नागपुर में २८ और २९ जून को होने वाली बैठक में जिन मुद्दों पर बहस होगी उनके अतिरिक्त एक और मुद्दे पर बहस अनिवार्य है। मुद्दा है : लोकविद्याधर समाज की चुनावी राजनीती में दखलअंदाजी। वाराणसी में हो रहे सामाजिक गठबंधनों में आपसी विचार विमर्श का निष्कर्ष यदि यह है कि चुनावों के पश्चात - लोकविद्याधर समाज के परिप्रेक्ष में - परिस्थितियाँ और खराब हो जायेंगी, तो ऐसी परिस्तिथियों का सामना केवल आपसी विचार विमर्श करने और अधिकारों को मांगने से नहीं हो सकता।
संघर्ष अपनी जगह सही है, लेकिन यदि पूरा का पूरा निज़ाम और इसके वजूद की अवधारणा ही लोकविद्याधर समाज के जीवन दर्शन के विपरीत हो तो केवल अराजनीतिक संघर्ष कहाँ तक अपनी मंज़िल हासिल करने में सक्षम हो सकता है , इस पर गंभीर रूप से विचार करने की आवश्यकता है। जो आधुनिक समाज के सक्रिय सदस्य हैं, जिनकी शोषण की व्यवस्था में पूरी भागीदारी है, उन्हें उनके जीवन में सब कुछ बिना संघर्ष मिल जाता है, क्योंकि पूरा निज़ाम ही उनके लिए बना है।
अधिकार मांगने से नहीं मिलते, उन्हें हासिल करना पड़ता है। लोकविद्याधर समाज को यदि अपने अधिकार हासिल करने हैँ, तो मेरी समझ में उसे राजनितिक पहल करनी होगी। इस समाज के जीवन दर्शन को कार्यान्वित करने के लिये उसके अनुकूल व्यवस्थायें और राजनितिक विचारधारा का होना जरूरी है।
किसान, कारीगर और आदिवासी इन सब का यह मानना या फिर इनपर यह थोपना कि वह सब को एक जुट करने की राजनीति नहीं कर सकते, यह सिर्फ एक मानसिक स्थिति है ; जो संघर्ष कर सकते हैं वह राजनीति नहीं कर सकते यह कहाँ तक सही है, क्योंकि हर संघर्ष के पीछे एक प्रकार की राजनीति का होना अनिवार्य है ; यदि ऐसा नहीं है तो कोई भी संघर्ष शुरू होने से पहले हीख़त्म हो जायेगा . जो हज़ारो की गिनती में जमा होकर अपनी मांगों के लिए प्रदर्शन कर सकते है वह आपस में मिलकर अपने भविष्य को खुद तय करने की प्रक्रिया क्यों शुरू नहीं कर सकते ? बात सिर्फ निश्चय करने की है, क़ाबिलियत या नाक़ाबिलियत की नहीं। 'हम नहीं कर सकते', यह एक ऐसी मानसिक स्थिति है जो बिना क़ाबिलियत आजमाये खुद को नाकाबिल घोषित करती है .
लोकविद्याधर समाज को यह तय करना होगा कि अगले पांच सालों मेंवे इसलिए प्रयतनशील रहेंगे कि उनको आने वाले संसद और विधान सभा चुनावों में खुद के प्रतिनिधि खड़े करने हैं ताकि उनकी सरकार सत्ता में आये. जीवन की गतिविधियों से जुडीकोई भी दार्शनिक विचारधारा तब ही कार्यान्वित हो सकती है जब उसके समर्थक सत्ता में हों. न्याय तो तब ही मिलेगा और यदिऐसा होनेपर भी नहीं मिला , तो कभी नहीं कहीं नहीं मिलेगा !
ललित कौल
लोकविद्या जन आंदोलन , हैदराबाद
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