Monday, November 20, 2017

Conference in Memory of C.V. Seshadri

A Conference in Memory of C.V. Seshadri
8-10 February, 2018
Chennai
C.V. Seshadri, popularly known as CVS, was a scientist, a chemical engineer, who radically departed from standard science practice. He worked on the science and society interface and even saw questions of poverty as integral to the ideas and practice of science. He saw science as part of a larger world of knowledge and the dynamics therein. He taught at IIT Kanpur and later in the late 1970s took up the directorship of Mrugappa Chettiyar Research Center (MCRC) in Chennai. He was closely associated with PPST (Patriotic and People Oriented Science and Technology) Foundation whose president he was when in 1995 he passed away at the age of about 65.
Prof. C.N. Krishnan, former director PPST, has taken the lead in organizing a conference in Chennai in memory of CVS. The conference would look at the dynamics in the world of knowledge during the last quarter century. This is the period which has witnessed the ubiquitous presence of the internet and re-legitimization of knowledge in society (lokavidya) influencing the world of knowledge, its dynamics, scope, hierarchies, values, paradigms, self image, its relation with society and all that there is, in a big way.
The details of the conference may be found at http://au-kbc.org/cvsconf.html  
Vidya Ashram has been part of conceptualization of the conference and expects to present in the conference the lokavidya point of view in its full width and depth.
Many of you have had a steady concern with such ideas, particularly in the context of desired changes in society. This is to invite you to this conference. Please find time to pay serious attention to the content and scope of the conference. If you want to say something about it right away please do so and send it to us at vidyaashram@gmail.com and cnkrish@gmail.com
You may also contact C.N. Krishnan to figure out the exact role you may play at the conference.

Sunil Sahasrabudhey 
Vidya Ashram

Sarnath, Varanasi

Tuesday, October 31, 2017

किसान कारीगर पंचायत से उठी आवाज़

वाराणसी में 29 अक्तूबर 2017 को हुई किसान कारीगर पंचायत में जुटे किसान, कारीगर और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस आवाज़ को बुलंद किया कि हर किसान और कारीगर के घर में जब तक सरकारी कर्मचारी के बराबर आय नहीं पहुंचेगी तब तक इस देश में न खुशहाली आ पायेगी और न गैर बराबरी दूर हो पायेगी. 

पंचायत के बाद सारनाथ में किसान और कारीगरों ने जुलूस निकल कर 
अपनी बात को सामने लाया . 

दीनापुर के किसान महेंद्र प्रसाद मौर्य पंचायत को संबोधित करते हुए 

लोकविद्या जन आन्दोलन से प्रेमलता सिंह पंचायत में अपनी बात रखते हुए  

वाराणसी के बुनकर फ़ज़लुर्रहमान अंसारी (आलम भाई) ने मुद्दे को विस्तार से पंचायत में रखा 
और इस एक मुद्दे पर एकजुट होने की अपील की . 


अंत में सुनील सहस्रबुद्धे ने कहा कि इस पंचायत में तरह तरह की क्षमताओं और दृष्टियों के 
संगठनकर्ता उपस्थित हैं . वे सबको पक्की व सरकारी कर्मचारी जैसी आय के मुद्दे पर  
अपने-अपने यहाँ पंचायतें बुलाएं और एक ऐसी प्रक्रिया को जन्म दें जो ऐसे समूहों 
को इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ने के रास्ते बनाने का काम करेगी . 

इस पंचायत का आयोजन विद्या आश्रम के सारनाथ परिसर में हुआ . पंचायत की अध्यक्षता किसान समाज की ओर से शुन्गुलपुर के वीरेन्द्रसिंह चौहान और कारीगर समाज की ओर से वाराणसी के बशीर भाई ने संयुक्त रूप से की तथा सञ्चालन भारतीय किसान यूनियन के वाराणसी जिला अध्यक्ष तथा विद्या आश्रम के सदस्य लक्ष्मण प्रसाद ने किया . पंचायत में बुनकर बिरादरी के एहसान अली और गुलज़ार भाई, भारतीय किसान यूनियन चंदौली के जिला अध्यक्ष जीतेन्द्र कुमार, भारतीय किसान यूनियन के वाराणसी के पूर्व जिला अध्यक्ष विनाद कुमार, गिरसंत, रामखिलावन, रामजनम, शिवमूरत ने पंचायत में मुद्दे को समर्थन देते हुए इस पर  कार्य को तेज़ करने की आवश्यकता को जताया .

विद्या आश्रम 

Wednesday, October 18, 2017

किसान कारीगर पंचायत
रविवार, 29 अक्तूबर 2017
 11 बजे से 4 बजे तक
विद्या आश्रम, सा 10/82 ए, अशोक मार्ग, सारनाथ

पिछले दो-तीन वर्षों से देश का किसान समाज सरकारी नीतियों से ज्यादा ही त्रस्त हैं . देशभर में किसानों ने फसलों के दाम, क़र्ज़, जमीन अधिग्रहण और मुआवज़े कि अन्यायपूर्ण नीतियों के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिए हैं. सरकार ने लाठी गोली के सहारे इन्हें कुचलने का प्रयास भी किया हैं . तमाम राजनैतिक दल किसानों के आंदोलनों से अपने दल को मज़बूत करने के सपने देखने लगे हैं . लेकिन न तो किसी सरकार के पास और न किसी दल के पास किसानों की खुशहाली के लिए कोई ठोस नीतियां हैं. ऐसे में किसान समाज और संगठनों से हमारी अपील हैं कि सरकारों से मांग न करके वे खुद देश के लिए सबकी खुशहाली का एजेंडा बनायें.  
इसी कोशिश में पिछले चार वर्षों से प्रतिवर्ष आश्विन-कार्तिक माह में वाराणसी में किसान कारीगर पंचायत हो रही हैं. इस पंचायत का कहना है कि किसान और कारीगर एकजुट होकर यह दावा सामने रखें कि ---

किसान और कारीगर परिवारों की आय
सरकारी कर्मचारी की आय के बराबर होनी चाहिए

इस एक मुद्दे पर हम तमाम किसान व कारीगर संगठनों और  सामाजिक संगठनों व कार्यकर्ताओं से लगातार वार्ता कर रहे हैं. सरकार द्वारा पिछले वर्ष नोटबंदी और इस वर्ष जीएसटी लगाकर किसान, कारीगर, छोटे दुकानदारों और छोटी पूँजी का धंधा करने वालों को और मुसीबत में डाल दिया है. ऐसे में आय का कम और अनिश्चित होते जाने का सिलसिला बहुत बढ़ गया है.  हमारा आग्रह है कि लोग न्याय के पक्ष में खड़े होने का साहस करें और ऊपर लिखे मुद्दे पर किसानों और कारीगरों के साथ आयें.
इस वर्ष यह पंचायत सारनाथ में विद्या आश्रम पर हो रही है. इस पंचायत में किसान और कारीगर समाज के आर्थिक और सामाजिक न्याय के लिए दिशाबोध हो सके इसके लिए ऊपर लिखे मुद्दे पर तो बात होगी ही साथ ही हाथ के बने सामानों पर से जीएसटी हटाया जाये इस मांग को लेकर बंगलुरु और हैदराबाद में चल रहे सत्याग्रह को व्यापक करने की बात भी होगी . आप इस पंचायत में अवश्य आयें और न्याय की पहल में शामिल हों .


कार्यक्रम

11.00          लोकविद्या के बोल
11.30          चर्चा : हर किसान और कारीगर परिवार कि आय सरकारी कर्मचारी जैसी हो.
2.00            चर्चा : हाथ के सामानों पर से जीएसटी हटाने के लिए सत्याग्रह पर चर्चा
3.30            जुलूस : सबको पक्की आय की मांग के साथ जुलूस जो विद्या आश्रम से सारनाथ चौराहा, संग्रहालय, सुहेलदेव मूर्ती होते हुए वापस विद्या आश्रम पहुंचेगा.
4.00             भोजन

·        

‘हाथ से बने सामानों पर से जीएसटी हटाया जाय’

इस मांग को लेकर बंगलुरु और फिर हैदराबाद के बुनकर संगठन प्रसिद्ध रंगकर्मी और सामाजिक कार्यकर्त्ता प्रसन्ना की अगुवाई में सत्याग्रह कर रहे हैं . इस सत्याग्रह के बारे में जानने के लिए इन्टरनेट पर नीचे दिए लिंक देख सकते हैं –



निवेदक

     लक्ष्मण प्रसाद                    प्रेमलता सिंह                      एहसान अली
( 9026219913 )              ( 9519854478)              (8303244310)
    अध्यक्ष                                            संयोजक                                संपादक                      
भारतीय किसान यूनियन)           ( लोकविद्या जन आन्दोलन)            (कारीगर नजरिया) 
         वाराणसी                             वाराणसी


Wednesday, September 27, 2017

PRESS NOTE Lokavidya Vedike Supports Zero-Tax on Handmade Products

हाथ से बनाई वस्तुओं और सेवाओं से GST हटाया जाये इस मांग के साथ बंगलुरु से सत्याग्रह आंदोलन शुरू हुआ है।  हैदराबाद में भी आवाज़ उठाई गई है। और स्थानों से आवाज़ उठाने की तैयारी है।  इस बीच लोकविद्या आंदोलन के बंगलुरु के उपक्रम 'लोकविद्या वेदिके' ने जो प्रेस विज्ञप्ति जारी की है, उसे हम नीचे दे रहे हैं।

PRESS NOTE
Lokavidya Vedike Supports Zero-Tax on Handmade Products
 22 Sep 2017
Bengaluru
The Lokavidya Vedike fully supports the call for intensification of the ongoing struggle against GST on handmade products by the Gram Seva Sangh, Bengaluru. The Vedike decides to extend all possible assistance to the campaign for zero tax on handmade products. The Vedike believes that handmade products are essential expressions of Lokavidya, that is, the knowledge, skills and beliefs of our craftsmen, artisans, peasants and other ordinary people in the society. The imposition of GST on handmade products is a direct assault on both the lives of ordinary people and Lokavidya.
The Vedike strongly urges the government to withdraw GST on all handmade products without any delay. Moreover, we urge the government to take immediate steps to support and multiply the value and volumes of handmade production in the country, because this alone is capable of providing livelihoods and dignity to the vast majority of Indians.
Regards,
Prof. G.S.R. Krishnan
Dr. J.K. Suresh
Prof. Amit Basole
Conveners
Lokavidya Vedike, Bengaluru


https://lokavidyavedike.wordpress.com/

Monday, September 25, 2017

GST and its implications for Lokavidya Samaj



GST has been introduced in the country from July 1st 2017 and has more-or-less become effective all over the country. What are the stated aims and objectives of GST? This has been summarised as follows:
GST is one indirect tax for the whole nation, which will make India one unified common market. GST is a single tax on the supply of goods and services, right from the manufacturer to the consumer. Credits of input taxes paid at each stage will be available in the subsequent stage of value addition, which makes GST essentially a tax only on value addition at each stage. The final consumer will thus bear only the GST charged by the last dealer in the supply chain, with set-off benefits at all the previous stage.”
As can be seen, the main aim is to make India one unified market with one set of tax rules governing all transactions within this unified market. All producers and consumers are to be included in this unified market (which includes the entire Lokavidya Samaj consituting about 85 crore people; who are both producers and consumers). A majority of goods produced and services provided by Lokavdiya Samaj, pertain to daily life and livelihood necessities. There are hardly any ‘luxury’ goods or services provided by Lokavidya Samaj. Most of the goods and services are locally produced and consumed. So what does a national or all-India market mean to Lokavidya Samaj ? Will GST have any effect on the activities/transactions of and within Lokavidya Samaj? Will Lokavidya Samaj or its livelihoods gain any benefit from GST?

The first response of Lokavidya Samaj to GST

In response to the imposition of GST on handmade products, the Graama Seva Sangha, Bengaluru announced a nationwide movement to Free Hand Made Products from GST by launching a Tax Denial Satyagraha on 27-Aug-2017 at Bangalore. The Satyagraha was inaugurated by Theater Director and Social Activist Prasanna Heggodu, well known for his efforts to build co-operatives such as Charaka and Desi that promote a sustainable livelihood for handloom workers. Following the clarion call given by the Graama Seva Sangha, “Don’t collect and don’t pay tax,” the rally witnessed a sale of handmade footwear, fabric, mats and pots without tax.

A second Satyagraha was observed in Hyderabad on September 9, spearheaded by the All-India Federation of Handloom Organizations and Dastkar Andhra, demanding the withdrawal of tax by the GST Council which had its meeting in the Telangana capital on the day. These organisations have appealed to likeminded organizations and movements across the country to come together to fight for the abolition of tax on handmade goods as well as  for the creation of policy initiatives that recognize handmade products as the foundation of true Swadeshi manufacture in the country. The Satyagraha will be observed in other parts of the country too, including Chennai, Kolkata and Jaipur from September 11 to 24. A padayatra will begin from Junjappana Gudde in Sira taluk in Tumkur district of Karnataka on September 24 and the march will reach Kasturba Gandhi Ashram at Arasikere on October 2, after covering 120 km by foot. A hunger Satyagraha will begin at Arasikere on October 2, on the occasion of Gandhi Jayanti.

The argument for Satyagraha

For the first time since independence, a tax has been imposed on all handmade products in India( which are sought to be sold in this all-India market i.e outside the local market area) As a result, Khadi, handloom, handicrafts and the like are taxed under the GST regime. Under GST, luxury products have become cheaper, while handmade products have become expensive. Cars and cigarettes cost less, while a Khadi saree, a handloom kurta, a mat, pot and plough will cost more. Across India, producers of handmade goods who are already in distress will face even more hardship as a consequence of the imposition of the tax.

With this tax the rural enterprise, already in distress, is going to be hit further. We had fought the British against an inhuman tax on salt nearly a century ago through a Tax Denial Satyagraha. It has become necessary to wage another Satyagraha, and that too against our own government, because GST has dealt a death blow to rural enterprise. “

The aims and objectives of the Satyagraha

The organisers believe that this Satyagraha will restore the moral leadership of India as well. For, “morality is made by toiling hands. Sant Sabhyata the saintly civilization of India is handmade. Sant Ravidas, Sant Kabir, Sant Kanakadasa and Vachanakara Sants were all handcrafting people. Handmade production, equitable society and spirituality of simple living formed the three tenets of that Sabhyata. Today the Sabhyata is in danger. This campaign, for making handmade products tax free is a major step towards the rejuvenation of that Sabhyata.”
The British enslaved India not so much through the gun as through capitalist industry; not so much through politics as through commerce. They came as merchants. Remained as merchants. Plundered natural resources, brought machine made products, and managed to sell the millmade. They did so through tax manipulations. Handmade was taxed heavily while the British machine was given concessions. The same policy is being used by our governments now. GST, created jointly by all state governments and the central government is wrong in many other ways. The machine made that is spreading death across the globe and destroying nature environment and society is made cheaper while the rural product, which is nearly carbon neutral, is made dearer by this regime.”
This struggle involves radical changes to the organization, ethos and economics of the society and cannot be undertaken without support from all sections of the society across India.”

The all-India market and GST

The idea of GST is to establish a single all-India market with a single set of ‘market taxes’. So every producer/service-provider, who wishes to participate in this single market, must register and then, hopefully, derive the ‘benefits’ of this single tax regime; while the consumer ( who does not need to register) can get the ‘benefit’ of this single tax regime at any place or time within this single market area.

Industrial (large scale) producers and service-providers will obviously benefit from this ‘no-boundaries’ market system; where buying and selling has been freed from the ‘limitations and vagaries of localities and geographies’. With the widespread decrease in margins/surpluses, small producers/service-providers have been forced to participate in this market system, most often on very adverse terms of trade. In order to avail of the ‘benefits’ of this GST regime , they find that, rather than proving to be a boon it is actually proving to be a bane and a curse on their lives and livelihoods; thus the Satyagraha! The demand for no-tax/zero-tax on handmade produce and services (which permits for inclusion in the all-India market system), arises from this situation. The legitimacy of this demand cannot be questioned on any economic or moral ground!

Challenging the market ‘dharma’

Market activity involves buying and selling, and the aim is to make (or increase) profits for the producer/service-provider. This is the sole aim of (modern) market activity the world over, that is, this is the globalised ‘dharma’ of the modern market system. Producers and service-providers of Lokavidya Samaj have for long been localised and served the needs and necessities of local producers and consumers through a sustained local-market system. This system seemed to have survived (through the ages) through a now-forgotten ‘dharma’ ; of meeting the needs and necessities of the local producers and service-providers through a relatively fair system of exchange rather than one based on ‘cut-throat’ , competitive, profit-oriented buying and selling activity; devoid of any humanity or environmental-friendliness.

How can the State (or local body) seek revenue, through taxation, on hand-made goods and services? The only capital involved, in such productive or service activity, is human labour and Lokavidya. What tax can one legitimately levy on produce based on such capital? What Economics and/or morality supports such taxation?

The Sant Sabhyata, that the current Satyagraha avers to, probably paraphrases this now-forgotten ‘dharma’. Can the Satyagraha rekindle this ‘dharma’ within the rank and file of Lokavidya Samaj hand-makers? The sustenance of the opposition to the tax, on hand-made goods and services in the current GST regime, will largely depend on this internal strength that the Satyagraha is able to infuse in the rank and file of Lokavidya Samaj .

Krishnarajulu, September 2017

Sunday, August 13, 2017

Prasanna in Vidya Ashram

             Just a few days back we had a very creative and pleasant time at Vidya Ashram as Prasanna was with us for three days discussing and deliberating over art, philosophy and our outlook towards change.  Prasanna, from Bengaluru, is a well known theater personality and a social activist. He was with us in the Ashram during 7-9 August 2017. Other than the long, leisurely and informal discussions at the Ashram, he participated in the meetings of social activists in the city organized by . Sajha Sanskriti Manch. On the last day he told us about how to look at theater. One of these days he also made first class upma for our breakfast. Given below are some details that are worth paying attention to.

Prasanna and Sunil in a discussion at Vidya Ashram

            On 7th August there was a meeting of activists of Varanasi at the Bharat Mata Mandir, to welcome a yatra being undertaken in Eastern Uttar Pradesh to commemorate the occasion of the August Kranti 1942. In this meeting Prasanna spoke about how it would make great sense to organize opposition to GST on Khadi, handloom, and all products and services made by hands. He told that such an idea was under serious consideration of the Federation of Handloom Worker's Societies in Hyderabad and other places. The proposal was that they sell their products and services without paying GST and make an open statement about it and court arrest if the government so intended. His ideas were well received. There were persons from different organizations who said that further steps taken in this regard may be shared with the activists of Varanasi through Vidya Ashram. 
             On 8th August, there was a day time fast in front of District Court to express solidarity with the agitation and fast by Narmada Bachao activists on the bank of Narmada against huge submergence of adivasi population without proper rehabilitation. It was also to express peaceful opposition to the arrest of Medha Patkar, the leader of the agitation, and destruction of the samadhi sthala of Mahatma Gandhi by the government of Madhya Pradesh. The organisers of the fast at Varanasi also contended that they were against purohits of Varanasi participating in the Bhoomi Poojan of the temporary tin shades made for the oustees. Prasanna joined this public expression with Laxman Prasad and Mohammad Aleem of Vidya Ashram.
             On 9th August, we sat down to hear him on what is theater and what is the idea of representation. He talked about how theater is a community phenomena and how in Indian tradition of theater the actor continuously moves in and out of the character. He explained how Indian theater is different from that in the West. Our theater is very close to ordinary life and it does not have individualistic approach. Also it is not performance oriented but rehearsal oriented, meaning that the process of arrival has greater significance than the arrival itself. Vidya Ashram has all along had a reasonable engagement with philosophy and art in trying to see how these endeavors deserve to occupy central places in thinking about a new world and the interventions for the same. These discussions and ideas of art will, hopefully, give a further impetus to such of our efforts. We hope that this is just the beginning and our interactions will scale new heights.
              Prasanna had joined IIT Kanpur for Ph.D. in Chemistry in 1971, but did not stay there for long and left to join National School for Drama at Delhi. After that he went back to Karnataka and founded Samudayam, a theater movement. He wrote novels and plays,  directed them and performed many shows. He was a Marxist then. Later he was attracted towards Gandhi, built an organization called Charakha, a women's cooperative society.  In April 2015, there was a month long Satyagraha spearheaded by All India Handloom Organizations through out Karnataka to highlight the plight of weavers. Large yatras were organized and indefinite fasts were observed in many places. Prasanna had meetings, workshops, street performances and visual art campaigns during the Satyagraha and organized a large convention on 19th April on Sustainable Living at the Gandhi Ashram in Badanwal near Mysore. This is known as Badanwal Satyagraha ( LJA post on 27 April 2015). A large number of social activists and artists participated in it. Vidya Ashram associates, JK Suresh and GSR Krishnan from Bengaluru and Krishnarajulu from Hyderabad also took part in this Satyagraha. In the Summer this year we from Varanasi had opportunity to talk with him at his wonderful Desi Santhe at Ragi Kana in Bengaluru. In this Santhe (bazar) held on every Sunday, a large number of associations participate for sale of their craft products and a large number of people come to buy handloom and handicraft products, food products and organic agricultural produce. Generally also a meeting is held on some social issue. The call is : Come as a Consumer and go back as an Activist.  
  

Vidya Ashram

Saturday, June 10, 2017

Lokavidya Vedike: A Bengaluru Initiative


The lokavidya group in Bengaluru comprising of J.K. Suresh, G.S.R. Krishnan, Amit Basole, Chitra Sahasrabudhey, and Sunil Sahasrabudhey (the last two from Vidya Ashram, Varanasi) met a cross-section of scholars and activists from the world of knowledge in Bengaluru last week. We met those from the Social Sciences and social thought (at Azim Premji Univ.), art (at Ragi Kanna organized by Prasanna's Desi), and science research (JNCASR). We will be uploading audio recordings of these lectures here soon. In the coming weeks we expect to have dialogues with those in the information sciences. 

The main question around which the discussions were aimed was development of a constructive dialectic of equal and fraternal relationship between the world of lokavidya and the world of organized knowledge, the university. The dialogues were initiated by Sunil Sahasrabudhey with presentation on the idea of lokavidya and the nature of changes that the world of knowledge was undergoing. He stressed the point that an active collaborative domain inaugurated together by lokavidya and organized knowledge is expected to hold great promise of a new world whose bottom line is absence of poverty and disparity. 

Most participants in these dialogues were thinking young men and women, below 40 years of age. They asked clarificatory questions and also put forth their views on the subject matter. What has been tried in these dialogues is loud thinking on the idea of a new knowledge domain which has in it lokavidya on an equal footing. This is expected to liberate the world of knowledge from its analytic trappings. Then we can expect radically new ideas about societal and political structures and a new strategy to build a new world without poverty and social disparity. 

A meeting has been called on Saturday, 10th June at 11AM to further explore how a lokavidya standpoint may initiate a process of reflections on the world of knowledge. We expect to work with the name Lokavidya Vedike (Lokavidya Platform) from a location in Thyagaraja Nagar, Basavanagudi.Bangalore

Sunday, March 19, 2017

वाराणसी परिचर्चा-1 : परिवर्तन के कार्यकर्ताओं की नई ज़िम्मेदारी

शनिवार 18 मार्च 2017 की दोपहर 4  बजे वाराणसी के परिवर्तन के कार्यकर्त्ता विद्या आश्रम, सारनाथ में बैठे और नई परिस्थितियों पर आपस में बात किये। नई परिस्थिति यानि उत्तर प्रदेश के चुनावों में चुनकर आये विधायकों में अधिकांश भारतीय जनता पार्टी के हैं और उनकी बहुमत की सरकार बन रही है।  बैठक विद्या आश्रम ने बुलाई थी और यह कह कर बुलाई थी कि अब परिवर्तन के कार्यकर्ताओं पर एक बड़ी वैचारिक ज़िम्मेदारी आ पड़ी है।  मौजूदा विचार सामाजिक ध्रुवीकरण के इस चरण से मुकाबला करने में नाकाम साबित हो रहे हैं और जनता से जुड़े तथा लोकदृष्टि का सम्मान करने वाले कार्यकर्ताओं को उस नई बहस को आकार देना है जो समय की चुनौतियों पर खरी उतरे।  महात्मा गाँधी का सन्दर्भ लेने का भी आग्रह रहा।

बैठक में लगभग 30 कार्यकर्त्ता शामिल रहे। अधिकांश किसी चल रही राजनैतिक विचारधारा से सम्बद्ध नहीं थे।  सभी ने बैठक में अपने विचार रखे।  मोटे तौर पर चुनाव प्रक्रिया की खामियों, लोकतंत्र की सीमाओं, धनतंत्र और मीडिया के जन विरोधी हस्तक्षेप, नई तकनीकी 'स्मार्ट ' दुनिया के एकतरफा आकर्षण, ध्रुवीकरण के आतंकित करने वाले परिणामों व गाँधी जी द्वारा बताये गये सात सामाजिक पापों तथा स्वराज के अर्थों पर  बातें हुईं। लोकचेतना समिति  के नीति भाई, साझा संस्कृति मंच के वल्लभाचार्य, सर्वोदय की जागृती राही , गाँधी विद्या संस्था की डा. मुनीज़ा खान, भारतीय किसान यूनियन के लक्ष्मण प्रसाद और कृष्ण कुमार क्रांति, कारीगर नजरिया के एहसान अली और आलम अंसारी, लोकविद्या जन आंदोलन की प्रेमलता सिंह, बबलू कुमार और मोहम्मद अलीम, आर. आई. डी. एम. के  डॉ. अनूप श्रमिक, विद्या आश्रम के फ़िरोज़, प्रभावती, अंजू और कमलेश, चित्रा जी और सुनील, तथा सतीश सिंह, संतलाल, मक़बूल, बशीर, शिवमूरत राजभर, टेनी मौर्या , दीनानाथ , पंचम प्रसाद, मुन्नू प्रसाद , प्रवाल कुमार , संजय, राजेंद्र प्रसाद , प्रमेश यादव, व अन्य उपस्थित थे.
आपस में बातचीत का यह सिलसिला जारी रखने  पर सहमति बनी।
अगली बैठक राजघाट के सर्वोदय परिसर में करना तय हुआ। यह बैठक रविवार 2 अप्रैल को दोपहर 2 बजे होगी।
इसका आयोजन सर्वोदय की जागृति राही,  आशा ट्रस्ट के वल्लभाचार्य पाण्डेय और गाँधी विद्या संस्थान की डा. मुनीज़ा खान करेंगे।

विद्या आश्रम 

Saturday, January 28, 2017

लोकविद्या का दावा पेश करो!

नीचे पुर्तगाल की कलाकार ग्राडा किलोम्बा की एक कविता है।  हमें लगा कि ये कविता आज की सार्वजनिक दुनिया से लोकविद्याधर-समाज को बहिष्कृत किये जाने की प्रक्रिया को सामने लाती है। कविता कोई रास्ता तो नहीं बताती लेकिन लोकविद्या-समाज के दर्शन को किस तरह तुच्छ और निकृष्ट करार देने का षड़यंत्र चल रहा है, इसे खोलती है और एक बार फिर इस विश्वास को पुख्ता करती है कि रास्ता तो लोकविद्या का दावा पेश करने से ही निकलेगा।

When they speak, it is scientific;     जब वे बोलते हैं तो वो वैज्ञानिक है
when we speak, it is unscientific.    हम बोलें, वो अवैज्ञानिक है।

When they speak, it is universal;     जब वे बोलें, तो वो विश्वव्यापी
when we speak, it is specific.           हम बोलें, सो विशिष्ट

When they speak, it is objective;     वे बोलें सो है वस्तुगत
when we speak, it is subjective.       हम बोलें वो आत्मपरक

When they speak, it is neutral;        वे बोलें सो तटस्थ
when we speak, it is personal.         हम बोलें तो व्यक्तिगत

When they speak, it is rational;       वे बोलें वो तर्कसंगत
when we speak, it is emotional.       हम बोलें, वो भावनात्मक

When they speak, it is impartial;     जब वे बोलें  तो है निष्पक्ष
when we speak, it is partial.             हम बोलें, वो पक्षधर

They have facts, we have opinions                     वे तथ्य आधारित , हम केवल दृष्टिकोण
They have knowledges, we have experiences.   वे ज्ञान पूर्ण, हम मात्र अनुभव आधारित

We are not dealing here with a             यह कोई शब्दों के 'शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व ' 
'peaceful coexistence of words'             की बात नहीं है बल्कि 
                                                                 एक आक्रामक ऊँच-नीच की बात है। 
but rather with a violent hierarchy,     यही श्रेणीबद्धता तय करती है कि   
which defines                                          कौन बोल सकता है और 
WHO CAN SPEAK                               हम क्या बोल सकते हैं । 
and 
WHAT WE CAN SPEAK ABOUT. 


Grada Kilomba in 'Decolonizing Knowledge' (2016)

Wednesday, January 18, 2017

सूचना : वैजापुर और औरंगाबाद की कलाकारों की ज्ञान-पंचायत स्थगित

महाराष्ट्र में नगर और ज़िला पंचायतों के चुनावों के चलते वैजापुर और औरंगाबाद में 8, 9, और 10 फरवरी 2017 को होने वाली कलाकारों की ज्ञान-पंचायत स्थगित की जा रही है।  स्थानीय कार्यकर्ताओं से सलाह लेकर शीघ्र ही इस ज्ञान-पंचायत की अगली तारीखें घोषित की जाएँगी।  
आप इस ज्ञान पंचायत की तैयारियां जारी रखें।

विद्या आश्रम

मुम्बई में कला ज्ञान वार्ता

 हर युग में दुनिया को समझने और उसके पुनर्निर्माण की कई ज्ञान-धारायें होती रही हैं। यूँ कहे कि हर युग में अनेक ज्ञान धारायें एक साथ ज़िंदा रहती हैं और हर ज्ञान-धारा का अपना अलग विश्व-दृष्टिकोण होता है, यानि दुनिया को समझने और रचने का अपना अलग नजरिया होता है। ऐसा लगता है कि दुनिया की समझ और पुनर्रचना में समाज और लोग कभी भी केवल एक ज्ञान-धारा में बंधे नहीं रहते, बल्कि सभी ज्ञान धाराओं का सम्यक इस्तेमाल करते रहे हैं। लेकिन पिछली एक-दो सदी से दुनिया भर के शासकों ने यह मान्यता स्थापित कर दी है कि दुनिया को समझने व पुनर्निर्माण के लिए साइंस ही एकमात्र जायज़ ज्ञान-धारा है, शेष सभी ज्ञान-धारायें या तो अधूरी है या निकृष्ट है। इसके चलते साइंस और साइंटिफिक नज़रिये को और इन पर आधारित/संचालित हर सामाजिक - आर्थिक - सांस्कृतिक क्रिया को 'विकास' कहा जा रहा है और शेष को पिछड़ा - अन्धविश्वास-अप्रासंगिक।  चूँकि साइंस और साईंटिफिक नज़रिये पर आधारित क्रियाओं के ही चलते आज प्रकृति का विनाश और बड़े पैमाने पर लोकविद्या-समाज की तबाही हुई है, ऐसे में यह सवाल जायज़ बनता है कि ज्ञान की अन्य धारायें कौन-कौन सी हैं और इनमें दुनिया को समझने और उसके पुनर्निर्माण के कौनसे रास्ते हैं?  विद्या आश्रम की खोज भी यही है।  
इसी खोज के चलते 8 जनवरी 2017 को मुम्बई में सिनेमा से जुड़े कुछ युवा कलाकारों से हमारी बातचीत हुई। इस बातचीत में वरुण ग्रोवर, नीरज घेवन , ध्रुव सहगल, कार्तिक कृष्णन और नीरजा सहस्रबुद्धे शामिल रहे। बाद में युवा डॉक्यूमेंट्री निर्देशक व कथा लेखक अभिव्यक्ति पाटिल से भी बात हुई। कार्तिक कृष्णन लेखक और अभिनेता हैं और फिल्मों तथा filtercopy, dicemedia नामक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स के लिए लिखते हैं। छोटे-बड़े किरदारों का अभिनय भी करते हैं। ध्रुव सहगल लेखक, अभिनेता, निर्देशक हैं  और filtercopy और dicemedia नामक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स के लिए लिखते हैं। छोटे-बड़े किरदारों का अभिनय भी करते हैं। Short films का निर्देशन किया है। वरुण ग्रोवर लेखक व गीतकार हैं तथा स्टैंड-अप कॉमेडी के शो करते हैं, पुरस्कार प्राप्त 'मसान' फिल्म के लेखक हैं और मसान, दम लगा के हईशा, आँखों देखी इत्यादि फिल्मों के गीतकार हैं। स्टैंड अप कॉमेडी  'ऐसी तैसी डेमोक्रेसी' भी करते हैं। नीरज घेवन निर्देशक हैं और पुरस्कार प्राप्त मसान फिल्म का निर्देशन किया है। निर्देशक अनुराग कश्यप के साथ काम कर चुके हैं। अभिव्यक्ति पाटिल डॉक्युमेंट्री फिल्म बनाती हैं।  ये सभी कलाकार अपने कलाकर्म के मार्फ़त समाज के पाखंड और विसंगतियों को ही सामने लाने के प्रयासों से जुड़े हैं। नीरजा सहस्रबुद्धे गणितज्ञ हैं, IIT मुम्बई में गणित में रिसर्च कर रही हैं और सामाजिक कार्यकर्त्ता व कला समीक्षक हैं। 
विद्या आश्रम की खोज के विषय को सुनील सहस्रबुद्धे  और चित्राजी ने इन कलाकारों के सामने रखा। और उनसे पूछा कि क्या कलाकारों के पास भी कोई ऐसा नजरिया है जो साइंस की सदारत में हो रही इस तबाही को चुनौती दे सके और सबकी खुशहाली का रास्ता बना सकें ? इस सवाल के साथ यह साफ किया कि लोगों की अथवा बृहत् समाज की दृष्टि लोकविद्या में निहित होती है। ' लोक ' के अर्थ पर भी चर्चा की गई।  कहा गया कि लोक कोई आण्विक व्यक्तियों का जमावड़ा अथवा समूह न होकर एक दुनिया का परिचायक है। लोक की आतंरिक बनावट होती है और व्यक्तियों, समूहों, विचारों, संगठनों, परिवर्तन और सञ्चालन की विभिन्न धाराओं यानि मोटे तौर पर कहे तो हर किस्म की सामाजिक अवस्थाओं, प्रक्रियाओं इत्यादि का एक आपसी ताना - बाना होता है, जो खुद सतत परिवर्तनशील होता है। सरल शब्दों में लोक ही समाज हैकला में इस लोक की सतत उपस्थिति है और कलाकार इसके प्रति सचेत और संवेदनशील भी होता ही है। सामान्य भाषा में यह कि कलाकार अपने दर्शकों, प्रेक्षकों और श्रोताओं को पारखी समझता है यानि ग्रहण करना और वापस देना यह गुण लोक में भी उतना ही है जितना कलाकार में होता है। इन अर्थों में कला और साइंस में बुनियादी फर्क हैं।  साइंस में मनुष्य का अलग से कोई स्थान नहीं है।  साइंस को इस बात का बड़ा गर्व है कि उसका दुनिया की बनावट का वर्णन प्रेक्षक यानि मनुष्य से स्वतंत्र है। और फिर साइंस खुद को मनुष्य के अच्छे-बुरे से निरपेक्ष बना लेता है, इसीलिए यह आवश्यक है कि दुनिया को समझने के लिए कला की दृष्टि सामने आये --ऐसी दृष्टियां सामने आएं जिनमें मनुष्य और प्रकृति का हित-अहित  बुनियादी स्तर पर समाहित हो।
जिस तरह लोकविद्या दृष्टिकोण एक ऐसा ज्ञान दृष्टिकोण है जो साइंस के दृष्टिकोण और वर्चस्व को चुनौती देता है, उसी तरह कला की दुनिया से ऐसे दृष्टिकोणों और दर्शनों की अपेक्षा है जो मानव समाज को आज की झूठी, पाखंडी और शोषण की व्यवस्थाओं से निकलने के रास्ते देखने में मदद करे।  
कार्तिक कृष्णन ने कहा कि जिस तरह साइंस के आधार पर दुनिया का एक विशिष्ट वर्णन बनता है कि दुनिया वस्तुओं और उनके गुणों से बनी है, उस तरह कला की कोई अपनी एकमात्र विशिष्ट दृष्टि हो ऐसा शायद नहीं हो सकता। तथापि कलाकार ऐसे विचारों और दर्शनों के निर्माण में महत्वपूर्ण भागीदार होना चाहिए। कला और दर्शन को साइंस की कसौटियों पर कसना ठीक नहीं है।  वे तो खुद समाज की नज़र के नीचे आकार लेते हैं।  उन्हें साइंस जैसी पारलौकिक दृष्टि से कुछ मिलता नहीं है।
वरुण ग्रोवर ने लोक संदर्भित विचार से सहमति जताई तथा लोक के लिये कला की भूमिका क्या है और दर्शन के स्तर पर क्या योगदान हो सकता है इस पर उन्हें और विचार करने की आवश्यकता है ऐसा कहा।
नीरज घेवन ने कहा कि वे अक्सर अपने अंदर के व्यक्ति और कलाकार के बीच संघर्ष में अपने को फंसा हुआ  पाते हैं। एक तरह से यह कलाकार और कला के बीच का संघर्ष है।
नीरजा ने यह सवाल उठाया कि अगर साइंस की मौलिक स्थापनाओं में मानवीय संवेदनाओं का स्थान गौण है तो साइंस के ज्ञान पर आधारित समाज में न्याय कैसे मिलेगा? क्योंकि न्याय और अन्याय की पहचान तो मानवीय संवेदना पर निर्भर है। यह सोचने की ज़रूरत है कि अन्यायपूर्ण स्थितियों पर पहल लेने का नजरिया तो उन्हीं दृष्टिकोणों में मिल सकता है जिनमें 'न्याय-अन्याय' को पहचानने की संवेदनायें निहित हों। निश्चित तौर पर कलाक्षेत्र से ऐसे नजरिये सामने लाने के प्रयास होने चाहिए।
चित्रा जी ने महाराष्ट्र के वैजापुर और औरंगाबाद में होने वाली कलाकारों की ज्ञान-पंचायत के विचार और कार्यक्रम की जानकारी रखी ।
कुछ घंटों की इस बातचीत के अंत में सब इस बात से सहमत थे कि इस विषय पर वार्ता को जारी रखा जाना चाहिए और आगे  मिलकर बात करने का मन बनाया।

विद्या आश्रम