(अप्रैल 3 और अप्रैल 5 के अंग्रेजी के ब्लॉग पोस्ट का हिंदी रूपांतरण नीचे दिया जा रहा है। )
आगामी लोकसभा चुनावों के सन्दर्भ में 29 मार्च 2014 को आपस में चर्चा के लिए लोकविद्या जन आंदोलन ने एक बैठक आयोजित की। हालांकि बैठक छोटी थी , 15 के आस-पास व्यक्ति उपस्थित थे , सामाजिक आंदोलनों , ट्रेड यूनियन, दलित संगठन, शेतकरी संघटना, मीडिया , लोकविद्या जन-आंदोलन (लो.ज.आ.) और विद्या आश्रम से भागीदारी रही। आम आदमी पार्टी (आप ) के उदय के अर्थ और जन आंदोलनों के भविष्य पर चर्चा हुई।
सुनील सहस्रबुद्धे ने आप पर चर्चा शुरू की। उन्होंने कहा कि यह उस नये व्यावसायिक वर्ग की पार्टी है जो अब लगभग 20 साल से वैश्वीकरण तथा नई सूचना प्रोद्योगिकी के तहत आकर ले रहा है। यह ऐसे बहुत पढ़े-लिखे समूह के रूप में देखा जा रहा है जिसके सदस्य आपस में सामाजिक मीडिया यानि इंटरनेट के मार्फ़त जुड़े हैं। यह एक ऐसा वर्ग है जो अभी तक के सभी शासक वर्गों की तुलना में आम जनता से अधिक दूर है। उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और 'आप' भारत में एक वैसी ही प्रक्रिया के रूप में उपजे हैं जैसी आंदोलनात्मक प्रक्रियाएं मिस्र, तुर्की , तुनीशिया , लीबिया, सीरिया , यूक्रेन , थाईलैंड और अमेरिका में भी पिछले 5 सालों में खड़ी होते देखी गयी हैं। इन सभी आंदोलनों के बारे में यह कहा जाता रहा है कि इन्हें बनाने में सामाजिक मीडिया, फेस बुक इत्यादि की बड़ी भूमिका रही हैं। इन सभी आंदोलनों को पश्चिम की सरकारों और वहाँ के मीडिया का समर्थन प्राप्त रहा है। हालाँकि इनमें से अधिकतर लोकतंत्र के हवाले खड़े हुए, उन्हें फ़ौज की मदद लेने में कोई गुरेज नहीं रहा है। कोई अचरज की बात नहीं है कि 'आप' द्वारा शुरू की गयी बहसों में किसान, कारीगर और आदिवासी कहीं दिखाई नहीं देते। यह एक शहरी आंदोलन है और इसने शहरी ग़रीबों की परिस्थिति पर चिंता व्यक्त की है। 'आप' का उस हद तक स्वागत है जिस हद तक वह वर्तमान राजनीतिक तौर-तरीकों और ढांचे को हिला रही है , लेकिन यह न भूला जाए कि उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि वे पूंजीवाद के खिलाफ नहीं हैं। वे मुकेश अम्बानी और अडानी पर हमला तो बोल रहे हैं लेकिन कार्पोरेशन के नेतृत्व में पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था के खिलाफ वे नहीं बोलते। उनकी खुले तौर पर कथित नीति भ्रष्टाचार समाप्त करने की है और इसके हल का रास्ता वे प्रशासनिक सुधार में देखते हैं। उनके उम्मीदवारों के चयन और प्रचार के तरीकों से यही दिखाई देता है कि दिल्ली से उपजी यह पार्टी क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के दायरे घटाने का ही काम करेगी और इसके चलते भी राजनीतिक प्रक्रियाओं को लोगों से और दूर ले जायेगी। पूरा का पूरा घटनाक्रम जनता की , किसानों, कारीगरों और आदिवासियों की एक नई राजनीति की ज़रुरत को रेखांकित करता है।
उन्होंने कहा कि जन आंदोलनों के कई वरिष्ठ नेता 'आप' के टिकट पर इस लोकसभा चुनाव के उम्मीदवार हैं। इससे ऐसा लगता है कि पार्टी आधारित चुनावी राजनीतिक प्रक्रियाओं ने जन-आंदोलनों को अपने अंदर ले लिया है। इसका कारण यह नहीं दिखाई देता कि जन-आंदोलनों के कार्यकर्ता 'आप' में कोई भविष्य देख रहे हैं , लेकिन यह ज़रूर प्रतीत होता है कि वे जन-आंदोलनों का कोई भविष्य नहीं देख रहे हैं। इसलिए जन-आंदोलनों का पुनर्निर्माण यह देश भर में संघर्षों में जुटे सामाजिक कार्यकर्ताओं के सामने एक बड़े कार्य के रूप में उभरा है।
वर्धा से अाये शेतकरी संघटना के प्रसिद्ध किसान नेता विजय जवंधिया ने कहा कि 'आप' का जन्म भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से हुआ है, जिस मूल विषय पर वे अभी भी टिके हुए हैं लेकिन उन्हें इस देश के सबसे बड़े भ्रष्टाचार पर कुछ कहने के लिए नहीं है। किसानों और आदिवासियों के संसाधनों की लूट और उनके उत्पादन और काम के लिए कम-से-कम दाम देना, ये इस देश के भ्रष्टाचार के सबसे बड़े नमूने हैं , जिनके बारे में 'आप' चुप है। उन्होंने असंगठित व संगठित क्षेत्र में आय की विषमता को प्रमुख मुद्दे के रूप में प्रस्तुत किया। सरकार द्वारा बनाये वेतन आयोगों का सन्दर्भ लेते हुए खेतिहर मज़दूरों और सरकारी कर्मचारियों की आमदनी की तुलना की। उन्होंने कहा कि सातवां वेतन आयोग घोषित है और 2016 से उसकी संस्तुतियां लागू होंगी और उस समय तक एक आंदोलन तेज़ किया जाना चाहिए जो इस देश के हर कार्यकर्ता के लिए उसी आय कि मांग करे जो सरकारी कर्मचारियों के लिए तय किया जाता है। यह लो.ज.आ. की ही मांग है जो कहता है कि अपने ज्ञान के बल पर यानि लोकविद्या के बल पर काम करने वाले लोगों की आय सरकारी कर्मचारियों की आय के बराबर होनी चाहिए। अब की बार जन-आंदोलन को लोकविद्या ज्ञान की भाषा का इस्तेमाल करके लोकदृष्टि से एक नयी दुनिया पेश करनी है।
कोलकाता से प्रकाशित अख़बार द टेलीग्राफ के नागपुर संवाददाता जयदीप हर्डीकर ने नौजवानों की दृष्टि से कई बातें कहीं। उन्होंने कहा कि उन लोगों ने कोई चुनावी लहर कभी नहीं देखी है और इस चुनाव में उन्हें जनता के मुद्दों पर कोई बहस नहीं दिखाई देती। उन्होंने इस मूल्यांकन से अपनी सहमति दिखाई कि 'आप' नए व्यावसाइक वर्ग की पार्टी है और यह कहा कि यह लोग बड़े पैमाने पर मीडिया में हैं। इस बात पर उन्होंने ज़ोर दिया कि इस चुनाव में मीडिया और राजनीति दोनों का ही जनता और सामाजिक प्रक्रियाओं के साथ कोई सम्बन्ध नहीं दिखाई देता। संपर्क (connectivity) पर आधारित वर्ग का उदय समाज और जनता के साथ एक नए और ज़बरदस्त असंपर्क (disconnect) का शिकार दिखाई देता है। उनका कहना था कि जन-आंदोलनों का पुनर्निर्माण एक गम्भीर चुनौती के रूप में उभरा है।
एडवोकेट अशोक थुल ने 'आप' पार्टी के चरित्र के उपरोक्त विश्लेषण से सहमति व्यक्त की और कहा कि अब परिस्थितियां बहुत बदली हुई हैं और जन-आंदोलनों के पुनर्निर्माण में सभी को साथ आने की ज़रुरत है।
लो. ज. आ. के डा. गिरीश सहस्रबुद्धे ने कहा कि आम और गरीब लोगों की ज़रुरत के सन्दर्भ में नयी दृष्टि अपनाना आवश्यक है। समाजवाद और प्रगति की भाषा भविष्य की कोई संकल्पना तैयार करने में अब कारगर नहीं है। अब जन-आंदोलनों के निर्माण के लिए लोकविद्या के ज्ञान विमर्श के मार्फ़त लोगों की ज़रुरतों और उनकी ताकत की एक एकीकृत दृष्टि अपनानी चाहिए।
सीटू ट्रेड यूनियन के कामरेड गुरप्रीत सिंह ने जन-आंदोलनों में संगठित क्षेत्र के संघर्षों को शामिल करने की बात कही। उन्होंने कहा कि इनके यूनियन सक्रिय हैं लेकिन मीडिया उनके काम नहीं दिखाता। उन्होंने उदाहरण दिया उस वाकये का जब जंतर -मंतर पर 'आप' पार्टी का एक छोटा सा प्रदर्शन मीडिया में छाया रहा जबकि उसी दिल्ली में उसी दिन ट्रेड यूनियन के लाखों लोग एक प्रदर्शन में इकठ्ठा थे किन्तु मीडिया ने उस ओर नज़र तक नहीं डाली।
दलित पैंथर के नेता प्रकाश बंसोड़ ने बैठक का समापन किया।
लो. ज. आ. और कष्टकरी जन-आंदोलन के विलास भोंगाडे ने इस बैठक का सञ्चालन किया और अंत में यह विचार के लिए रखा कि इस बैठक की प्रक्रिया आगे कैसे जायेगी ? इस बात से सब सहमत थे कि चुनाव के बाद, शायद जून अंत में, जन संघर्षों का एक ऐसा समागम संगठित किया जाये जिसमें इस बैठक में विशेष तौर पर उभरी दो बातें प्रमुख हों। ये बातें हैं -
- असंगठित क्षेत्र और सरकारी कर्मचारियों के वेतन की विषमता दूर हो। केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त वेतन आयोग द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन सभी को मिलना चाहिए। ज्यादातर लोग अपने ज्ञान यानि लोकविद्या के आधार पर काम करते हैं और अपनी जीविका कमाते हैं। इन सब लोगों को नियमित मासिक वेतन मिलना चाहिए जो सरकारी कर्मचारी के बराबर हो।
- देश भर में विभिन्न मुद्दों , विषयों और क्षेत्रों में कार्यरत सामाजिक कार्यकर्ता, अभियान और संघर्ष साथ आकर जन-आंदोलन का पुनर्निर्माण करें। विकास, लोकतंत्र और प्रगति की भाषा के जाल से अपने को मुक्त करें और अपने ज्ञान व अपनी भाषा के जरिये एक नयी दुनिया के आधारभूत विचार की चर्चा आगे बढ़ाएं। यही आर्थिक न्याय और सभी को बराबरी का सम्मान के आधार पर इस देश के पुनर्निर्माण का रास्ता है।
इस नागपुर बैठक के बाद इस चुनाव के दौर में लो.ज.आ. क्या करे इस पर दो बातें सामने आयीं -
- जहाँ-जहाँ लो.ज.आ. सक्रिय है वहाँ और संगठनों और धाराओं के साथ मिलकर सार्वजनिक कार्यों, सभा इत्यादि को आकार दिया जाये। उन सब लोगों को शामिल करने का प्रयास हो जो इस चुनाव के मार्फ़त गरीब लोगों के भविष्य में सुधार की कोई सम्भावना नहीं देखते। ये सभाएं या प्रक्रियाएं उम्मीदवारों से वार्ता के लिए न हों, बल्कि यह कहने के लिए हों कि सामाजिक कार्यकर्ताओं की दृष्टि में इस देश की जनता इस देश को कैसा देखना चाहती है।
- लो. ज. आ. अपने कार्यों के प्रमुख स्थानों पर चुनाव के दिन के पहले प्रेस वार्ताएं बुलाएं। यह नागपुर, पटना / दरभंगा, सिंगरौली / बस्तर , इंदौर / भोपाल , हैदराबाद , विजयवाड़ा और वाराणसी में हो सकती हैं। गिरीश, विजय कुमार, रवि शेखर, संजीव, अवधेश, कृष्णराजुलु, नारायणराव , मोहनराव , दिलीप और चित्राजी कृपया इस पर विशेष ध्यान दें। प्रेस वार्ता के अपने पत्रक में लो.ज.आ. दृष्टिकोण, उस क्षेत्र से सम्बंधित बातें , चुनाव में ग़रीबों के मुद्दों की अनुपस्थिति और जन-आंदोलनों का 'आप' में समाहित हो जाना जैसी बातें हों। लोकविद्या ज्ञान विमर्श के जरिये जन-आंदोलन के नए आधार को बनाने की बात हों। इसके लिए दो बातें विशेष रूप से शामिल की जा सकती हैं- (i) लोकविद्या आधारित जीविका के परिवारों में कम-से-कम एक तनख्वाह आनी चाहिए जो सरकारी कर्मचारी की तनख्वाह के बराबर हो। (ii) राष्ट्रीय संसाधनों का बराबर का बंटवारा हो। ये राष्ट्रीय संसाधन हैं - बिजली, पानी, वित्त, शिक्षा और स्वास्थ्य।
प्रेस वार्ता के ये पत्रक वहीँ तैयार किये जाएं जहाँ प्रेस वार्ता आयोजित की जा रही हो।
सुनील सहस्रबुद्धे
विद्या आश्रम
No comments:
Post a Comment