पिछले डेढ़-दो महीनों से देश में आम चुनावों की हवा चल रही है। वही दो पुराने राजनैतिक गठबंधन फ़िर एक बार एक दूसरे के मुकाबले मैदान में हैँ। कई जगह क्षेत्रीय दल भी सक्रिय हैँ। इसी दौरान प्रारम्भ में इन सबसे अलग लगने वाला एक राजनैतिक बवंडर दिल्ली के चुनाव , सरकार की स्थापना और फ़िर इस्तीफ़ा जैसी नाटकीय घटनाओं के रूप में देश में उठा। जिस तेज़ी से यह लहर उठी और फैली उससे और कुछ नही तो यह स्पष्ट हुआ कि आम लोग प्रस्थापित राजनीति से पूर्णतया ऊब चुके हैं। लेकिन आम लोगों की दृष्टि से अब इस लहर की दिशाहीनता साफ़ दिखाई दे रही है। वे अपने आप को अजीब सी कैंची में फंसा हुए पा रहे हैं। एक तरफ से कार्पोरेट दुनिया के लिये पोषक वर्तमान व्यवस्था को ही भ्रष्टाचार मुक्त रूप में चलाने की न समझ में आने वाली घोषणाएं सुनाई दे रही हैं , तो दूसरी ओर यही व्यवस्था सक्षम तरीके से चलाने के सामर्थ्य की घोषणाओं के रूप में इसी भ्रष्टाचार का खुले आम समर्थन देखने को मिल रहा है।
चुनावों के नतीजे जो भी निकलें , वर्ष 1990, और वर्ष 2000 से और अधिक तेज़ी से , घटती जनांदोलनों की ताकत फ़िर से किस तरह बढ़ाई जा सकेगी , यह मूल प्रश्न है। भ्रष्टाचार का सीमित अर्थ लगाने वाली , मौलिक आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था पर बात करने से कतराने वाली तथा शोषित समाज और समाज निर्माण में उसकी महत्तम अग्रणी भूमिका से दूर हटकर किसी खोखली काल्पनिक निष्कलंकित प्रशासकीय व्यवस्था की बात करने वाली 'आप ' पार्टी जन-आंदोलनों को कैसे आकर्षित कर सकती है ? आरम्भ के दौर में लोगों का घोषणा पत्र , लोगों का उम्मीदवार और स्वराज्य की बातें करने वाली 'आप ' पार्टी चुनावी माहौल में इन आग्रहों को भुला देती है , इसे कैसे नज़र-अंदाज़ किया जा सकता है ? लोगों के हित में अपना सब कुछ समर्पित करने वाले जन-आंदोलनों के कार्यकर्ता अगर ऐसा कर रहे हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि वैचारिक रूप में ये जन-आंदोलन थकान सी महसूस कर रहे हैं , और लोगों के सामने भावी समाज का एक स्वस्थ प्रारुप पेश करने में अपने आप को असमर्थ पा रहे हैं। साथ ही सभी यह महसूस कर रहे हैं कि लोगों के सवालों पर नये सिरे से आपसी विचार विमर्श और नये सिरे से इन सवालों को सामने ऱखने की आवश्यकता है।
क्या यह सच नहीं कि आम लोगों के सवालों को लेकर जो विचार सामने आते रहे हैं वे 'विकास ' की अवधारणा में लिपट कर कुंठित हो गये हैं ? इस अवधारणा पर भले ही कई प्रकार के मत-मतान्तर देखने को मिलते हैं , छोटे-मोटे से लेकर सारे राष्ट्रीय राजनैतिक दल भी विकास की ही बात करते आये हैं , और आज भी कर रहे हैं। साथ ही सारे आंदोलनकारी संगठन भी, मानवतावादी दृष्टिकोण के मोड़ के साथ ही क्यों न हो , 'विकास' की अवधारणा के आधार पर ही अपनी बात रखते हैं। ' विकास ' के दृष्टिकोण में दो बातें हमेशा ही केन्द्र स्थान छेके रहती हैँ। इसमें से एक है लोगों की गरीबी , उनकी मज़बूरी , उनका ' अनाड़ीपन ' , और इस सबसे उत्पन्न ' नाकारा ' पन और 'नाक़ाबिलियत'। दूसरी है, ऐसे 'सामर्थ्यहीन ' लोगों का बाहर से विकास। 'विकास' की अवधारणा लोगों का सामर्थ्य , उनकी क्षमताएं और उनके पास निहित ज्ञान को पूरी तरह से नकारती है।जो लोग और समाज सर्वथा विपरीत नीतिगत और प्रशासकीय स्थितियों के बावजूद, मात्र अपनी निहित क्षमताओं और ज्ञान के बल पर अपना जीवनयापन करते आये हैं , उनकी दृष्टि में विकास की अवधरणा क्या एक विनाशकारी आडम्बर से अधिक कुछ है, या हो सकती है ? पिछले कुछ दशकों की घटनाओं ने इस आडम्बर का साफ़तौर पर पर्दाफाश किया है।
यह निर्विवाद है कि लोगों के सवालों के हल और साथ ही समता पर आधारित स्वस्थ और संवेदनशील समाज का निर्माण किसी व्यापक जन आंदोलन के चलते ही हो सकता है। इसीलिये यह ज़रूरी है कि नया समाज गढ़ने के विचार की शुरुआत विकास की अवधारणा और भाषा को त्यागकर तथा आम लोगों की क्षमताओं , उनके शक्ति के स्थानोँ और ज्ञान पर ध्यान केन्द्रित करके एक नये सिरे से होनी होगी।
इस सन्दर्भ में लोकविद्या जन आंदोलन की पहल से नागपुर में 28 -29 जून 2014 को लोगों के आंदोलन करने वाले जन-संगठन और किसानों , आदिवासियों , कारीगरों , दलितोँ , महिलाओं तथा छोटे दुकानदारों के संगठनों की बैठक का आयोजन किया गया है। इस बैठक में ऊपर रखी गयी बातोँ को लेकर जन-आंदोलन का वैचारिक आधार नये सिरे से व्यवस्थित करने पर विचार किया जाएगा।
इसके साथ बैठक के दूसरे दिन लोगों के पास के ज्ञान और उस पर आधारित उनकी क्षमताओं पर ध्यान केन्द्रित करने के लिये दो बातों पर विचार कर आन्दोलन का कार्यक्रम निश्चित करने का प्रयत्न किया जायेगा। ये दो बातें हैं -
विजय जावंधिया , गिरीश सहस्रबुद्धे , विलास भोंगाडे
लोकविद्या जन आंदोलन , नागपुर
( यह मराठी पर्चे का हिंदी अनुवाद है। )
चुनावों के नतीजे जो भी निकलें , वर्ष 1990, और वर्ष 2000 से और अधिक तेज़ी से , घटती जनांदोलनों की ताकत फ़िर से किस तरह बढ़ाई जा सकेगी , यह मूल प्रश्न है। भ्रष्टाचार का सीमित अर्थ लगाने वाली , मौलिक आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था पर बात करने से कतराने वाली तथा शोषित समाज और समाज निर्माण में उसकी महत्तम अग्रणी भूमिका से दूर हटकर किसी खोखली काल्पनिक निष्कलंकित प्रशासकीय व्यवस्था की बात करने वाली 'आप ' पार्टी जन-आंदोलनों को कैसे आकर्षित कर सकती है ? आरम्भ के दौर में लोगों का घोषणा पत्र , लोगों का उम्मीदवार और स्वराज्य की बातें करने वाली 'आप ' पार्टी चुनावी माहौल में इन आग्रहों को भुला देती है , इसे कैसे नज़र-अंदाज़ किया जा सकता है ? लोगों के हित में अपना सब कुछ समर्पित करने वाले जन-आंदोलनों के कार्यकर्ता अगर ऐसा कर रहे हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि वैचारिक रूप में ये जन-आंदोलन थकान सी महसूस कर रहे हैं , और लोगों के सामने भावी समाज का एक स्वस्थ प्रारुप पेश करने में अपने आप को असमर्थ पा रहे हैं। साथ ही सभी यह महसूस कर रहे हैं कि लोगों के सवालों पर नये सिरे से आपसी विचार विमर्श और नये सिरे से इन सवालों को सामने ऱखने की आवश्यकता है।
क्या यह सच नहीं कि आम लोगों के सवालों को लेकर जो विचार सामने आते रहे हैं वे 'विकास ' की अवधारणा में लिपट कर कुंठित हो गये हैं ? इस अवधारणा पर भले ही कई प्रकार के मत-मतान्तर देखने को मिलते हैं , छोटे-मोटे से लेकर सारे राष्ट्रीय राजनैतिक दल भी विकास की ही बात करते आये हैं , और आज भी कर रहे हैं। साथ ही सारे आंदोलनकारी संगठन भी, मानवतावादी दृष्टिकोण के मोड़ के साथ ही क्यों न हो , 'विकास' की अवधारणा के आधार पर ही अपनी बात रखते हैं। ' विकास ' के दृष्टिकोण में दो बातें हमेशा ही केन्द्र स्थान छेके रहती हैँ। इसमें से एक है लोगों की गरीबी , उनकी मज़बूरी , उनका ' अनाड़ीपन ' , और इस सबसे उत्पन्न ' नाकारा ' पन और 'नाक़ाबिलियत'। दूसरी है, ऐसे 'सामर्थ्यहीन ' लोगों का बाहर से विकास। 'विकास' की अवधारणा लोगों का सामर्थ्य , उनकी क्षमताएं और उनके पास निहित ज्ञान को पूरी तरह से नकारती है।जो लोग और समाज सर्वथा विपरीत नीतिगत और प्रशासकीय स्थितियों के बावजूद, मात्र अपनी निहित क्षमताओं और ज्ञान के बल पर अपना जीवनयापन करते आये हैं , उनकी दृष्टि में विकास की अवधरणा क्या एक विनाशकारी आडम्बर से अधिक कुछ है, या हो सकती है ? पिछले कुछ दशकों की घटनाओं ने इस आडम्बर का साफ़तौर पर पर्दाफाश किया है।
यह निर्विवाद है कि लोगों के सवालों के हल और साथ ही समता पर आधारित स्वस्थ और संवेदनशील समाज का निर्माण किसी व्यापक जन आंदोलन के चलते ही हो सकता है। इसीलिये यह ज़रूरी है कि नया समाज गढ़ने के विचार की शुरुआत विकास की अवधारणा और भाषा को त्यागकर तथा आम लोगों की क्षमताओं , उनके शक्ति के स्थानोँ और ज्ञान पर ध्यान केन्द्रित करके एक नये सिरे से होनी होगी।
इस सन्दर्भ में लोकविद्या जन आंदोलन की पहल से नागपुर में 28 -29 जून 2014 को लोगों के आंदोलन करने वाले जन-संगठन और किसानों , आदिवासियों , कारीगरों , दलितोँ , महिलाओं तथा छोटे दुकानदारों के संगठनों की बैठक का आयोजन किया गया है। इस बैठक में ऊपर रखी गयी बातोँ को लेकर जन-आंदोलन का वैचारिक आधार नये सिरे से व्यवस्थित करने पर विचार किया जाएगा।
इसके साथ बैठक के दूसरे दिन लोगों के पास के ज्ञान और उस पर आधारित उनकी क्षमताओं पर ध्यान केन्द्रित करने के लिये दो बातों पर विचार कर आन्दोलन का कार्यक्रम निश्चित करने का प्रयत्न किया जायेगा। ये दो बातें हैं -
- हर व्यक्ति के लिये उसके अपने ज्ञान के बल पर कम से कम उस आय की गारंटी हो जो विभिन्न वेतन आयोग संगठित क्षेत्र के लिये न्यूनतम वेतन के रूप में तय करते हैं।
- तथाकथित प्रगतिशील विज्ञान और तकनीकी , अर्थशास्त्र और प्रबन्धन शास्त्र के नाम पर किये जाने वाले राष्ट्रीय संसाधनों के सर्वथा विषम वितरण को तुरन्त रोक कर शिक्षा , स्वास्थ्य , बिजली , पानी और वित्त इन सभी संसाधनों का बराबर का बंटवारा हो।
विजय जावंधिया , गिरीश सहस्रबुद्धे , विलास भोंगाडे
लोकविद्या जन आंदोलन , नागपुर
( यह मराठी पर्चे का हिंदी अनुवाद है। )
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