आज 2014 के आम चुनावों के पहले के दिनों में परिवर्तन के कार्यकर्त्ता दो प्रमुख विषयों पर विचार कर रहे हैं। पहला यह कि जन-आंदोलनों के नेता व वरिष्ठ कार्यकर्ता अच्छी तादाद में चुनाव लड़ रहे हैं, तो अब जन-आंदोलनों का भविष्य क्या है ? दूसरा यह कि आम आदमी पार्टी (आप) कैसी पार्टी है, इसका चरित्र क्या है, इसकी नीतियां क्या हैं , क्या इसके चलते शोषित और गरीब जनता के लिए कोई नयी आशा जगती है या फिर इतना ही कि इस पार्टी के आ जाने से स्थापित राजनीति में मची खलबली परिवर्तन के पक्ष में काम करने के लिए नए स्थान बनाती है।
विद्या आश्रम
ये सवाल एक दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते क्योंकि ज्यादातर जन-आंदोलन के नेता 'आप' के टिकट से ही चुनाव मैदान में हैं। मेधा पाटकर-मुम्बई, संजीव साने-ठाणे, सुभाष लोमटे-औरंगाबाद, अलोक अग्रवाल-खंडवा, अनिल त्रिवेदी-इंदौर, सोनी सोरी-बस्तर, दयामनी बरला-खूंटी, लिंगराज-बरगढ़ , अलीमुद्दीन अंसारी-किशनगंज, उदय कुमार-कन्याकुमारी, राकेश टिकैत-गजरौला ( रालोद ) इत्यादि। और भी होंगे, हमें सबकी जानकारी नहीं है। 'आप' के साथ जाने और न जाने को लेकर आंदोलनों के कार्यकर्ताओं में बड़ी बहस है। पक्ष और विपक्ष दोनों में इस बात पर मोटी सहमति दिखाई देती है कि 'आप' से शायद कोई बड़ी उम्मीद नहीं की जा सकती, लेकिन जबकि एक पक्ष कुछ ऐसा सोचता है कि वहाँ जाकर इस उम्मीद को बनाने का काम किया जा सकता है, वहीं दूसरे पक्ष को यह लगता है कि 'आप' में शामिल होने का ऐसा कोई नतीजा निकले या न निकले , किन्तु यह प्रक्रिया अब दो दशकों से अधिक से चल रहे जन-आंदोलन के इस चरण का पटाक्षेप अवश्य कर सकती है।
परिवर्तन के कार्यकर्ताओं की यह आम मान्यता रही हैं कि जन-आंदोलन परिवर्तन के कारक घटकों का अनिवार्य हिस्सा होते हैं। जन-आंदोलनों की अनुपस्थिति में न्याय के पक्ष में नीतियां नहीं बन पाती हैं और न जन-पक्ष के फैसले ही हो पाते हैं। ये जन-आंदोलन किसानों, आदिवासियों, कारीगरों, महिलाओं और नौजवानों के होते रहे हैं। अब इनमें पटरी के दुकानदार भी शामिल हो गए हैं। ये सब अपने संसाधन बचाने, जीविका बचाने, सुरक्षा के लिए अथवा अपने काम और उत्पादन के दाम हासिल करने के लिए संघर्ष करते रहे हैं। इनके संघर्षों और संगठनों से ही जन-आंदोलन बनते रहे हैं, जिन्हें बनाने और चलाने में सामाजिक कार्यकर्ता अपनी भूमिका निभाते रहे हैं। इन समाजों की पार्टियां नहीं होतीं। इनके आंदोलन समाज में बड़े बदलाव के रास्ते खोजते रहे हैं , लेकिन जब-जब इन्होंने पार्टियां बनाईं, तब-तब कोई बड़ा रास्ता खुलना तो दूर आंदोलन ही कमज़ोर हुआ। पार्टियां पूंजीपतियों की होती हैं, व्यापारियों, व्यावसायिक वर्गों और संगठित क्षेत्र के कामगारों की होती हैं। जब-जब आंदोलन पार्टियों के फेर में पड़ते हैं, वे इन्हीं वर्गों में से किसी का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए मजबूर हो जाते हैं और आंदोलन अपने मुख्य रास्ते से भटक जाता है।
वास्तविकता यह है कि देश भर में किसानों और आदिवासियों के संघर्ष चल रहे हैं, लेकिन जन-आंदोलनों का नेतृत्व उनके बीच किसी व्यापक एकता अथवा समन्वय को प्रभावी रूप नहीं दे पा रहा है। इस परिस्थिति में लोकविद्या जन आंदोलन सामाजिक कार्यकर्ताओं के सामने यह बात रखता आ रहा है कि आंदोलन के नेतृत्व को प्रगति, विकास और लोकतंत्र की भाषा से अपने को मुक्त करके लोगों के ज्ञान और उनकी भाषा का सहारा लेना होगा। लोकविद्या के आधार पर व्यापक एकता के विचारों को अपनाना होगा। महात्मा गांधी के दर्शन में जन-आंदोलन के पुनर्निर्माण का आधार खोजना होगा।
किसान, कारीगर, मज़दूर, आदिवासी, महिलाएं, पटरी के दुकानदार ये सब मिलकर इस देश का एक बहुत बड़ा ऐसा बहुमत हैं, जो अपने ज्ञान के बल पर अपना परिवार और समाज चलते हैं। इस देश की सरकारों ने इनकी विद्या और क्षमता के संवर्धन पर कोई खर्च नहीं किया है, उलटे इनके ज्ञान और श्रम को लूटने की सारी व्यवस्थाएं बनाई हैं। यह लोकविद्या समाज है और इनके ज्ञान, विचार और भाषा के जरिये ही देश और दुनिया में सत्य और न्याय का सम्मान करने वाली व्यवस्थाओं का निर्माण किया जा सकता है। ज़रुरत यह है कि बड़ा और दूर का सोचा जाये और नई बन रही दुनिया में जन-आंदोलनों के जरिये समाज की ताकत के नए रूपों की खोज की जाये।
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