेहनत करने वाले, घर-परिवारों का प्रबंधन करने वाली स्त्रियां, ये सभी अपने ज्ञान और हुनर के बल पर काम करते हैं। इन क्षमताओं को वे अपने कार्यस्थल पर, बुज़ुर्गों से तथा समाज में मेहनत करके हासिल करते हैं। इनके ज्ञान को लोकविद्या कहा जाता है और ये सब मिलकर लोकविद्या-समाज बनाते हैं। इस लोकविद्या का अपना जानकारियों का भंडार होता है, अपने मूल्य होते हैं, और तर्क का अपना विधान होता है। लोकविद्या समाज में बसती है और लोगों की ज़रूरतों, अनुभव तथा उनकी तर्कबुद्धि के बल पर संवर्धित होती रहती है। इसलिए लोकविद्या नित्-नवीन होती है।
असंगठित क्षेत्र में कार्यरत सभी अपने ज्ञान और हुनर के बल पर यानि लोकविद्या के बल पर काम करते हैं। किसान , कारीगर , छोटा-मोटा मरम्मत और सेवा का काम करने वाले, आदिवासी, मछुआरे, सडकों पर छोटी-छोटी दुकानदारी करने वाले, खेतों में मेहनत करने वाले, घर-परिवारों का प्रबंधन करने वाली स्त्रियां, ये सभी अपने ज्ञान और हुनर के बल पर काम करते हैं। इन क्षमताओं को वे अपने कार्यस्थल पर, बुज़ुर्गों से तथा समाज में मेहनत करके हासिल करते हैं। इनके ज्ञान को लोकविद्या कहा जाता है और ये सब मिलकर लोकविद्या-समाज बनाते हैं। इस लोकविद्या का अपना जानकारियों का भंडार होता है, अपने मूल्य होते हैं, और तर्क का अपना विधान होता है। लोकविद्या समाज में बसती है और लोगों की ज़रूरतों, अनुभव तथा उनकी तर्कबुद्धि के बल पर संवर्धित होती रहती है। इसलिए लोकविद्या नित्-नवीन होती है।
इसलिए सामाजिक न्याय आंदोलन यह मांग करता है कि लोकविद्या के बल पर काम करने वालों की भी वैसी ही आय होनी चाहिए जैसी आय सरकार अपने कर्मचारियों को देती है।
सामाजिक न्याय के पक्षधर सभी राजनैतिक दल हामी भरें कि वे लोकविद्या-समाज के लिए वैसी ही आमदनी के लिए काम करेंगे जैसी आमदनी एक सरकारी कर्मचारी की होती है।
लोकविद्या जन आंदोलन , वाराणसी
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